इस बार भी चर्चा में रहे लाहौर-लिट फेस्टिवल
पड़ोसी देश में अक्सर दिल-तोड़ खबरों के बावजूद कभी-कभी साहित्य-संगीत की शीतल…
पड़ोसी देश में अक्सर दिल-तोड़ खबरों के बावजूद कभी-कभी साहित्य-संगीत की शीतल बयारें भी बहने लगती हैं। इसी माह वहां पाकिस्तान में दो साहित्यिक समारोहों का आयोजन हुआ। एक ‘फैज लिटरेरी फेस्टिवल’ और साथ ही ‘लाहौर-लिटरेचर फैस्टिवल’ भी।
‘फैज लिटरेचर फैस्टिवल’ में इस बार भारतीय अभिनेत्री एवं फिल्म-निर्देशक नंदिता दास की मौजदूगी विशेष रूप से चर्चा का विषय रही। वह भी कई बरसों बाद लाहौर गई थीं। वर्ष 2018 में उनके द्वारा निर्मित फिल्म ‘मंटो’ पूरे प्रतिबंधों के बावजूद पूरे पाकिस्तान में और विशेष रूप से लाहौर में खबरों में बनी थी। उसे सोशल मीडिया व ‘यू-ट्यूब’ के माध्यम से लाखों लोगों ने देखा। वैसे नंदिता से पहले वर्ष 2015 में पाकिस्तानी निदेशक बाबर जावेद ने भी ‘मंटो’ फिल्म बनाई थी। मगर इस बार नंदिता दास की िफल्म ही वहां चर्चा में रही। एक सुखद बात यह भी थी कि फैज की बेटियां व मंटो-परिवार के सदस्य भी इसमें शामिल हुए।
यहां यह भी बताना प्रासंगिक होगा कि फैज और मंटो दोनों ही पत्रकार भी रहे थे और दोनों ही भारतीय उपमहाद्वीप के सर्वाधिक चर्चित उर्दू-अदीब भी रहे। मंटो पर उसकी एक कहानी ‘ठंडा गोश्त’ के कारण लम्बा मुकदमा भी चला था। आरोप अश्लील लेखन का था। उस मुकदमे में एक गवाह के रूप में फैज भी शामिल हुए थे। इस मुकदमे में मंटो का बचाव प्रख्यात कानूनविद् और पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल के पिता एडवोकेट हीरा लाल सिब्बल ने किया था। ऐसा ही मुकदमा इसमत चुगताई पर भी चला था, उनकी कहानी ‘लिहाफ’ के लिए। भारत व पाक भले ही चैम्पियन-ट्राफी में एक साथ लाहौर में नजर नहीं आ पाए, मगर यह भी एक तथ्य है कि अतीत में किश्वर नाहिद, फातिमा भुट्टो, मोनी मोहसिन, ‘जयपुर लिटरेचर फैस्टिवल’ में भाग लेने भारत आते रहे हैं, जबकि जावेद अख्तर, गुलजार, रोमिला थापर, कराची व लाहौर आते जाते रहे हैं।
लाहौर का तीन दिवसीय ‘लिटरेरी फैस्टिवल’ इस बार प्रख्यात इतिहासविद् व साहित्य-समीक्षक आयशा जलाल के बीज-भाषण से आरंभ हुआ। इसमें 12 देशों के साहित्यकारों व इतिहासकारों ने भाग लिया। इस तीन दिवसीय समारोह का आयोजन लाहौर के प्रख्यात अलहमरा थियेटर में हुआ।
पंजाबी साहित्य को लेकर एक पूरा सत्र अलग से आयोजित किया गया। महिला साहित्यकारों पर एक अलग सत्र आयोजित हुआ। एक सत्र फिल्मों व साहित्य पर भी केंद्रित रहा। इस उत्सव में औरंगजेब को तो कतई याद नहीं किया गया, मगर उसकी बहन ‘जहांआरा बेगम’ पर एक पूरा सत्र आयोजित किया गया। रावी-नदी की संस्कृति पर भी अलग से एक सत्र चला, बिल्कुल उसी तरह जैसे हमारे देश में सरस्वती-सभ्यता और सप्तसिंधु सभ्यता पर बातें होती रहती हैं। हकीकत यह भी है कि लुप्त सरस्वती नदी की धाराएं अलग-अलग नामों से वर्तमान पाकिस्तानी क्षेत्रों से भी गुजरी हैं और रावी के इतिहास से वर्तमान भारतीय-भूखण्ड को काटा नहीं जा सकता। लोकप्रिय भारतीय गायक गुरदास मान अक्सर एक गीत गाता रहा है, ‘रावी तो झन्ना (चनाब) पुच्छदा, की हाल ए सतलुज दा’। मगर अब पंजाब के पांचों पानी अपनी पहचान खोने लगे हैं।
‘फैज लिटरेरी फैस्टिवल’ में फैज अहमद फैज की गजलों, नज्मों व नूरजहां व इकबाल बानो द्वारा अतीत में दी गई प्रस्तुतियां चर्चा में रहीं। फैज की बेटी मोनीजा हाशमी और सरमद खूसट के बीच ‘मंटो’ को लेकर संवाद भी आकर्षण का एक केंद्र रहा। ‘फैज-घर’ के बुक स्टाल पर तीनों दिन अच्छी खासी भीड़ जुटी रही।
हमारे यहां धीरे-धीरे ‘लिट फैस्ट’ गंभीर चर्चा से दूर होने लगे हैं। केंद्रीय साहित्य अकादमी का ‘साहित्य-पर्व’ कई अर्थों में सफल तो रहा लेकिन 750 के लगभग सभी भाषाओं के साहित्यकारों की मौजूदगी के बावजूद कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष उभर कर नहीं आ पाए।
यूनेस्को ने लाहौर के ‘फैस्टिवल’ को तो विशेष मान्यता दे दी लेकिन हमारे भारत में न तो चंडीगढ़, न दिल्ली, न कोलकाता, न लखनऊ ‘यूनेस्को’ द्वारा ‘सिटी आफ लिटरेचर’ का दर्जा प्राप्त नहीं कर सके।
हमारे यहां ‘शांति निकेतन’ व चंडीगढ़ के अलावा राखीगढ़ी, आदिबद्री, कसौली और पटियाला में ऐसी प्रबल संभावनाएं मौजूद हैं।
पाकिस्तान के इन दोनों ऐतिहासिक ‘लिटरेचर फैस्टिवल’ ने एक नया इतिहास रचा है, मगर इसकी त्रास्दी यह रही है कि कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण भारतीय साहित्यकारों की चर्चा कमोबेश हाशिए पर रही। जो भारतीय लेखक या इतिहासकार भाग ले पाए, उन्हें इरा मुखौटी, मनु पिल्लई, अमित चौधरी, रामचंद्र गुहा व नसीरूद्दीन शाह शामिल थे। नंदिता दास के अलावा किसी भारतीय फिल्म निर्देशक या लेखक या शायर की पूरी तरह से हािजरी नहीं लग पाई।
पिछले माह लाहौर में ही एक ‘विश्व पंजाबी सम्मेलन’ का आयोजन हुआ था और उसमें भारतीय पंजाब से कुछ लेखक/कवि शामिल भी हुए। मगर सबके सरोकार सिर्फ पंजाबी-भाषा तक सीमित रहे, पंजाबी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में अपनी अनूठी पहचान बनाने वाले पंजाबी मूल के लेखकों का कोई िजक्र भी नहीं हुआ। यदि थोड़ा व्यापक नजरिया रहता तो पिछले माह के विश्व पंजाबी सम्मेलन में स्वदेश दीपक, कृष्णा सोबती, अमृता प्रीतम, बलवंत गार्गी, डॉ. आत्मजीत, भीष्म साहनी आदि का जिक्र तो संभव था। कुछ वर्ष पहले वहां गए एक भारतीय शिष्टमंडल में डॉ. आत्मजीत थे, प्रो. सतेंद्र सिंह नूर थे, मैं स्वयं था, शास्त्रीय संगीतकार पंडित जसराज भी थे और पत्रकार बरजिंदर हमदर्द व विपिन पब्बी आदि भी थे। मगर आपसी संबंधों में कुछ ऐसा है, जिस पर खुल कर बात नहीं हो पा रही। वैसे आपसी रिश्तों में सियासी सन्नाटा भी समझ में कम आता है, मगर साहित्य, कला व संस्कृति और रंगमंच के क्षेत्र में सन्नाटा चुभता है। इसे धीरे-धीरे पत्रकारों व मुशायरों के माध्यम से तोड़ा जा सकता है।