Khatu Shyam Mela: कब शुरू होगा श्री खाटू श्याम बाबा का लक्खी मेला, क्या है महाभारत की पौराणिक कथा
खाटू श्याम बाबा का लक्खी मेला: महाभारत काल से जुड़ी कथा और महत्व
राजस्थान में सीकर जिले के एक छोटे से कस्बे खाटू में भगवान श्री श्याम बाबा का विशाल मंदिर है। सफेद संगमरमर से बना हुआ यह मंदिर हजारों वर्ष प्राचीन है। इस मंदिर और श्याम बाबा की कथा महाभारत काल से संबंधित है। इस मंदिर में दुनिया भर के लोग अपनी अरदास लेकर बाबा के दरबार में आते हैं। फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रत्येक वर्ष बाबा का भव्य लक्खी मेला लगता है। वैसे तो प्रत्येक मास में दो एकादशियां होती हैं। इस प्रकार से एक वर्ष में 24 एकादशियां हो जाती हैं। इन सभी एकादशियों को श्री श्याम बाबा के दर्शनों को विशेष महत्व प्राप्त है। लेकिन ऐसी मान्यता है कि फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को श्री श्याम बाबा ने अपने शीश का दान किया था। इसलिए इस तिथि को विशेष महत्व प्राप्त है।
हारे के सहारे हैं श्री श्याम बाबा
श्री श्याम बाबा के भक्त भारत के अलावा कुछ दूसरे देशों में भी फैले हुए हैं। इसलिए मेले के दिनों में लाखों लोग बाबा के दर्शनों का लाभ लेते हैं। श्री श्याम बाबा के भक्तों का समझना है कि बाबा श्याम हारे के सहारा हैं। इसका अर्थ है कि चारों तरफ से निराश लोगों को बाबा अपनी शरण में लेते हैं। मान्यता है कि अंतिम विकल्प के तौर पर श्री श्याम बाबा भक्तों के हर दुःख और कष्ट को हर लेते हैं। किस्मत के आगे रखा बड़े से बड़ा पत्थर भी बाबा हटा देते हैं। महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार बाबा ने अपनी माता को वचन दिया था कि वे हमेशा चारों तरफ से निराश हो चुके लोगों का साथ देंगे। यदि युद्ध में कोई पक्ष हार रहा है तो वे हारने वाले के पक्ष में युद्ध करेंगे। इसलिए बाबा का एक नाम हारे का सहारा भी है।
क्या है बर्बरीक की कथा
जो भक्त जन श्री श्याम बाबा के से पूर्व परिचित नहीं है उनकी जानकारी के लिए मैं बता देना चाहता हूं कि श्री श्याम बाबा का सीधा संबंध महाभारत और भगवान श्री कृष्ण से है। महाभारत के अनुसार पांडु पुत्र भीम और हिडिम्बा के पुत्र के रूप में घटोत्कच हुए। इन्हीं घटोत्कच के एक पुत्र थे जिनका नाम बर्बरीक था। बर्बरीक बहुत ही सिद्ध पुरुष थे। उन्होंने अपनी साधना से तीन ऐसे बाण प्राप्त किये थे जो कि अचूक थे। लेकिन बर्बरीक ने अपनी माता को यह वचन दे रखा था कि वह हमेशा हारने वाले के पक्ष में युद्ध करेंगे। इसलिए इनका एक नाम हारे का सहारा भी है। यह बात भगवान श्री कृष्ण को पता थी लेकिन श्री कृष्ण चाहते थे कि धर्म की स्थापना के लिए पांडवों की जीत अनिवार्य है। लेकिन बर्बरीक हारने वाले के पक्ष में युद्ध करता है तो कौरवों की जीत हो जाती है। क्योंकि बर्बरीक के तीन वाणों का कोई तोड़ पांडवों की सेना के पास नहीं है। हालांकि सब बातों की जानकारी होने के बावजूद भी भगवान श्री कृष्ण ने बर्बरीक की परीक्षा लेने की सोची।
बर्बरीक जब माता की आज्ञा लेकर कुरुक्षेत्र की तरफ रवाना हुए तो भगवान श्री कृष्ण ने ब्राह्मण का रूप धारण करके उनको रास्ते में ही रोक लिया। उन्होंने बर्बरीक से कहा कि वह अपने एक तीर से इस पेड़ के सारे पत्तों को निशाना बना कर अपनी क्षमता को सिद्ध करें। बर्बरीक ने ऐसा ही किया लेकिन श्री कृष्ण ने चुपके से एक पत्ते को अपने पैर के नीचे दबा लिया। बर्बरीक ने तीर चलाया और पलक झपकते ही तीर ने पेड़ के लाखों पत्तों के मध्य में छिद्र बना दिया। इसके बाद तीर श्री कृष्ण के पैर के चारों तरफ चक्कर लगाने लगा। बर्बरीक ने भगवान से अनुरोध किया कि वह अपने पैर को पत्ते से हटाएं। क्योंकि पेड़ का एक पत्ता उनके पैर के नीचे दबा हुआ है। जैसे ही भगवान ने अपना पैर उठाया वैसे ही तीर ने उस पत्ते के मध्य छिद्र बना दिया। यह नजारा देखकर भगवान श्री कृष्ण आश्चर्यचकित रह गए। बर्बरीक के बारे उन्होंने जैसा सुना और समझा था उसकी तुलना में बर्बरीक की शक्ति को अधिक पाया।
जब श्री कृष्ण ने मांगा शीश का दान
भगवान श्री कृष्ण को यह समझते देर नहीं लगी कि यदि उन्होंने कुछ नहीं किया तो पांडवों का अंत उनके ही एक वंशज के हाथों से होने वाला है। क्योंकि जब तक बर्बरीक युद्ध स्थल तक पहुंचते तब तक कौरवों की हार का अंतिम चरण चल रहा होता और उनकी हार को देखकर बर्बरीक कौरवों का साथ देते जिसके कारण पांडव जीती हुई बाजी हार सकते थे। श्री कृष्ण तो नीतिमान थे। साधारण स्थितियों में वे कहां हार मानने वाले थे। उन्होंने बर्बरीक से अनुरोध किया कि वह पांडवों के पक्ष में युद्ध करे, क्योंकि धर्म पांडवों के पक्ष में है। भगवान ने बहुत कोशिश की लेकिन बर्बरीक पांडवों के पक्ष में युद्ध करने के लिए तैयार नहीं हुए। अन्ततः श्री कृष्ण ने अपना और पांडवों का परिचय देकर अनुरोध किया कि वह अपने परिवार के पक्ष में युद्ध करें। लेकिन बर्बरीक ने कहा वह अपनी माता को वचन दे चुका है और वचन से पीछे हटने का तो प्रश्न ही नहीं है। बर्बरीक किसी भी स्थिति में अपने वचन को तोड़ने को राजी नहीं हुए तो भगवान ने उनसे कहा कि वह उनसे एक दान मांगना चाहते हैं। बर्बरीक के दान का वचन देने पर भगवान श्री कृष्ण ने बर्बरीक से उसका शीश अर्थात सर मांग लिया। वचन के धनी बर्बरीक ने बिना किसी विरोध और शंका के तुरंत भगवान को अपना शीश दान कर दिया। इसलिए खाटू नरेश का एक नाम शीश का दानी भी है।
शीश दान के उपरांत बर्बरीक ने भगवान से अनुरोध किया कि वह युद्ध को देखना चाहते हैं। श्री कृष्ण युद्ध क्षेत्र में एक पहाड़ी पर उनके शीश को स्थापित कर दिया और उनकी वचनबद्धता और वीरता से अभिभूत होकर उन्हें वरदान दिया कि कलयुग में बर्बरीक भगवान श्री कृष्ण के रूप में ही पूजे जाएंगे। यह कथा हमें महाभारत में मिलती है। ऐसी मान्यता है कि खाटू में जिस स्थान पर आज मंदिर बना हुआ है, वहीं पर बर्बरीक ने अपने शीश का दान दिया था।
कब है लक्खी मेला
वैसे तो पूरे वर्ष भर खाटू के मंदिर में भक्तों का तांता लगा रहता है। लेकिन प्रतिवर्ष फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में 15 दिनों के लिए विशेष उत्सव का माहौल होता है। माना जाता है कि इन 10 से 15 दिनों में लाखों की संख्या में भक्त अपने प्रिय बाबा के दर्शनों का लाभ लेते हैं। वर्ष 2025 में फाल्गुन शुक्ल पक्ष की प्रथमा तिथि से, अर्थात अंग्रेजी दिनांक 28 फरवरी 2025 से यह लक्खी मेला आरम्भ होगा। और फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी अर्थात् अंग्रेजी दिनांक 11 मार्च 2025 को विशेष पूजा और दर्शनों से समाप्त होगा। इस लक्खी मेले में करीब 20 लाख लोग बाबा के दर्शन करेंगे। सभी को जय श्री श्याम।