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मॉब लिंचिंग के खिलाफ कानून

जाहिर है भीड़ द्वारा हत्या किया जाना आधुनिक युग में और लोकतान्त्रिक भारत में किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

03:58 AM Aug 30, 2019 IST | Ashwini Chopra

जाहिर है भीड़ द्वारा हत्या किया जाना आधुनिक युग में और लोकतान्त्रिक भारत में किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

प. बंगाल की ममता दी सरकार राज्य में भीड़ द्वारा हत्या किये जाने के खिलाफ सख्त कानून बना रही है। इस सम्बन्ध में तृणमूल कांग्रेस सरकार ने एक विधेयक तैयार कर लिया है जिसे आगामी शुक्रवार को राज्य विधानसभा में पेश किया जायेगा। जाहिर है भीड़ द्वारा हत्या किया जाना आधुनिक युग में और लोकतान्त्रिक भारत में किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके पीछे वह बीमार मानसिकता काम करती है जो मनुष्य को असभ्यता के आदिम युग में ले जाती है और समाज को आदमखोर बना डालती है। 
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‘सभ्यता और समाज’ मानवीयता के वह दर्पण होते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने का सलीका आता है और वह स्वयं के आदमी से इंसान होने का रुतबा पाता है। भीड़ जब हिंसक होकर किसी भी व्यक्ति (अपराधी या निरपराध) को अपनी ही अवधारणा के अनुसार दंड देती है तो वह समाज की हैसियत ‘जंगल’ में तब्दील कर देती है जिससे आदमी ‘जानवर’ की श्रेणी में आ जाता है और फिर वह उसी की वृत्ति का अनुसरण करता है। असभ्यता का यही सबसे बड़ा प्रमाण होता है जिसमें मानवीयता का अंशमात्र भी नहीं होता। अतः भीड़ द्वारा हत्या करना या ‘माब लिंचिंग’ आधुनिक युग का राक्षसी कृत्य कहा जायेगा और इसके पक्ष में कोई भी तर्क मान्य नहीं हो सकता। 
अतः ममता दी की सरकार जो विधेयक ला रही है उसकी पड़ताल की जानी आवश्यक है। इस विधेयक में प्रावधान किया गया है कि किसी भी कारण या अफवाह अथवा अवधारणा के चलते दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा किसी सन्देहास्पद व्यक्ति के खिलाफ हिंसा का प्रयोग करना कड़े दंड की दरकार करेगा और सन्देह में पकड़े गये व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर दोषी को आजीवन कारावास और एक लाख रुपये के जुर्माने की सजा भुगतनी होगी। साथ ही किसी भी वजह से प्रेरित होकर अफवाह फैलाने वाले और घृणास्पद माहौल बनाने में संलग्न व्यक्ति को भी कड़ी सजा मिलेगी और उसे भी बराबर का दोषी समझा जायेगा। 
पुलिस की यह जिम्मेदारी होगी कि वह घृणास्पद सन्देश भेजकर माहौल बनाने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई करे और उन्हें न्यायालय से सजा दिलवाये। यह घृणा किसी मान्यता, लिंग, जाति या समुदाय अथवा धार्मिक या राजनैतिक विश्वास या विचार के सहारा लेकर नहीं फैलाई जा सकती और ऐसा करने पर दोषी व्यक्तियों को दंड भुगतना होगा जो कि कानून के अनुसार एक वर्ष से लेकर दस वर्ष तक की कैद और पचास हजार रुपये के जुर्माने से लेकर एक लाख रुपये तक के जुर्माने व आजीवन कारावास का होगा। इसमें सन्देहास्पद व्यक्ति के जख्मी होने से लेकर गंभीर रूप से घायल होने तक की विभिन्न अवस्थाओं का सन्दर्भ है। 
संयोग से पश्चिम बंगाल ऐसा राज्य है जो सांस्कृतिक रूप से बहुत सम्पन्न होने के साथ ही अंधविश्वासों की गर्त में भी रहता है और काला जादू व मन्तर-जन्तर जैसी विद्याओं के लिए भी कुख्यात है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि इस राज्य के अपेक्षाकृत पिछड़े इलाकों में अन्धविश्वासी परंपराएं अशिक्षित लोगों में सर्वाधिक हैं और उत्तरी बंगाल में इनकी बहुतायत है। पिछले कुछ सालों में बच्चा चुराने के सन्देह में किसी पुरुष या स्त्री को पकड़ कर भीड़ द्वारा उसकी हत्या किये जाने की घटनाओं में वृद्धि हुई है। दुर्भाग्य से इसमें महिलाओं की संख्या अधिक रही है जो और भी ज्यादा दुःखद है। 
इसके साथ ही किसी स्त्री को डाकिनी या शाकिनी बताकर उसे भीड़ द्वारा दंड देना भी सुनने को मिलता रहता है जिसे देखकर यह विश्वास ही नहीं होता कि हम 21वीं सदी में रह रहे हैं परन्तु सबसे दुखद तो गोरक्षा के नाम पर की जाने वाली ‘माब लिंचिंग’ की घटनाएं हैं जिनमें ‘धर्म के नाम पर अधर्म’ का प्रदर्शन पूरी दिलेरी के साथ किया जाता है। ऐसी ही घटनाओं को देखते हुए पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को निर्देश दिया था कि वह माब लिंचिंग के खिलाफ संसद में नया कानून बनाये जिससे इस प्रकार की घटनाओं को रोका जा सके। 
जाहिर है मौजूदा दंड आचार संहिता के तहत ऐसे मामलों में कानून की लाचारी सामने आयी होगी तभी देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह राय जाहिर की थी। इसमें सबसे बड़ी दिक्कत यह आती है कि लिंचिंग की घटनाओं में अपराधी इस बात का फायदा उठाते हैं कि हत्या या हिंसा के लिए कोई एक विशेष व्यक्ति दोषी नहीं होता है। अतः ऐसी घटनाओं के लिए यह बहुत जरूरी है कि उस स्रोत की निशानदेही की जाये जहां से दुर्भावना या घृणा का सन्देश उपजता है। सोशल मीडिया के इस दौर में इस प्रकार के उपद्रवियों को पकड़ना अब कोई मुश्किल काम नहीं रहा है। ‘साइबर क्राइम’ को रोकने के लिए पुलिस भी प्रशिक्षित हो रही है परन्तु विचारणीय मुद्दा यह भी है कि अभी तक ‘माब लिंचिंग’ के खिलाफ संसद में कानून बनाने की बात गंभीरता के साथ क्यों नहीं उठी? इसमें संभवतः दो राय नहीं हो सकतीं कि इसके पीछे दलगत राजनीति है जो सत्ता और विपक्ष दोनों को ललचाती रहती है। 
हम ऐसे जघन्य कृत्यों को सामाजिक बुराई की श्रेणी में नहीं डाल सकते क्योंकि यह कोई रवायत या रूढ़ी नहीं है बल्कि हिंसा व हत्या के लिए समाज का प्रयोग करना है। चूंकि कानून-व्यवस्था राज्यों का विषय है इसलिए राज्य सरकारों का भी दायित्व बनता है कि वे अपने-अपने प्रदेशों में माब लिंचिंग रोकने के लिए सख्त से सख्त कानून बनायें। भारत का संविधान सरकार की यह जिम्मेदारी भी तय करता है कि वह लोगों में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दे और दकियानूसी परंपराओं से बाहर निकाले। 
इस सोच का सम्बन्ध सीधे विकास से जुड़ा हुआ है क्योंकि वह समाज कभी भी तरक्की नहीं कर सकता जो अन्धविश्वासों व दकियानूस सोच व रूढि़यों का गुलाम हो। सांस्कृतिक परंपराओं और रूढि़वादी रवायतों में मूलभूत अन्तर यह होता है कि संस्कृति समाज को जोड़ती है जबकि रूढि़वादिता या अन्धविश्वास उसे तोड़ता है। उत्तर प्रदेश सरकार भी इस दिशा में कदम उठा रही है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
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