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न्यायमूर्ति गवई का ‘महाराष्ट्र’

लोकतन्त्र के स्तम्भों का सम्मान जरूरी: न्यायमूर्ति गवई…

07:22 AM May 20, 2025 IST | Aditya Chopra

लोकतन्त्र के स्तम्भों का सम्मान जरूरी: न्यायमूर्ति गवई…

न्यायमूर्ति गवई का ‘महाराष्ट्र’

भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था जिन तीन प्रमुख स्तम्भों पर टिकी हुई है उनमें न्यायापालिका, विधायिका व कार्यपालिका प्रमुख हैं। चौथा स्तम्भ ‘चुनाव आयोग’ इस लोकतन्त्र की जमीन को तैयार करता है अतः उसकी भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इस सन्दर्भ में हम यदि न्यायपालिका को लें तो स्वतन्त्र भारत में इसकी प्रतिष्ठा व गरिमा आम लोगों के बीच सन्देह से परे रही है। बेशक इमरजेंसी के दौर में 70 के दशक में इसकी प्रतिष्ठा शक के घेरे में आई थी मगर इस 19 महीने के कार्यकाल को छोड़कर कभी भी न्यायपालिका पर आम लोगों का विश्वास नहीं डिगा। इसका मूल कारण यह है कि भारत संविधान से चलने वाला देश है और न्यायपालिका इसी संविधान की रखवाली करती है। यह अपना कार्य सीधे संविधान से शक्ति लेकर करती है और राजनीतिक आधार पर गठित सरकारों के कार्यों की इसी आधार पर समीक्षा करती है। स्वतन्त्रता के बाद समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा कि भारत का लोकतन्त्र चौखम्भे राज पर टिका हुआ है जिसमें कार्यपालिका, न्यायपालिका व विधायिका के अलावा चौथा स्तम्भ स्वतन्त्र प्रेस (मीडिया) है। हालांकि भारत के संविधान में प्रेस का कहीं कोई जिक्र नहीं है।

डा. लोहिया ने संविधान में दिये गये अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के मूल अधिकार को स्वतन्त्र प्रेस से जोड़ा और इसे तीनों अन्य खम्भों का चौकीदार कहा। प्रेस भी सरकार का अंग नहीं होती है और यह भी अपना कार्य संविधान में दिये गये अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार से लेकर करती है। स्वतन्त्र प्रेस का उत्तरदायित्व जनहित के प्रति होता है। मगर आज सवाल लोकतन्त्र के तीनों प्रमुख खम्भों के आपसी सम्बन्धों का है जिसकी तरफ हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बने न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने दिलाया है। श्री गवई ने कहा है कि इन तीनों स्तम्भों को एक-दूसरे का सम्मान और आदर करना चाहिए। निश्चित रूप से स्वतन्त्र भारत के इतिहास में ऐसा मौका कभी नहीं आया जबकि इन तीनों स्तम्भों का आपसी द्वंद रहा हो। मोटे तौर पर एक-दो वाकये जरूर हुए हैं जब लोगों को लगा कि न्यायपालिका व विधायिका में आपस में आमना-सामना हुआ। खास कर स्व. इन्दिरा गांधी के 70 के दशक के कार्यकाल के दौरान।

1974 में केशवानन्द भारती मामले में जब सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आया कि संसद संविधान के मूल ढांचे में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकती है और नागरिकों के मूल अधिकारों के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं कर सकती है तो स्व. इन्दिरा गांधी को इससे हिच​किचाहट हुई और उन्होंने कह दिया कि न्यायपालिका को सरकार की नीतियां देख कर अपने फैसले देने चाहिए। उनके इस वक्तव्य को तब स्वतन्त्र न्यायपालिका पर हमला माना गया और एक नई बहस शुरू हो गई कि संसद सर्वोच्च है या न्यायपालिका। मगर इस बहस का अन्त भी तब यह निकला कि न्यायपालिका चूंकि सरकार का अंग नहीं है और वह सीधे संविधान से शक्ति लेकर अपना कार्य करती है अतः उसे सरकारी निर्णयों का दास नहीं बनाया जा सकता और उसका धर्म है कि वह सरकार के हर फैसले को संविधान की कसौटी पर कसे।

जहां तक सरकार की नीतियों का सवाल है तो उन्हें बनाने के लिए सरकार स्वतन्त्र है मगर जाहिर तौर पर ये नीतियां भी संविधान के अनुरूप ही होंगी क्योंकि सरकार भी अपना कार्य संविधान की शपथ लेकर ही करती है। मगर आज का मौजूदा सवाल न्यायपालिका के आदर का है। यह भारत का बच्चा-बच्चा जानता है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका के शीर्षस्थ व्यक्ति होते हैं। उन्हें पद व गोपनीयता की शपथ संविधान के संरक्षक व तीनों सेनाओं के सुप्रीम कमांडर राष्ट्रपति ही दिलाते हैं और जवाब में राष्ट्रपति चुने जाने पर उन्हें पद व गोपनीयता की शपथ मुख्य न्यायाधीश दिलाते हैं।

अतः भारत के मुख्य न्यायाधीश का आदर भी इसी नजरिये से किया जाना चाहिए। मगर मुख्य न्यायाधीश श्री गवई जब कल ही महाराष्ट्र की राजधानी पहुंचे तो उनके सम्मान में महाराष्ट्र व गोवा की बार परिषद ने एक सम्मान समारोह का आयोजन किया। इस समारोह में न्यायमूर्ति गवई ने अपना दुख जिस प्रकार व्यक्त किया उस पर हर भारतवासी गंभीर मुद्रा में है। श्री गवई महाराष्ट्र के अमरावती जिले के रहने वाले हैं और वह मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद पहली बार अपने राज्य महाराष्ट्र की यात्रा पर आये थे। अतः उनकी अगवानी करने के लिए राज्य के मुख्य सचिव, पुलिस महानिदेशक व मुम्बई के पुलिस आयुक्त होने चाहिए थे। मगर इनमें से कोई भी उनके स्वागत के लिए नहीं पहुंचा। यह शिष्टाचार के विरुद्ध है। मुख्य न्यायाधीश भी भारत के लोकतन्त्र के प्रहरियों में ही आते हैं क्योंकि भारत के आमजन को न्याय प्रदान करना उनकी संवैधानिक जिम्मेदारी होती है।

इसी वजह से उन्हें कहना पड़ा कि लोकतन्त्र के तीनों खम्भों को एक-दूसरे का आदर करना चाहिए। हालांकि जब बाद में वह नागपुर में बाबा साहेब अम्बेडकर की चैत्य भूमि गये तो उपरोक्त तीनों शख्सियतें उनकी अगवानी में वहां पहुंची। असली सवाल तो यह है कि मुख्य न्यायाधीश दै​निक सरकारी प्रक्रिया में नहीं आते हैं मगर वह न्याय के संरक्षक हैं और संविधान के भाष्यकार भी हैं। उनका सम्मान करना प्रत्येक राज्य सरकार का परम कर्त्तव्य बनता है। सरकारें भी शिष्टाचार से ही चलती हैं इसीलिए महाराष्ट्र में इस विभाग का अलग से मन्त्री भी है। मन्त्री महोदय को भी मुख्य न्यायाधीश के उद्गारों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। लोकतन्त्र में लोक लज्जा का बहुत महत्व होता है। अपने देश के मुख्य न्यायाधीश का सम्मान महाराष्ट्र की धरती पर इसलिए भी पूरे जोश-ओ-खरोश से होना चाहिए था क्योंकि वह इसी राज्य की झोपड़ पट्टी इलाके में कभी रहा करते थे और नगरपालिका के स्कूल में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई थी। दलित परिवार में पैदा होकर इस पद पर पहुंचने वाले वह दूसरे व्यक्ति हैं। मगर महाराष्ट्र के पहले नागरिक हैं।

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Aditya Chopra

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