लोकतन्त्र में 'लोक-गठबन्धन'
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लोकतन्त्र का महापर्व चुनाव किसी रंगमंच का ‘स्टेज’ नहीं होता कि इस पर खड़े होकर विभिन्न राजनैतिक दलों के नेता अपना-अपना रंग-बिरंगा किरदार निभाकर चलते बनें और आम जनता को भरमाने के लिए लच्छेदार लफ्फाजी की नक्काशी पेश करके अपने हुनरमन्द होने का सबूत दें। यह पर्व आम जनता के सर्वशक्तिमान होने का ऐसी सर्वोच्च अदालत होती है जिसमें सत्ता पर काबिज लोगों को अपनी कारगुजारियों का पूरा हिसाब-किताब देना पड़ता है। स्वतन्त्र भारत का इतिहास गवाह है कि जब भी हुकूमत पर काबिज किसी राजनैतिक पार्टी ने आम जनता को मूर्ख समझ कर उसे पीतल की चमक में ‘सोना’ दिखाने की हिमाकत की है तो इसी सर्वोच्च अदालत ने सूरत के पीछे हुई ‘सीरत’ को उजागर करके उसकी ही आंखें चौंधियां दी हैं। 1977 में यही हुआ था जब अभी तक की भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमन्त्री मानी जाने वाली स्व. इंदिरा गांधी को जनता ने उनकी पार्टी समेत उन्हें भी हरा दिया था।
यह भारत के लोगों की वह तासीर है जो गांधी बाबा ने अपने लम्बे स्वतन्त्रता आंदोलन के दौरान इसकी मिट्टी में रचा-बसा दी थी। इसके बाद जब 1980 में पुनः लोकसभा चुनाव हुए थे तो उन्हीं लोगों ने पुनः स्व. इंदिरा गांधी की ढोल-नगाड़ों के साथ ताजपोशी करके ऐलान कर दिया था कि कोई भी पार्टी उन्हें अपनी ‘जायदाद’ समझने की भूल नहीं कर सकती। 1980 में उन्हीं लोगों ने अपने समर्थन का हिसाब-किताब मांगा जिन्होंने 1977 में जनता पार्टी को भारी बहुमत दिया था। इसमें जरा भी गफलत में पड़ने की जरूरत नहीं है कि 1980 में जनता पार्टी चौतरफा बिखर गई थी। दरअसल भारत के लोगों का दोनों ही बार स्वयं किया गया जमीनी गठबन्धन था जिसने तत्कालीन सत्तारूढ़ दलों को शिकस्त देकर अपने सर्वशक्तिमान होने का परिचय दिया था। भारत की जनता राष्ट्रवाद और समाजवाद के मुद्दों में कभी नहीं उलझी क्योंकि उसे मालूम है कि भारतीय होने का अर्थ न तो किसी धर्म से बन्धा हुआ है और न किसी जाति या बिरादरी से बल्कि यह इस धरती को अपना देश मानने वाले इंसान से बन्धा हुआ है जिसे सबसे स्पष्ट और बेबाक तरीके से गुरु नानक देव जी ने प्रतिपादित किया था- ‘‘कोई बोले राम-राम, कोई खुदाया-कोई टेरे गुसैंया, कोई अल्लाया।’’ अतः भारत की विविधता में राष्ट्रवाद की इससे बड़ी परिभाषा कोई और नहीं हो सकती।
यह समझ लिया जाना जरूरी है कि भारत का राष्ट्रवाद नफरत पर नहीं बल्कि प्रेम पर टिका हुआ है और बदले की भावना का इससे किसी प्रकार का कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि मुगल सल्तनत की भारत में नींव डालने वाले बाबर को ‘पातशाही’ गुरुनानक देव जी ने ही बख्शी थी। इससे पहले भारत में ‘सुल्तान’ हुआ करते थे ‘बादशाह’ नहीं। यह पक्का इतिहास है लेकिन आज भारत जिस स्थिति में पहुंचा दिया गया है उसमें इसके पुराने समय को याद करना बहुत जरूरी है क्योंकि हम अपने भविष्य को नफरत के जुनून के आइने में देखने लगे हैं। जरा रुक कर सोचिये कि महात्मा गांधी की हत्या एक हिन्दू आतंकवादी नाथूराम गोडसे ने की थी मगर क्या इससे समूचे हिन्दू समुदाय को आतंकवादी माना जा सकता था? जबकि गांधी द्वारा ही भारत से भगाये गये अंग्रेज मजहब के नाम पर पाकिस्तान बनवा कर ऐसा बीज बोकर चले गये थे जिससे हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे को पुश्तैनी दुश्मन मानने लगें लेकिन गांधी ने प्राण छोड़ते समय ‘हे राम’ कहकर सन्देश दे दिया था कि नाथूराम का ‘राम’ से कोई लेना-देना नहीं है परन्तु वर्तमान में कुछ सिरफिरे लोग भारत की गैरत को ललकारने की जुर्रत करते दिखाई पड़ रहे हैं और वे कभी ग्वालियर में नाथूराम गोडसे का मन्दिर बनाते हैं तो कभी अलीगढ़ में महात्मा गांधी की हत्या करने के दृश्य का नाटक करते हैं।
इतना ही नहीं नई दिल्ली में संसद के समीप ही संविधान की प्रति जलाकर जश्न मनाया जाता है। इसका अर्थ यही है कि नफरत को अपना सिद्धान्त मानने वाले लोग भारत को घृणा की आग में झुलसा देना चाहते हैं। क्या ऐसे भारत की परिकल्पना 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता समर से लेकर 1947 की अन्तिम आजादी की लड़ाई के दीवानों ने की थी? इंकलाब जिन्दाबाद कहते हुए फांसी का फंदा चूमने वाले सरदार भगत सिंह ने कहा था कि क्रान्ति कभी भी बन्दूक से नहीं बल्कि विचारों से आयेगी। मौजूदा चुनावी माहौल में हमारा कर्त्तव्य है कि हम प्रत्येक राजनीतिक दल से यह सवाल खुलकर पूछें कि वे किस तरह का भारत बनाना चाहते हैं? ये चुनाव किसी म्युनिसिपलटी के चुनाव नहीं हैं बल्कि राष्ट्र की नीतियां निर्धारित करने के चुनाव हैं इसलिए सत्ता में रहने वाले हर मन्त्री से लेकर सांसद तक की तस्दीक होनी चाहिए कि उसने भारत के लोगों की मजबूती के लिए क्या काम किया है क्योंकि लोगों के मजबूत होने से ही यह देश मजबूत बनेगा। पता लगाना बहुत जरूरी है कि जिस मन्त्री को जो भी विभाग सौंपा गया था उसके मन्त्रालय मंे कितनी तरक्की हुई है और जनता को उससे कितना लाभ पहुंचा है। हवा में गांठें बांधते हुए सौ गज नाप कर एक गज फाड़ने का नाम लोकतन्त्र नहीं है बल्कि जुबान से निकाले हर शब्द की सच्चाई मापने का नाम लोकतन्त्र होता है।
लोकतन्त्र में चुनावी उत्सव इन सब बातों की तस्दीक तो करता है और कहता है कि मन्त्री मालिक नहीं बल्कि नौकर होता है और एेसा नौकर होता है जिससे कभी भी जवाब तलबी की जा सकती है। इन्हीं नौकरों की मजदूरी तय करने का नाम लोकतन्त्र होता है। जो मजदूर सही ढंग से मजदूरी नहीं करता है उसे घर बैठाने का काम लोकतन्त्र ही करता है और विपक्षी दलों को पूरा अधिकार देता है कि वे उसकी ‘नीति’ और ‘नीयत’ दोनों पर ही तीखे सवाल उठायें। यह तो वह देश है जिसमें 1962 का चीन से युद्ध हार जाने के बाद स्वयं पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपनी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने की हिमायत की थी।