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केरल नई पहचानों के लिए लड़ रहा है

04:00 AM Oct 22, 2025 IST | Prabhu Chawla

केरल, जो लंबे समय से सामाजिक सुधार और प्रगतिशील राजनीति का गढ़ माना जाता रहा है, अब एक गहरे राजनीतिक बदलाव से गुजर रहा है। वो राज्य जो कभी भारत का कम्युनिज्म और धर्मनिरपेक्ष तर्क का वैचारिक गढ़ था, अब सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बढ़ती खिंचाव से जूझ रहा है। केरल की लोकतंत्र की वो द्विध्रुवीय लय, जो आधी सदी से चली आ रही थी। लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट और कांग्रेस-नीत यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के बीच सत्ता का तयशुदा बदलाव अब कमजोर पड़ रही है। इसके बजाय, एक तीसरा ध्रुव उभर रहा है, क्योंकि भाजपा और संघ परिवार अब ऐसे राज्य में सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं पर दिखाई देने वाला असर डाल रहे हैं, जिसे कभी उनके प्रभाव से बचा हुआ माना जाता था।
आगामी 2026 के विधानसभा चुनाव ने राज्य को विचारधाराओं, पहचानों और सत्ता के युद्धक्षेत्र में बदल दिया है। मुख्यमंत्री पिनारायी विजयन के नेतृत्व में एलडीएफ और राज्य कांग्रेस अध्यक्ष सनी जोसेफ के नेतृत्व में कांग्रेस-नीत यूडीएफ अपनी जमीन को बचाने के लिए हाॅफ रहे हैं, जबकि राजनीतिक परिदृश्य उनके पैरों तले खिसक रहा है। दशकों तक राज्य कम्युनिज्म और धर्मनिरपेक्ष रूढ़िवाद का किला था। आज, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा, साथ ही संघ परिवार केरल की राजनीति में राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक गर्व और आक्रामक विचारधारा को इंजेक्ट कर नियम बदल रही है। हर विवाद, हर नैतिक बहस और हर समुदाय की जुटान अब चुनाव के चश्मे से देखी जा रही है जिससे 2026 सिर्फ वोटिंग नहीं, बल्कि राज्य के भविष्य की वैचारिक पहचान पर एक जनमत संग्रह बन गया है। केरल की कहानी जो लंबे समय से लाल रंग में लिखी गई थी, अब धीरे-धीरे भगवा रंगों में फिर से लिखी जा रही है। चुनाव से पहले का दौर पहले ही ऐसे विवादों की बाढ़ ला चुका है जो लेफ्ट की वैचारिक कमजोरियों को उजागर करते हैं। लेफ्ट और कांग्रेस ने आरएसएस के एक नेता के खिलाफ पुराना केस खोद निकाला, जिसमें उस पर एक शख्स का यौन शोषण करने का आरोप लगाया गया ​िजस ने बाद में आत्महत्या कर ली। ये केस तब सामने आया जब संघ का प्रभाव साफ दिख रहा था जो ये संकेत देता है कि लेफ्ट चुनावी फायदे के लिए नैतिक विवादों को हथियार बनाना तैयार है। उसी समय केरल के सामान्य शिक्षा मंत्री, सीपीआई (एम) के.वी. सिवानकुट्टी ने एक मुस्लिम छात्रा के स्कूल में हिजाब पहनने के अधिकार का सार्वजनिक समर्थन किया, इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मामला बताते हुए भाजपा के राज्य अध्यक्ष राजीव चंद्रशेखर ने इसे खुले तौर पर तुष्टिकरण कहा। दिलचस्प बात ये कि कांग्रेस के प्रवक्ता रमेश चेन्निथला ने, जो शायद ही कभी ऐसा करते हों, जांच के दायरे में आए आरएसएस कैडर को चुपके से समर्थन दिया।
इस साल की शुरूआत में, भाजपा-शासित छत्तीसगढ़ में कैथोलिक ननों की हिरासत को लेफ्ट और कांग्रेस ने भाजपा पर हमला करने के लिए इस्तेमाल किया, जबकि भगवा खेमे ने इसे विपक्ष की चयनात्मक आक्रोश का सबूत बताया। ये चिंगारियां अकेली नहीं हैं। ये बढ़े हुए चुनावी राजनीतिक माहौल को दर्शाती हैं, जहां पहचान, नैतिकता और धर्म ने शासन को पीछे छोड़ दिया है और बहस के मुख्य धुरी बन गए हैं।
हिजाब बहस और पुराने आरोपों का फिर से उठना लेफ्ट की मौजूदा वैचारिक नाजुकता को उजागर करता है। चयनात्मक धार्मिक दावों का समर्थन करके, सिवानकुट्टी और उनकी पार्टी अल्पसंख्यक वोटों की तलाश कर रही है लेकिन ऐसा करके वे लेफ्ट के धर्मनिरपेक्ष मूल को पतला कर रहे हैं। भाजपा ने इन मौकों को लपक लिया, लेफ्ट के पाखंड को उजागर करने के लिए, ये दिखाते हुए कि जो पार्टी कभी तुष्टिकरण की आलोचना करती थी, अब वो खुलेआम इसका अभ्यास कर रही है। कांग्रेस, जो अभी भी स्पष्ट रुख तलाश रही है, अवसरवाद से लेफ्ट का बचाव करने और भाजपा की आलोचना करने के बीच झूल रही है। केरल का राजनीतिक विमर्श जो कभी तर्कवाद और कल्याण पर आधारित था, अब चुनावी दिखावे, नैतिक अस्पष्टता और पहचान की राजनीति से हावी हो गया है। भाजपा का 2024 के लोकसभा चुनावों में सफलता ने चुनावी गतिशीलता को और तेज कर दिया है। पहली बार, पार्टी ने केरल में एक संसदीय सीट जीती, जब अभिनेता से राजनेता बने सुरेश गोपी ने त्रिशूर पर कब्जा किया, दशकों की हाशिए पर रहने वाली स्थिति को खत्म करते हुए। पार्टी का राज्यव्यापी वोट शेयर करीब 16 प्रतिशत पहुंच गया, तिरुवनंतपुरम, पालक्कड़ और त्रिशूर जैसे निर्वाचन क्षेत्रों में 25 प्रतिशत या इससे ज्यादा मिला। हालांकि केरल की जनसांख्यिकीय संरचना ही भाजपा की महत्वाकांक्षाओं के लिए एक बड़ी बाधा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक हिंदू राज्य की आबादी का 54.73 प्रतिशत हैं, मुसलमान 26.56 प्रतिशत और ईसाई 18.38 प्रतिशत। इस तरह मुसलमान और ईसाई मिलाकर केरल की आबादी का करीब 45 प्रतिशत बनते हैं। वे बड़े अच्छी तरह संगठित हैं और मस्जिदों, चर्चों, समुदायिक संगठनों और अल्पसंख्यक राजनीतिक गठनों में गहरे जड़े हैं। भाजपा का वोट शेयर बढ़ रहा है लेकिन प्रमुख मोर्चों से काफी पीछे है। आरएसएस शायद एकतरफा कथा को बदल सकता है लेकिन लंबे समय में भी राजनीतिक सत्ता हासिल करना मुश्किल होगा। ये सिर्फ राजनीतिक मोड़ नहीं है, ये केरल का कर्मिक हिसाब है, जहां विश्वास संस्कृति से टकराता है और भगवान की अपनी देश की कहानी उसके अपने बच्चों द्वारा फिर से लिखी जा रही है।
फिर भी समाजशास्त्रीय रूप से बदलाव पारंपरिक समुदायिक संरेखणों में दिखाई दे रहे हैं। एझावा समुदाय जो श्री नारायण धर्म परिपालना योगम के तहत वेल्लापल्ली नटेसन द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है, अब भगवा पहलों से बढ़ती निकटता दिखा रहा है। नायर सर्विस सोसाइटी, जी सुकुमारन नायर के नेतृत्व में सबरीमाला जैसे मुद्दों पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रति खुलापन दिखा रही है।
केंद्रीय केरल के युवा ईसाई नेता भी अपनी राजनीतिक संबद्धताओं पर पुनर्विचार कर रहे हैं। मतदाता अब पारंपरिक वैचारिक निष्ठाओं से बंधे नहीं हैं और लेफ्ट और कांग्रेस के हावी होने वाली जगह अब विरासत, सांस्कृतिक एकजुटता और सिद्धांतपूर्ण शासन पर आधारित विचारधारा से चुनौती दी जा रही है। इसके अलावा, लगातार सत्ता में रहने के बाद लेफ्ट की थकान साफ दिख रही है। विजयन और उनके मंत्री विवादों का बचाव करने में ज्यादा ऊर्जा खर्च कर रहे हैं, बजाय नीतियां बनाने के। शासन की चुनौतियां, जैसे बढ़ती महंगाई, युवा बेरोजगारी और खाड़ी से घटते रेमिटेंस ने लेफ्ट की नैतिक सत्ता को कमजोर कर दिया है। केरल का राजनीतिक माहौल अभी भी जटिल है। साक्षरता, सिविल सोसाइटी एक्टिविज्म और राजनीतिक रूप से जागरूक मतदाता ध्रुवीकरण के खिलाफ लचीलापन देते हैं। राज्य के मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यक मिलकर ये सुनिश्चित करते हैं कि कोई विचारधारा सिर्फ बहुमतवादी अपील से हावी न हो सके। फिर भी, संघ परिवार का विस्तार और भाजपा की रणनीतिक पहुंच ने एक विश्वसनीय, वैचारिक रूप से सुसंगत विकल्प पैदा किया है जो लेफ्ट और कांग्रेस को कई मोर्चों पर चुनौती दे सकता है। आगामी विधानसभा चुनाव 1957 के बाद से सबसे महत्वपूर्ण होगा, जब ई. एम. एस. नंबूदिरीपाद ने दुनिया की पहली लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार का नेतृत्व किया था।
उभरते भविष्य को दो गतिशीलताएं रेखांकित करती हैं। पहली, युवा मतदाता जो वैचारिक ठहराव और राजनीतिक लड़ाई-झगड़ों से निराश हैं, वर्ग संघर्ष या ऐतिहासिक रूढ़िवाद से ज्यादा विकास और राष्ट्रीय नवीकरण के प्रति ग्रहणशील हैं। दूसरी, लेफ्ट की चयनात्मक अल्पसंख्यक तुष्टिकरण पर बढ़ती निर्भरता ने पारंपरिक हिंदू समर्थन आधारों को अलग-थलग कर दिया है जो भगवा एकीकरण के लिए संरचनात्मक खुलापन पैदा कर रही है। साथ में ये कारक केरल के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नक्शे की स्थायी पुनर्विन्यास का संकेत देते हैं। जैसे-जैसे 2026 का विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहा है, केरल एक ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है। नागरिक अब सिर्फ लेफ्ट और कांग्रेस के बीच चुनाव नहीं कर रहे। वे एक ऐसे राज्य के वैचारिक भविष्य का फैसला कर रहे हैं जो सामाजिक प्रगति के लिए जाना जाता रहा है। भगवान का अपना देश जो कभी कम्युनिज्म और उदारवाद का गढ़ था, अब धीरे-धीरे राष्ट्रवादी जागरण की ओर बढ़ रहा है। शासन अब तुष्टिकरण के बजाय सिद्धांत से गुटबाजी के बजाय पहचान से मापा जा रहा है। इस मार्क्स से मंदिर की ओर संक्रमण में सबसे बड़ी विडंबना ये है कि लेफ्ट जो धर्मनिरपेक्षता की रक्षा का दावा करता है वो खुद तुष्टिकरण का अभ्यासक बन गया है, अनजाने में एक वैकल्पिक राष्ट्रवादी पुनरुत्थान का रास्ता साफ कर रहा है जो उन मलयाली वर्गों के मूल्यों, संस्कृति और आकांक्षाओं से जुड़ता नजर आता है, जिन्हें वो कभी हाशिए पर धकेलने की कोशिश करता था।

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