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न्यायपालिका का बुलन्द इकबाल

04:37 AM Mar 30, 2024 IST | Aditya Chopra

स्वतन्त्र भारत में न्यायपालिका का इतिहास ऐसे स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है जिसमें लोकतन्त्र का ध्वज सर्वदा शिखर पर लहराता रहा है। यदि इमरजेंसी के केवल 18 महीनों के कार्यकाल को छोड़ दिया जाये तो भारत की न्यायपालिका ने पूरी दुनिया में अपनी भूमिका को हमेशा न्याय के पक्ष में इस प्रकार बनाये रखा है कि भारत के साधारण से साधारण नागरिक के भी मौलिक अधिकारों की रक्षा हो सके। हमारे पुरखे हमें जो लोकतन्त्र सौंप कर गये हैं उसमें न्यायपालिका की भूमिका सर्वदा संविधान का शासन देखने की है । भारत की राजनैतिक दल गत प्रशासनिक व्यवस्था में सरकार किसी भी राजनैतिक दल की हो सकती है मगर शासन कानून या संविधान का ही होता है। सर्वोच्च न्यायालय इसी प्रणाली का संरक्षक होता है। हमारे संविधान निर्माता जो व्यवस्था करके गये हैं उसके अनुसार संसद से लेकर सड़क तक संविधान के अनुसार काम को चलते हुए देखना सर्वोच्च न्यायालय की जिम्मेदारी है। यही वजह है कि हमारी न्यायपालिका संसद द्वारा बनाये गये कानून को भी संविधान की कसौटी पर कस कर उसके खरा या खोटा होने का फैसला करती है।
हाल ही में संसद द्वारा ही बनाये गये चुनावी बॉण्ड कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने असंवैधानिक करार देकर यही सिद्ध किया कि कानून अपनी सत्यता जाहिर करने के लिए किसी का मोहताज नहीं हो सकता। चुनावी बॉण्ड कानून जब 2018 में संसद में बनाया गया था तो इसका विरोध स्वयं चुनाव आयोग ने भी किया था परन्तु बाद में यह चुप पड़ गया। न्यायपालिका का दायित्व सच को उजागर करने और उसे प्रतिष्ठापित करने का होता है जो कि लोकतन्त्र का मूल मन्त्र होता है और जिसे हमारे पुरखों ने इस प्रणाली का ब्रह्म वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ के रूप में घोषित किया था। स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान इस मन्त्र को वेदों से खोजकर कोई और नहीं बल्कि भारत रत्न ‘महामना मदन मोहन मालवीय’ लाये थे। इसलिए न्यायपालिका लोकतन्त्र में उस अदम्य साहस की भी परिचायक होती है जिसे ‘पराक्रम’ कहा जाता है। इसके समक्ष राजा और रंक सब बराबर होते हैं जिसका प्रमाण 12 जून, 1975 को वह दिन है जिस दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री जगमोहन लाल सिन्हा ने फैसला देते हुए तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी का रायबरेली लोकसभा सीट से लड़ा गया चुनाव अवैध करार दे दिया था। इसका कारण एक ही था कि भारत में केवल संविधान का शासन ही चलेगा। मगर स्वतन्त्र भारत में ऐसे अवसर भी कई बार आये हैं जब सत्ता ने न्यायपालिका को अपने रुआब में लेने के प्रयास किये हैं।
प्रसन्नता की बात यह है कि हर बार सत्ता को न्यायपालिका के समक्ष ‘रुआंसा’ ही होना पड़ा हो। 1973 में जब श्रीमती इन्दिरा गांधी ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पद पर कई वरिष्ठ न्यायमूर्तियों को लांघ कर कनिष्ठ न्यायमूर्ति अजित नाथ राय को स्थापित कर दिया था तो विद्रोह जैसी स्थिति हो गई थी और कई वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। इसी पृष्ठभूमि में इन्दिरा जी ने वक्तव्य दिया था कि न्यायपालिका को सरकार की नीतियों के अनुरूप अपने फैसले देने चाहिए। उनके इस वक्तव्य का विरोध राष्ट्रीय स्तर पर हुआ था और न्यायपालिका पर इसका कोई असर नहीं पड़ा था। अतः कल ही लगभग छह सौ वकीलों द्वारा मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ को लिखे गये पत्र को इस रोशनी में देखा जाना चाहिए। हालांकि इस पत्र के लिखे जाने का उद्देश्य स्पष्ट नहीं है क्योंकि इसमें न तो कोई प्रार्थना की गई है और न कोई एेसा दृष्टान्त दिया गया है जिससे यह पता चल सके कि कुछ शक्तियां न्यायपालिका को प्रभावित करना चाहती हैं।
सबसे दीगर तथ्य यह है कि न्यायपालिका राजनीति से ऊपर है क्योंकि न्यायमूर्तियों का धर्म और दायित्व केवल और केवल संविधान होता है। यह बात भी सबसे पहले समझी जानी चाहिए कि भारत में केवल संविधान सम्मत ही राजनीति हो सकती है। यही वजह है कि राजनीति में सक्रिय होने से पहले प्रत्येक राजनीतिक दल को सबसे पहले संविधान की कसम उठानी पड़ती है जिसका निर्देशन चुनाव आयोग करता है। हमारे लोकतन्त्र की यह भी खूबी है कि जब इसके तीन पाये कार्यपालिका, न्यायपालिका व चुनाव आयोग किसी वजह से हांफने लगते हैं तो केवल न्यायपालिका ही होती है जो इसे आक्सीजन देकर पुनः सजग और चेतन बना देती है। ऐसे एक नहीं बहुत से उदाहरण हैं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि न्यायपालिका किसी जन अवधारणा के आसरे अपने फैसले नहीं करती है बल्कि कानून की ‘रुह’ से अपने फैसले देती है। यदि एेसा न होता तो 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण को सर्वोच्च न्यायालय अवैध घोषित न करता और राजा-महाराजाओं के प्रिविपर्स उन्मूलन को भी अवैधानिक न बताता। इन दोनों कानूनों को बाद में संसद में संविधान संशोधन करके ही लागू किया गया था। कानून की निगाह में राजनैतिक विमर्शों का कोई महत्व नहीं होता है बल्कि संवैधानिक स्थिति का महत्व होता है। अतः इसके किसी के प्रभाव में आने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। हमें अपनी न्यायपालिका पर गर्व होना चाहिए और माथा ऊंचा करके हर भारतीय को फख्र से कहना चाहिए कि वह संविधान से चलने वाले देश का नागरिक है। कानून का इकबाल बुलन्द रखना ही लोकतन्त्र का मूल मन्त्र भी होता है।

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