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कर्नाटक चुनाव और राजनीति

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12:31 AM May 04, 2018 IST | Desk Team

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भारत के लोकतन्त्र के चारों पाये जिस तरह अपनी स्वतन्त्र हस्ती को अपने ही कारनामों से डरा रहे हैं उससे संसदीय प्रणाली की वह नींव हिलती नजर आ रही है जो इस व्यवस्था में आम जनता को ही सरकार का मालिक बनाती है और शासन करने वालों को इसका नौकर घोषित करती है।

 

हम हर पांच साल बाद राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर एक वोट के अधिकार से अपने हुक्मरान नहीं बल्कि सेवक तय करते हैं और उन्हें हुक्म देते हैं कि वे हमारी सारी सम्पत्ति की सुरक्षा एक सजग चौकीदार की तरह करेंगे और अगले चुने हुए नौकरों के हाथ में इसमें इजाफा करके पूरा हिसाब-किताब देंगे मगर कर्नाटक में चल रहे चुनावों को देखकर एेसा लग रहा है कि राजनीति अपने सिर पर पैर रखकर इस सूबे के सरमाये को अपने मुंह में भरकर भाग जाना चाहती है और लोगों के सामने उन बेइमानों को ईमानदार सिद्ध करना चाहती है जिन्होंने हुकूमत में रहते हुए खुलेआम जनता के सरमाये पर डाका डाला था।

 

इस राज्य में चुनावों के परिणामों से जो सिद्ध होने जा रहा है वह यही है कि क्या बी.एस. येदियुरप्पा जैसे लुटिया चोट्टे सियासतदां को इस राज्य के लोग वह नामदारी बख्शेंगे जिसे मुख्यमन्त्री कहते हैं अथवा वह कामदारी अता करेंगे जिसे बेलदारी कहते हैं। बेल्लारी की खनिज से भरपूर धरती को खोद-खोद कर यहां के लोगों को कंगाली की हालत में रखने वाले वे रेड्डी बन्धु क्या फिर से सत्ता की सरहद में घुसने की हिमाकत कर सकेंगे जिन्होंने कभी नोटबन्दी की सारी हदें तोड़ते हुए अपने ही को टकसाल होने का प्रमाणपत्र दिया था।

यह राज्य मूल रूप से किसानों का राज्य है जिसके लोगों का ईमानदार प्रतिनिधित्व एक समय में स्व. वीरेन्द्र पाटिल और देवराज अर्स जैसे राजनीतिज्ञों ने किया और इस राज्य को वैज्ञानिक प्रगति की दाैड़ में शामिल किया। वर्तमान मुख्यमन्त्री श्री सिद्धारमैया स्व. चौधरी चरण सिंह के एेसे शिष्य रहे हैं जिन्होंने दक्षिण भारत में किसान मूलक सैद्धान्तिक राजनीति के पांव जमाने में ग्रामीण कर्नाटक के लोगों को सत्ता का हकदार बनाने में अपने प्रारं​भिक राजनीतिक जीवन में भारी संघर्ष किया है।

 

यदि बेबाक विश्लेषण किया जाये तो देवराज अर्स के बाद वह कर्नाटक के एेसे नेता हैं जिन्होंने राष्ट्रीय राजनीति के नायकों को अपने व्यक्तित्व से चुनौती दे रखी है। इस राज्य के चुनावों को हम असाधारण इसलिए कहेंगे क्योंकि एक बार फिर यहां की अस्मिता अपना रुतबा तलाश रही है और धन व बाहुबल के बूते पर राजनीति करने वालों को उनकी सही जगह दिखाना चाहती है लेकिन इन चुनावों में जो राजनीतिक विमर्श आम जनता को परोसा जा रहा है उससे एेसा लगता है कि चुनाव किसी राज्य की सरकार के लिए नहीं बल्कि किसी म्युनिसपलिटी पर कब्जा करने के लिए हो रहे हैं।

बाजारू भाषा में चौराहे के मुद्दे खड़ा करके इस राज्य के मूलभूत मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है और दक्षिण भारत के इस प्रवेश द्वार को सस्ती, भड़काऊ व फिल्मी तर्ज की राजनीति में उलझाया जा रहा है। दरअसल यह सब सिद्धारमैया की उस ग्रामीण मूलक राजनीति को तहत-नहस करने का प्रयास है जो उन्होंने बेल्लारी के खनन माफिया रेड्डी बन्धुओं को उनकी सही जगह दिखाने के बाद शुरू की थी।

सवाल किसी पार्टी विशेष का नहीं है क्योंकि कर्नाटक की राजनीति कभी भी उत्तर भारत की जाति मूलक राजनीति की मानिन्द टुकड़ों में बंटी हुई नहीं रही है। बेशक वोकलिंग्गा और लिंगायत समुदायों के इर्द-गिर्द चुनावी जय-पराजय के समीकरण बनते-बिगड़ते रहे हैं मगर ये 80 के दशक के बाद से शुरू हुआ घटनाक्रम ही है। बाद में इसमें जिस प्रकार साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई उससे इस राज्य की वह नैसर्गिक विशेषता समाप्त होती चली गई जिसे स्व. वीरेन्द्र पाटिल और देवराज अर्स ने बड़े यत्न से संभाले रखा था।

इस राज्य में जिस प्रकार मैसूर के शेर कहे जाने वाले एेतिहासिक चरित्र टीपू सुल्तान को लेकर राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिश की गई उससे भी यही सिद्ध हुआ कि इस राज्य की आर्थिक शक्ति को कुछ लोग किस तरह कब्जाना चाहते हैं, मगर यह अकेले कर्नाटक की समस्या नहीं है, देश के विभिन्न राज्यों में एेसी शक्तियां सत्ता के साथ अपनी गोटियां बिछाकर आर्थिक स्रोतों को अपने अधिकार में लेती जा रही हैं और हम मूर्खों की तरह हिन्दू-मुस्लिम विवाद में उलझे रहते हैं। असल में जनमत को इस तरह बाजारू और फूहड़पन के किस्सों में सिमटा कर राजनीतिक दल अपनी ही असफलता का परिचय दे रहे हैं और सिद्ध कर रहे हैं कि उनमें आम जनता से आंखें मिलाकर उनके मुद्दों पर बात करने की ताकत नहीं है।

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