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आओ मिल कर हल ढूंढें!

भारत इस कोरोना संकट काल के दौर में तीन गंभीर संकटों के त्रिकोण में फंस गया है जिससे उबरने के लिए राष्ट्रीय सहमति की तत्काल जरूरत है

12:09 AM Jun 15, 2020 IST | Aditya Chopra

भारत इस कोरोना संकट काल के दौर में तीन गंभीर संकटों के त्रिकोण में फंस गया है जिससे उबरने के लिए राष्ट्रीय सहमति की तत्काल जरूरत है

आओ मिल कर हल ढूंढें
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भारत इस कोरोना संकट काल के दौर में तीन गंभीर संकटों के त्रिकोण में फंस गया है जिससे उबरने के लिए राष्ट्रीय सहमति की तत्काल जरूरत है, इसके लिए समूचे विपक्ष व सत्तारूढ़ दल को एक मेज पर बैठ कर  सर्वसम्मति से देश हित में हल ढूंढना चाहिए। पहला मामला राष्ट्रीय सुरक्षा का है और दूसरा अर्थव्यवस्था का जबकि तीसरा तो कोराना वायरस का चल ही रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा और अर्थव्यवस्था के मुद्दे भी ऐसे हैं जो दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर उसी प्रकार देखे जायेंगे जिस प्रकार कोरोना का संकट, परन्तु चीन का विषय  सबसे अधिक गंभीर है क्योंकि चीन खुल्लमखुल्ला उस 1993 के भारत-चीन समझौते का उल्लंघन कर रहा है जो उसने तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार के हुकूमत में रहते किया था। यह समझौता सरहद पर शान्ति व सौहार्द बनाये रखने के लिए वास्तविक नियन्त्रण रेखा का सम्मान करने को लेकर था और कहता था कि जब तक दोनों देशों के बीच आपसी बातचीत से सीमाओं का निर्धारण नहीं हो जाता तब तक दोनों देश नियन्त्रण रेखा पर कम से कम जरूरी सेना रख कर एक-दूसरे की भौगोलिक अखंडता व संप्रभुता का सम्मान करेंगे।  इस समझौते के पांच सिद्धान्त वही थे जो ‘पंचशील’ में समाहित हैं- मित्रता, शान्ति व सह अस्तित्व, एक- दूसरे पर आक्रमण न करना व एक-दूसरे के अन्दरूनी मामलों में दखल न देना लेकिन चीन उलटा भारत पर इस समझौते के विरुद्ध जाने की दलील देकर अपनी दादागिरी गालिब करने में लगा हुआ है और लद्दाख के इलाके में खिंची नियंत्रण रेखा पर सैनिक गतिविधियां बढ़ा ही नहीं रहा बल्कि नियन्त्रण रेखा की स्थिति बदल देना चाहता है। जबकि इस समझौते में ही यह साफ है कि यदि दोनों देशों में से किसी देश की सेना भी नियन्त्रण रेखा के पार आती है तो आपसी बातचीत द्वारा इसे सुलझा कर वापस चली जायेगी, उल्टे चीन पिछले वर्ष अगस्त महीने से तर्क दे रहा है कि भारत ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को समाप्त करके और लद्दाख को पृथक केन्द्र शासित राज्य बना कर 1993 के समझौते का उल्लंघन किया है।
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बेशक समझौते में यथास्थिति का वर्णन है मगर जम्मू-कश्मीर भारत का आन्तरिक मामला है और अपने किसी राज्य की स्थिति बदलने का भारतीय संघ की सरकार को पूरा अधिकार है जबकि समझौता एक-दूसरे के अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप न करने की वकालत करता है। इस समझौते पर 7 सितम्बर, 1993 को भारत की ओर से तब रहे विदेश राज्यमन्त्री रघुनन्दन लाल भाटिया और चीन के विदेश उपमन्त्री तांग-शिवान ने हस्ताक्षर किये थे। चीन इस समझौते की आड़ में लद्दाख के पेंगांग-सो झील इलाके में भीतर तक घुस आया है और यहां भारतीय सैनिकों को गश्त करने ही नहीं दे रहा है। जहां तक गलवान नदी घाटी का सवाल है तो वह यहां आगे-पीछे हो रहा है, परन्तु उसकी मंशा साफ तौर पर नियन्त्रण रेखा को बदलने की है।
 1993 में कांग्रेस की सरकार थी और आज भाजपा की सरकार है मगर जहां तक राष्ट्र की गरिमा और भौगोलिक अखंडता व प्रभुसत्ता का सवाल है तो दोनों पार्टियों का धर्म एक है। अतः दोनों ही पार्टियों को अन्य विपक्षी दलों के साथ एक मेज पर बैठ कर सांझा राष्ट्रीय रणनीति तैयार करने में मदद करनी चाहिए। जहां तक नेपाल का सवाल है तो उसके साथ  स्थिति भिन्न है।  उसने तो ‘कालापानी-लिपुलेख-लिम्पायाधुरा इलाके की पूरी जमीन को ही अपने नक्शे में दिखा कर भारत को हैरान कर दिया है और अब यह मानचित्र वहां की जनलोकसभा में भी पारित हो चुका है जबकि उच्च सदन ‘राष्ट्रीय सभा’ में भी यह आसानी से पारित होकर वहां का कानून बन जायेगा मगर चीन और नेपाल के मामलों को एक साथ जोड़ कर रखना उचित नहीं होगा।
 नेपाल से भारत के विशिष्ट दोस्ताना सम्बन्ध हैं जिन्हें अतुलनीय (युनीक) कहा जा सकता है। चीन के साथ उसे जोड़ना अनावश्यक रूप से चीन का पलड़ा भारी करना होगा। अतः इस मुद्दे पर भी राष्ट्रीय सहमति की आवश्यकता है कि नेपाल के साथ रिश्तों की गर्मजोशी कैसे बदस्तूर जारी रहे और उसे अपनी गलती सुधारने का मौका किस रूप में दिया जाये।
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 दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा अर्थव्यवस्था का है। यह स्वीकार करना ही होगा कि भारत की अर्थव्यवस्था का पैमाना केवल शेयर बाजार का सूचकांक नहीं हो सकता बल्कि इसका अन्दाजा  शहरों के बाजारों और फैक्टरियों की हालत और आम जनता की गुरबत देख कर ही लगाया जा सकता है। जब उत्पादन से लेकर व्यापार-वाणिज्य और वित्त के मोर्चे तक ‘उठान’ की जगह ‘गिरान’ हो रहा है और मध्यम व लघु उत्पादन इकाइयां माल की मांग न होने की वजह से  बैंक ऋण लेने के स्थान पर अपनी फैक्टरियां ही बन्द करने या कर्मचारियों की छंटनी करके खर्चे कम करने की राह पर चल रही हैं तो भविष्य हमारे सामने भयानक चेहरा लेकर खड़ा हो रहा है जिसे हम अनदेखा नहीं कर सकते। जब बैंकों से कर्ज उठाने वाले ही गायब हो रहे हैं तो हम किस बूते पर औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि की कल्पना कर सकते हैं।  जब लाॅकडाऊन ने 12 करोड़ लोगों को बेरोजगार बना डाला है तो संगठित क्षेत्र से लेकर असंगठित क्षेत्र में कौन सी जादुई छड़ी निवेश को बढ़ावा दे सकती है।
जब देश की 80 प्रतिशत जनता लाॅकडाऊन की वजह से नकद रोकड़ा से खाली हो चुकी है तो किस बाजार से माल की मांग में वृद्धि में हो सकती है? इसका हल इसी देश के अर्थशास्त्री ढूंढ सकते हैं। ईश्वर की दया से भारत में एक से एक बड़ा अर्थशास्त्री पड़ा हुआ है। जरूरत उन सभी को एक मंच पर लाकर समन्वित रूप से विचार-विमर्श करके सर्वसम्मत हल ढूंढने की है। ये अर्थशास्त्री कांग्रेस या भाजपा अथवा अन्य किसी भी दल की विचारधारा से प्रभावित हो सकते हैं, किन्तु हैं तो भारतीय ही। एक हल तो पूर्व वित्तमन्त्री श्री पी. चिदम्बरम दे ही चुके हैं। सरकार के पूर्व वित्त सलाहकार भी अपनी समझ के हल दे रहे हैं, तो इन सब विचारों को एक मंच पर लाकर सर्वसम्मति क्यों ने बनाई जाये? एेसा करना इसलिए जरूरी लग रहा है कि यदि अर्थव्यवस्था यूं ही गोते खाती रही तो हम मन्दी के जाल में फंस जायेंगे
और एक बार इसमें फंसे तो दो-तीन साल के लिए गये।  2008 में मन्दी में फंसी अमेरिकी अर्थव्यवस्था  दो साल पहले ही उसके जाल से निकल पायी है। अतः संकट गंभीर है इसका हल राष्ट्रीय स्तर पर ढूंढा जाना चाहिए।
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