कश्मीर मोदी की महान सफलता
कोरोना वायरस के कहर के चलते लाॅकडाऊन ने जिस तरह भारत की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया है उसकी भरपाई करना मोदी सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी मगर इससे विचलित होने का भी कोई कारण नहीं है
12:26 AM May 31, 2020 IST | Aditya Chopra
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कोरोना वायरस के कहर के चलते लाॅकडाऊन ने जिस तरह भारत की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया है उसकी भरपाई करना मोदी सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी मगर इससे विचलित होने का भी कोई कारण नहीं है क्योंकि भारत पहले भी कई आर्थिक संकटों पर पार पाने में सफल रहा है। अतः प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी की दूसरी सरकार के एक साल पूरे होने का मूल्यांकन निरपेक्ष भाव से किया जाना चाहिए। बेशक मौजूदा आर्थिक संकट की पिछले संकटों से तुलना नहीं की जा सकती है क्योंकि यह मुसीबत ऐसी महामारी की आशंका ने पैदा की है जिससे ‘जान के लाले’ पड़ने का खतरा पैदा हो गया था, इसी वजह से भारत का आर्थिक तन्त्र समाज की भागीदारी न पाकर बैठ सा गया क्योंकि अर्थव्यवस्था सामाजिक भागीदारी से ही चलती है। पिछले एक साल में मोदी सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी उपलब्धि कश्मीर के मोर्चे पर हासिल की है। जम्मू-कश्मीर राज्य की जो विशेष स्थिति भारतीय संविधान में बाबा साहेब अम्बेडकर की मर्जी के खिलाफ रखी गई थी उसे समाप्त करके श्री मोदी ने यह सन्देश देने का प्रयत्न किया है कि एक देश के भीतर दो समानान्तर संवैधानिक संरचनाएं नहीं चल सकतीं और भारतीय संघ की संप्रभुता को उसके ही किसी एक राज्य में चुनौती नहीं दी जा सकती।
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यह सैद्धान्तिक प्रश्न था जिससे देश के किसी भी राजनीतिक दल के मतभेद नहीं होने चाहिएं, लेकिन मतभेद इस बात को लेकर हुए कि जम्मू-कश्मीर की विशेष हैसियत का प्रावधान करने वाले जिस अनुच्छेद 370 को इस राज्य में विधानसभा के मुल्तवी रहते राज्यपाल शासन के दौरान समाप्त किया गया वह कांग्रेस व कुछ अन्य दलों की राय में संविधान सम्मत नहीं था। इस बारे में सर्वोच्च न्यायालय में भी अपील दायर है जहां से फैसला आना है। इसके साथ ही इस राज्य को दो केन्द्र प्रशासित राज्यों में विभक्त कर दिया गया। जम्मू-कश्मीर से लद्दाख को अलग करने के पीछे मोदी सरकार की मंशा में कोई खोट नहीं था क्योंकि इस क्षेत्र की सीमाएं सीधे चीन (तिब्बत) से लगी हुई हैं। इसका नजारा आजकल भी हम देख रहे हैं कि किस प्रकार इसके पूर्वी इलाके में चीनी और भारतीय सैनिकों में हाथापाई हुई है।
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अतः इस क्षेत्र को जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा बनाये रखने का औचित्य 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद ही समाप्त हो गया था परन्तु अनुच्छेद 370 की वजह से यह नहीं हो सका था। इसके साथ अनुच्छेद 370 का उपयोग पाकिस्तान जिस तरह कश्मीर समस्या को बनाये रखने में करता था उससे अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की स्थिति ढीली पड़ती थी। गृहमन्त्री अमित शाह ने संसद में ही इस तथ्य का खुलासा करते हुए कहा था कि कश्मीर में आतंकवाद व अलगाववाद बढ़ाने के लिए पाकिस्तान ने 370 का उपयोग किस तरह किया? अतः जम्मू-कश्मीर से 370 का हटना भारतीय राष्ट्रीय एकता की एक मजबूत कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए। यह फैसला कई मायनों में नया इतिहास बनाने वाला है।
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सर्वप्रथम यह कश्मीर के केवल विलय की ही तसदीक नहीं करता है बल्कि कश्मीरियों की एकल राष्ट्रीयता की घोषणा भी करता है। दूसरे यह पाक अधिकृत कश्मीर के लोगों में नई आकांक्षा जगाने का प्रेरक बनता है। पाकिस्तान की गुलामी में रहने वाले कश्मीरी भारतीय कश्मीरियों की तरह ही खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं और अपनी कश्मीरी कड़ियों को जोड़ना चाहते हैं। इसकी वजह भारतीय कश्मीर का विकसित और लोकतान्त्रिक होना है। अतः इस फैसले से भारत की स्थिति अन्तर्राष्ट्रीय मोर्चे पर मजबूत हुई है और पाकिस्तान के हाथ से अलगाववाद को बढ़ावा देने का कार्ड छिन गया है। जहां तक आर्थिक स्थिति का सवाल है तो इसे सुधारने की चुनौती वाकई बहुत बड़ी है क्योंकि फिलहाल पूरे देश में औद्योगिक व वाणिज्यिक गतिविधियां ठप्प सी हैं। इनमें सुधार लाने के लिए भारत जैसे विशाल देश में आर्थिक व राजनीतिक स्तर पर मतैक्य की जरूरत है। भारतीय सोच का मूल ‘अनेकान्तवाद’ रहा है अर्थात सत्य या समस्या के हल को पाने के अनेक रास्ते। लोकतन्त्र इसी आधार पर मतैक्य कायम करके समस्या का हल ढूंढता है।
भारत में आर्थिक दिमागों की कमी नहीं है। अतः उनका सदुपयोग लोकहित में होना ही चाहिए। इसके साथ ही लोकतन्त्र ‘तेरा तुझ को अर्पण’ की नीति से चलता है। इसमें सरकार ‘लोगों की लोगों के लिए और लोगों के द्वारा’ होती है। प्रधानमन्त्री का सिद्धान्त भी यही है। उन्होंने राष्ट्र के नाम अपने पत्र में इसी सिद्धान्त की पुष्टि की है। आत्मनिर्भरता का आशय 130 करोड़ भारतीयों को आत्मनिर्भर बनाने से ही है। इस व्यवस्था में सरकारी खजाना जनता से वसूल कर भरा जाता है और फिर उसी पर न्यायपूर्वक खर्च कर दिया जाता है। अतः सरकार वीतरागी भाव से काम करती हैः
‘‘मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सो तेरा
तेरा तुझको सौंपते क्या लागे है मेरा।’’
अतः लाॅकडाऊन की विभीषिका के मद्देनजर हमें उन सभी उपायों पर विचार करना चाहिए जिनसे साधारण से साधारण भारतीय नागरिक आर्थिक रूप से सशक्त हो सके और वह अर्थव्यवस्था को सुचारू करने में अपना योगदान दे सके। समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि किसी देश की अर्थव्यवस्था का अन्दाजा उसके ‘शेयर बाजार’ को देख कर नहीं बल्कि मजदूर की ‘मजदूरी’ देख कर लग सकता है। यह दृष्टि खुली बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में और भी ज्यादा सटीक बैठती है। लाॅकडाऊन ने हमें इस तरफ और ज्यादा ध्यान देने को मजबूर कर दिया है। भारतीय मजदूर संघ के संस्थापकों में से एक स्व. दन्तोपन्त ढेंगड़ी ने भी कहा था कि किसी भी कम्पनी के शेयर का मूल्य उसके मजदूर या कामगार की माली हालत को देख कर तय किया जाना
चाहिए। भारत का यही अनेकान्तवाद हमें हर समस्या का हल ढूंढने का रास्ता सुझाता है।

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