Kali Puja 2025: 20 या 21 अक्टूबर, किस दिन है काली पूजा? जानें इसका महत्व और पूजा विधि
Kali Puja 2025: हिंदू धर्म में काली पूजा हर साल कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को मनाई जाती है। भारत के कई हिस्सों में दिवाली के दिन ही देवी काली की पूजा की जाती है। भारत में ऐसे बहुत से त्योहार हैं, जिसका अपना-अपना महत्व है। इस पूजा को खासतौर से पश्चिम बंगाल में बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है। इस पूजा को श्यामा पूजा के नाम से भी जाना जाता है। आइए जानते हैं, किस दिन होती है काली जी की पूजा।
काली जी की पूजा को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जिस घर में काली जी की पूजा की जाती है, उस घर में कभी भी दुख, संकट का वास नहीं होता है। दिवाली एक बहुत ही बड़ा और महत्वपूर्ण त्योहार है, जो लोग देवी काली की पूजा करते हैं, उन लोगों को बहुत सी ज़रूरी बातों का ध्यान रखना होता है। क्योंकि काली माता की पूजा बड़े ही विधि-विधान के साथ की जाती है। इस पूजा के दौरान माता काली को उनके प्रिय भोग अर्पित किए जाते हैं, उनके भोग में उन्हें फल, मिठाई, मछली से लेकर दाल का भोग अर्पित किया जाता है।
Kali Puja Vidhi 2025: काली पूजा विधि और मुहूर्त
इस दिन उबटन लगाकर स्नान करना अत्यंत पवित्र माना जाता है। काली माता के साथ भगवान गणेश की पूजा करने से सभी दुख दूर होते हैं। लाल या काले कपड़े पर माता काली की मूर्ति या तस्वीर स्थापित करें। पूजा शुरू करने से पहले पंचामृत से मां काली को स्नान कराएं, फिर उनकी आराधना आरंभ करें। काली माता को हल्दी, कुमकुम, सिंदूर और फूलों से दुल्हन की तरह सजाएं। इस पूजा के दौरान गुड़हल के फूल और काले तिल अर्पित करना अत्यंत शुभ होता है।
सरसों के तेल का दीपक जलाकर माता के चरणों में रखें, ताकि उसकी सुगंध से वातावरण में शांति और सकारात्मकता आए। इस मंत्र का जाप करें- ‘ॐ क्रीं काली’ या ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’। इसके बाद कपूर से काली माता की आरती उतारें। इस विधि-विधान के साथ माता की पूजा करने से जीवन में सुख समृद्धि आती है।
हिंदू पंचांग के अनुसार, इस साल काली पूजा 20 अक्टूबर को दोपहर 3.44 बजे शुरू होगी। इसकी तिथि का समापन 21 अक्टूबर को शाम 5.54 बजे होगा। इसलिए इस साल काली पूजा 20 अक्टूबर 2025 को मनाई जाएगी। निशीथ काल की पूजा का समय 20 अक्टूबर को रात 11:41 बजे से 21 अक्टूबर को मध्यरात्रि 12:31 बजे के बीच होगा।
Kali Maa Stotra: काली माता स्तोत्र
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।
जगन्मोहिनीयं तु वाग्वादिनीयं, सुहृदपोषिणी शत्रुसंहारणीयं।।1।।
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।
इयं स्वर्गदात्री पुनः कल्पवल्ली, मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात।।2।।
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।
सुरापानमत्ता सुभक्तानुरक्ता, लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवस्ते।।3।।
जपध्यान पुजासुधाधौतपंका, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।
चिदानन्दकन्द हसन्मन्दमन्द, शरच्चन्द्र कोटिप्रभापुन्ज बिम्बं।।4।।
मुनिनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा, कदाचिद्विचित्रा कृतिर्योगमाया।।5।।
बाला न वृद्धा न कामातुरापि, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।
क्षमास्वापराधं महागुप्तभावं, मय लोकमध्ये प्रकाशीकृतंयत्।।6।।
तवध्यान पूतेन चापल्यभावात्, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।
यदि ध्यान युक्तं पठेद्यो मनुष्य, स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च।।7।।
गृहे चाष्ट सिद्धिर्मृते चापि मुक्ति, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।।8।।
।। इति महाकाली स्तोत्रम् ।।
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