किताब अल-तौहीद - कैसे एक किताब उग्रवाद का आधार बन गई
किताब अल-तौहीद (एकेश्वरवाद की पुस्तक) वहाबी विचारधारा का एक मौलिक ग्रंथ है। इसे 18वीं शताब्दी में मुहम्मद इब्न अब्द अल-वहाब ने लिखा था। यह ग्रंथ तौहीद (इस्लामी एकेश्वरवाद) की कठोर एवं शाब्दिक व्याख्या पर जोर देता है। सलाफी हलकों में इसका आदर एक पुनरुत्थानवादी सिद्धांत के रूप में किया जाता है। इसकी वजह से ही इसका सीधा रिश्ता आईएसआईएस और अलकायदा जैसे हिंसक चरमपंथी समूहों के वैचारिक आधार से है। यह लेख इस बात की परख करता है कि आखिर किस तरह किताब अल-तौहीद को कट्टरपंथ, हिंसा और ऊपर वर्णित युवा मुस्लिम समूहों की भर्ती एवं उनके अनेक उप-समूहों को उचित ठहराने के लिए सहयोजित और हेरफेर किया गया है। मुहम्मद इब्न अब्द अल-वहाब का सिद्धांत व्यापक धार्मिक “नवीन चलनों” (बिदअ'ह) और शुद्ध इस्लामी एकेश्वरवाद से भटकाव के जवाब में उभरा। यह ओटोमन खिलाफत का युग था और सूफी संतों की पूजा तथा उनके मजारों या खानकाहों पर आज की तरह ही व्यापक रूप से सभाएं होती थीं। इसे इस्लाम के एक नरम एवं पारंपरिक रूप के तौर पर देखा गया।
अब्द अल-वहाब ने ऐसी प्रथाओं को समाप्त करने का आह्वान किया क्योंकि उनके अनुसार वे तौहीद (ईश्वर की एकात्मकता और उसके एकमात्र प्राधिकार की सर्वोच्चता) के सिद्धांत के उलट थीं। उनका सिद्धांत सूफियों के पास जाने को मनुष्य और ईश्वर के बीच मध्यस्थता की चाह के रूप में देखता था। उन्होंने इसे शिर्क (बहुदेववाद या ईश्वर के समान प्राधिकार को स्वीकार करना) कहा। उनके विचार में धार्मिक स्थलों पर जाना झूठे देवताओं की चौखट पर श्रद्धांजलि अर्पित करने या मूर्ति पूजा करने जैसा था। वहाब के विचारों को सबसे पहले अरब जनजातियों के बीच मान्यता मिली और जल्द ही उन्होंने एक जनजातीय सरदार मुहम्मद इब्न सऊद के साथ गठबंधन के जरिए राजनीतिक शक्ति हासिल कर ली, जिसके परिणामस्वरूप अंततः सऊदी राज्य का निर्माण हुआ। इसके बाद ही वहाबी विचारधारा का संस्थागत स्वरूप सामने आया। किताब अल-तौहीद में मुसलमानों को सच्चे एकेश्वरवादी और विधर्मी में विभाजित करने वाले अडिग द्वैतवाद ने उस तकफीरी विचारधाराओं के लिए उपजाऊ जमीन तैयार की, जो मुसलमान बंधुओं को बहिष्कृत करती हैं। तकफीरियों का मानना है कि एक बार जब मुसलमान मूल इस्लामी सिद्धांतों से भटक जाते हैं तो वे दुश्मन बन जाते हैं और इस तरह उनका विनाश हो जाता है।
किताब अल-तौहीद की सैद्धांतिक कठोरता इसकी एक बड़ी खामी है। शोध के अभाव में भी, यह एक ऐसा विमर्श पेश करता है जो एक लंबे फतवे या आदेश जैसा प्रतीत होता है। इसमें कई ऐसे अप्रमाणिक संदर्भ ग्रंथ और गलत व्याख्याएं हैं जो शुद्ध तौहीद से भटकाव को अविश्वास के बड़े कृत्य के रूप में वर्गीकृत करती हैं, जिसकी सजा अक्सर मौत होती है। दुनिया की नजर में यही द्विआधारी दृष्टिकोण आईएसआईएस द्वारा जाने इस्तेमाल किए वाले तकफीरी तर्क का आधार रहा है। सरल शब्दों में, तकफीर किसी अन्य मुसलमान को धर्म का त्याग करने वाला (इस्लाम की परिधि से बाहर) घोषित करने और फिर उसे मौत की सजा देने का कार्य है। यह खतरनाक सिद्धांत आईएसआईएस की विचारधारा का केन्द्र बिन्दु है और इसका इस्तेमाल पारंपरिक मुसलमानों, सूफियों, धर्मनिरपेक्ष मुसलमानों तथा आईएसआईएस का विरोध करने वाले किसी भी व्यक्ति की हत्या को सही ठहराने के लिए किया गया है, गैर-मुसलमानों की तो बात ही छोड़ दीजिए।
धर्मशास्त्र से हिंसा तक : आईएसआईएस द्वारा किताब अल-तौहीद का इस्तेमाल आईएसआईएस अपने प्रचार एवं प्रशिक्षण से जुड़े साहित्य में अक्सर अपनी हिंसा को वैध ठहराने के लिए किताब अल-तौहीद और अन्य वहाबी ग्रंथों का हवाला देता है। इस पुस्तक की व्याख्याएं भर्ती होने वाले लोगों के सामने इस बात के सबूत के रूप में पेश की जाती हैं कि धर्म का त्याग करने वालों और विधर्मियों की हत्या न केवल जायज़ है, बल्कि उम्माह की शुद्धि के लिए ज़रूरी भी है। आईएसआईएस द्वारा प्राचीन धार्मिक स्थलों का विनाश इस कट्टरपंथी वहाबी विचारों का नतीजा है कि ऐसे स्थान ‘मूर्ति पूजा’ के भौतिक प्रतीक हैं और इन्हें मिटा दिया जाना चाहिए। इस मूर्तिभंजन को इस किताब में उद्धृत उन्हीं आयतों और पाठ के जरिए तर्क संगत बनाया गया है। किताब अल-तौहीद का ख़तरा उसके अस्तित्व में नहीं, बल्कि उसके हथियारीकरण में निहित है। हाल के वर्षों में डिजिटल सलाफीवाद के उभार ने भारतीय मुस्लिम युवाओं के कुछ वर्गों को गहराई से प्रभावित किया है।
इन कंटेंट में किताब अल-तौहीद के सुलभ अनुवाद भी शामिल हैं। ये कंटेंट अक्सर इस्लाम की एक संकीर्ण और बहिष्कारवादी व्याख्या का समर्थन करते हैं, सूफी संतों की पूजा और दरगाहों की यात्रा जैसी पारंपरिक प्रथाओं को गैर-इस्लामी या यहां तक कि बहुदेववादी करार देते हैं। परिणामस्वरूप, बड़ी संख्या में युवा मुसलमान भारत की समृद्ध एवं विविधतापूर्ण इस्लामी विरासत से खुद को दूर कर रहे हैं। इसकी वजह से पहचान संबंधी भ्रम, बढ़ते सांप्रदायिक विभाजन और अन्य मुस्लिम संप्रदायों के प्रति असहिष्णुता में वृद्धि हो रही है। बाहर से वित्त पोषित होने वाले नेटवर्क और विनियमन से रहित डिजिटल कंटेंट द्वारा प्रेरित विचारधारा में यह बदलाव हमारे समाज के लिए एक बड़ी चुनौती पेश कर रहा है।
भारतीय मुस्लिम युवाओं पर कट्टरपंथी प्रभाव और भारतीय सूफी इस्लाम का इससे निपटने का तरीका हाल के वर्षों में भारतीय मुस्लिम युवाओं पर किताब अल-तौहीद का वैचारिक प्रभाव अनूदित साहित्य, ऑनलाइन प्रवचनों और विदेशी वित्त पोषित सलाफी संस्थाओं के जरिए तेज़ी से पड़ा है। भारतीय मुस्लिम युवाओं के एक वर्ग में, किताब अल-तौहीद ने देश की समृद्ध इस्लामी परंपराओं के प्रति बढ़ती अस्वीकृति को बढ़ावा दिया है। इसने उन्हें अपनी सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक जड़ों से दूर कर दिया है। इससे सांप्रदायिकता, पहचान संबंधी भ्रम और कुछ मामलों में ऑनलाइन कट्टरपंथी कंटेंट और अतिवादी नजरिए के प्रति संवेदनशीलता बढ़ी है। इस्लाम को एक कठोर सिद्धांत तक सीमित कर देने से नैतिकता, करुणा और सांप्रदायिक सदभाव पर जोर भी कम हो गया है - ये वे मूल्य हैं, जो भारतीय इस्लाम में गहराई से निहित हैं। इसके उलट, भारतीय सूफी इस्लाम आध्यात्मिक रूप से समृद्ध, बहुलवादी और शांति का मार्गप्रशस्त करता है। सदियों के सह-अस्तित्व में निहित, भारतीय सूफी परंपराएं ईश्वर के प्रति प्रेम, मानवता की सेवा और सभी धर्मों के प्रति आदर का प्रतीक हैं।
वहाबी साहित्य के कट्टरपंथी प्रभाव से निपटने हेतु, भारतीय सूफी संस्थाओं को युवाओं को जोड़ने की दिशा में और अधिक सक्रिय होना होगा। खानकाहों, आध्यात्मिक शिक्षा, डिजिटल संपर्क और सामुदायिक सेवा के जरिए वे युवा मुसलमानों को एक ऐसी संतुलित इस्लामी पहचान प्रदान कर सकते हैं जो भारत की धरती में निहित हो, इस्लामी नैतिकता के अनुरूप हो और वैचारिक अतिवाद का प्रतिरोधी हो। इस वैचारिक लड़ाई में, भारतीय सूफी इस्लाम महज एक सांस्कृतिक विरासत भर नहीं है बल्कि यह युवाओं में बढ़ते उग्रवाद के खिलाफ एक महत्वपूर्ण ढाल है।