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बेटी की आवाज सुनो!

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12:10 AM Aug 07, 2017 IST | Desk Team

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राजनीति के कुएं में किस कदर भांग पड़ चुकी है कि जिस तरफ देखो उस तरफ ही सब एक-दूसरे से पूछ रहे हैं कि है कोई ऐसा जिसके सिर पर सत्ता का नशा सवार न हुआ हो! सभी एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं मुझसे ज्यादा तुम नशे में हो। क्या कयामत है कि हरियाणा के भाजपा अध्यक्ष सुभाष बराला का बेटा एक युवती का चंडीगढ़ जैसे सुरक्षित शहर की सड़कों पर सरेराह अपने साथियों के साथ जबरन बदसलूकी करने की नीयत से पीछा करता है और वह भी शराब के नशे में धुत्त होकर। क्या सितम है कि राज्य का भाजपा का मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खट्टर रात-दिन ‘बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ’ की अलख लगाकर हरियाणावासियों को जगाने की जुगत में लगा हुआ है मगर उसी की पार्टी के अध्यक्ष के घर में ऐसा सपूत विकास बराला मौजूद है जो बेटियों का शिकार करने में अपनी इज्जत अफजाई समझता है। यह इस दौर का ऐसा कड़वा सच है जिसने राजनीति को मुंह में राम बगल में छुरी का पर्याय बना डाला है और हिमाकत तो देखिये कि भाजपा का हरियाणा का एक नेता सीधे पुलिस स्टेशन में पहुंच कर अपराधियों की पैरवी तक करता है और उस कार को वहां से ले जाने की जुर्रत करता है जिसमें बैठकर विकास बराला और उसके साथियों ने युवती का पीछा किया था। वह युवती भी किसी अदना आदमी की बेटी नहीं थी बल्कि हरियाणा के एक आला आईएएस अफसर की पुत्री थी। जहां राजनैतिक ताकत का नशा इस कदर सिर पर चढ़कर बोलने लगे कि एक हुक्काम की बेटी तक की इज्जत महफूज न हो तो समझ लिया जाना चाहिए कि सियासत ‘स्याही’ में बदल रही है मगर हम लोकतन्त्र में रह रहे हैं और इसमें किसी पार्टी का राज नहीं बल्कि कानून का राज होता है।

पुलिस किसी राजनीतिक दल की गुलाम नहीं होती बल्कि वह कानून की गुलाम होती है इसलिए चंडीगढ़ पुलिस ने युवती की शिकायत पर जिस तरह तुरत-फुरत कार्रवाई करके खतावारों को दबोचा उसकी खुले दिल से तारीफ की जानी चाहिए। इसके साथ ही पुलिस को किसी भी तरीके के राजनीतिक दबाव में न आते हुए वही करना चाहिए जो कानून कहता है। सुभाष बराला एक राजनीतिक पार्टी के मुखिया भर हैं और कानून का दायरा वहां जाकर खत्म नहीं होता है बल्कि लोकतन्त्र में कानून का दायरा वहीं से शुरू होता है क्योंकि कानून का डर जब तक कानून का शासन होने का हलफ उठाने वाले लोगों में पैदा नहीं होगा तब तक आम आदमी तक भी उसकी पहुंच को आसान नहीं बनाया जा सकता है। यह सिर्फ हमारे संविधान की शोभा बढ़ाने के लिए नहीं लिखा गया है कि ‘कानून सभी को एक नजर से देखेगा’ बल्कि इसे अमल में लाने के लिए लिखा गया है। मौका-ए-वारदात की रिपोर्ट लिखने वाले पुलिस वाले की हैसियत कानून की नजर में अव्वल होती है और उसकी हैसियत को कोई चुनौती नहीं दे सकता। इसलिए पीडि़त युवती के बयान की नजर से जो भी फौजदारी दफाएं विकास बराला पर बनती हैं उन्हें सख्ती से लागू किया जाना चाहिए जिससे पूरे देश में यह सन्देश जा सके कि भाजपा केवल उपदेश देने वाली पार्टी ही नहीं है बल्कि वह अपने सिद्धान्त सबसे पहले खुद अपने ऊपर लागू करती है।

राजनीति को स्वच्छ और निष्पाप रखने के लिए अगर एक प्रदेश अध्यक्ष के बेटे को तो क्या अन्य ऊंचे औहदों पर बैठे हुए लोगों को भी सबक सिखाना पड़े तो पीछे नहीं हटा जाना चाहिए। यह कैसे संभव है कि हरियाणा के कांग्रेस नेता के पुत्र मनु शर्मा के मामले में आसमान सिर पर उठा लिया जाये और भाजपा के नेता के पुत्र के मामले में सारे दागों को गंगाजल डालकर धोने की कवायद की जाये! प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सुभाष बराला को खुद पुलिस को अपनी कार्रवाई बेखौफ होकर करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए, मगर हो उलटा रहा है। तहरीर लिखने से पहले जो पुलिस अफसर कह रहा था कि विकास बराला ने बिना जमानत की दफाओं वाला जुर्म किया है उसे तहरीर लिखने के बाद दफाएं हल्की करके जमानत पर रिहा कर दिया गया। इसके साथ ही पीडि़त युवती को पूरी तरह स्वतन्त्र रहकर अपनी बात कहने का माहौल खराब नहीं किया जाना चाहिए और उसके पिता आईएएस अफसर को भी किसी प्रकार के दबाव में लाने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। राजनीतिज्ञों के इस पैंतरे से इस देश के लोग भलीभांति परिचित हैं और मनु शर्मा का मामला वह अभी तक भूले नहीं हैं। सवाल न भाजपा का है न कांग्रेस का, राजनीति से उस गन्दगी को साफ करने का है जिसने लोकतन्त्र को ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ में परिवर्तित करने का चलन चला रखा है। बेटियों की सुरक्षा किसी भी तरह एक नारा नहीं हो सकती बल्कि यह इस मुल्क का ऐसा पैगाम है जिसे निर्भया कांड के बाद हमने अपने कानून की किताब का हिस्सा बनाया था। इस जघन्य कांड के बाद ही हमने बेटियों को महफूज रखने के लिए अपने फौजदारी कानून में नई दफाएं जोड़ी थीं, उनको अमली जामा पहनाने का यही सही वक्त है।

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