लाऊड स्पीकरों का ‘धर्म-कर्म’
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धर्म क्या है? धर्मान्धता क्या है? इस भेद को समझने में हम अक्सर गफलत कर जाते हैं और नतीजे में धर्म के नाम पर एेसा वैर-भाव पाल लेते हैं जिससे इंसानियत लहूलुहान हो जाती है। इस अर्थ को कबीरदास सहित गुरुनानक देव जी और रहीम ने इस प्रकार खोला कि हर व्यक्ति धर्म के मर्म को समझने में सफल हो सके। रैदास ने उवाच किया कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ सभी महान सन्तों ने उन आडम्बर और प्रपंचों का विरोध किया जो धर्म के नाम पर आज भी किये जा रहे हैं मगर ये आडम्बर सामाजिक अनुष्ठानों में भी इस कदर बढ़ गये हैं कि विवाह के अवसर पर निकलने वाली बारातें किसी रणविजय के जश्न से कम नहीं रही हैं। इसमें सांस्कृतिक पक्ष जिस तरह दम तोड़ रहा है उससे आने वाली पीढि़यों के हाथों में केवल धन का भौंडा प्रदर्शन ही पहुंच सकता है।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने मन्दिर और मस्जिदों में लाऊड स्पीकरों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाने का जो फैसला किया है उसका स्वागत इस दृष्टि से किया जाना चाहिए कि इसका धर्म से किसी प्रकार का लेना-देना नहीं है। धार्मिक आयोजनों के नाम पर जिस प्रकार मनमाने ढंग से लाऊड स्पीकर लगाकर शोर मचाया जाता है उससे ऐसा माहौल बनता है जैसे विभिन्न धर्मों के बीच शोर मचाने की प्रतियोगिता हो रही हो। इसका प्रतीकात्मक अर्थ एक-दूसरे धर्म के बीच एेसी प्रतियोगिता का भी है जो विपरीत धर्मों काे मानने वाले लोगों पर अपना रुआब गालिब करती है। यह अंधविश्वास का एेसा प्रदर्शन है जिसमें ईश्वर की आराधना से ज्यादा समाज में अपना अस्तित्व दिखाना है। सरकारी आयोजनों में किसी भी धर्म के प्रतीकों का प्रदर्शन भी एेसी ही श्रेणी में आता है। भारत का संविधान साफ-साफ कहता है कि व्यक्तिगत रूप से कोई भी नागरिक अपने धर्म का अनुपालन करने के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र है मगर वह पूरे समाज को ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।
संविधान ने निजी धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की है न कि सामूहिक। संस्कृति और धर्म दो अलग-अलग चीजें हैं, हम इन्हें गड्डमड्ड नहीं कर सकते। मन्दिरों या मस्जिदों पर लाऊड स्पीकर लगाना किसी संस्कृति का हिस्सा नहीं है और धर्म में तो इसका कोई मतलब ही नहीं उठता मगर केवल आडम्बर और प्रपंचों के चलते हम ऐसा काम कर जाते हैं जिनका निषेध तक धर्म में होता है। विचारणीय मुद्दा यह है कि आडम्बर के रास्ते ही धर्म को राजनीति में दाखिल किया जाता है। बल्कि यहां तक हो जाता है कि ये धार्मिक स्थल ही राजनीति का अखाड़ा तक बन जाते हैं। इन्हीं आडम्बरों की मार्फत राजनीतिक दल लोगों को आपस में बांट कर अपना वोट बैंक तक बनाने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। भला कोई पूछे कि किसी मन्दिर या मस्जिद से किसी सरकार का क्या लेना-देना हो सकता है। मन्दिर या मस्जिद बनवाने का काम सरकारों का नहीं होता बल्कि उन लोगों का होता है जिनकी अपने धर्मों में आस्था है, मगर कुछ लोगों ने भ्रम फैला दिया कि आस्था अंधी होती है। इसी अन्धपन को दूर करने के लिए तो हमारे संविधान में लिखा गया कि सरकारें लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने की दिशा में काम करेंगी, लेकिन हमने उल्टी दिशा पकड़ ली और हम भेड़ों की तरह अन्धी खाई में उतरते रहे। उसी का नतीजा है कि हमने रंगों तक को हिन्दू-मुसलमान में बांट डाला। सवाल सिर्फ ध्वनि प्रदूषण का नहीं है, बल्कि उस प्रदूषित मानसिकता का है जो लाऊड स्पीकरों के हिन्दू और मुस्लिम धार्मिक उवाचों पर अपनी पीठ थपथपाने लगती है। पांच सौ साल पहले जब कबीरदास ने कहा-
कांकर–पाथर जोड़ कर मस्जिद लेई बनाय
जा चढ़ मुल्ला बांग दे ‘बैरा’ भया खुदाय!
तो उनका मतलब यही था कि धर्म को आडम्बर से दूर रखा जाये और खुदा या भगवान की आराधना का ढिंढोरा न पीटा जाए। इसी तरह उन्होंने हिन्दुओं को भी हिदायत दी कि वे प्रपंचों से दूर रहें। कबीर ने कहा-
पाहन पूजैं हरि मिलैं तो मैं पूजूं पहार
या से तो चाकी भली पीस खाये संसार
परन्तु सिर्फ डेढ़ सौ साल पहले गालिब ने धर्म का वह दकियानूस और आडम्बरों से लिपटा हुआ चेहरा बेनकाब कर दिया जो आपस में लोगों को एक-दूसरे से बेवजह भिड़ाता था। दरअसल धर्म लोगों को कभी नहीं भिड़ाता है, बल्कि उसका आडम्बर और प्रपंच भिड़ाता है।
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता?