मध्य प्रदेश के चुनावी मुद्दे
इसे बहुत सुखद माना जायेगा कि इस बार हिन्दी क्षेत्र के तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान में आम जनता खास कर गरीब-गुरबों व किसानों आदि के मुद्दों के साथ ही स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे विषय भी चुनावी विमर्श के केन्द्र में हैं। मध्य प्रदेश में खास कर इन मुद्दों को विपक्षी पार्टी कांग्रेस उठा रही है और सत्तारूढ़ भाजपा को इस पर जवाब देना पड़ रहा है। लोकतन्त्र में राजनीति का सच्चा अर्थ यही होता है कि चुनावों में जन सरोकारों से जुड़े विषय केन्द्रीय विमर्श में हों और सत्तारूढ़ व विपक्षी पार्टियों में इन पर जमकर बहस-मुबाहिसा होता रहे क्योंकि इन्हीं के रास्ते से समाज व देश का विकास सुनिश्चित होता है। लोकतन्त्र सरकारों की जिम्मेदारी इस प्रकार तय करता है कि हर पांच साल बाद सत्ता में रहने वाली सरकार अपने काम का ब्यौरा या रिपोर्ट कार्ड जनता की अदालत में पेश करे क्योंकि जनता ही लोकतन्त्र की असली मालिक होती है। मध्य प्रदेश में अगर ऊपरी तौर पर देखा जाये तो दो नेताओं कांग्रेस के श्री कमलनाथ व भाजपा के श्री िशवराज सिंह चौहान के नेतृत्व के बीच टकराहट हो रही है हालांकि श्री चौहान को उनकी पार्टी भाजपा ने उन्हें अगले मुख्यमन्त्री के तौर पर पेश नहीं किया है मगर कांग्रेस की ओर से पहले दिन से ही श्री कमलनाथ को अपना मुख्यमन्त्री घोषित कर दिया गया।
अगर कायदे से देखा जाये तो पिछले पांच सालों के दौरान श्री कमलनाथ भी मध्य प्रदेश के सवा साल तक मुख्यमन्त्री रहे थे अतः उनके पास भी अपनी अल्पकालीन सरकार के कामों का रिपोर्ट कार्ड होगा। जहां तक शिवराज सिंह चौहान का सवाल है तो वह 2005 से ही इस राज्य के मुख्यमन्त्री चले आ रहे हैं अतः उनकी जवाबदेही का रिपोर्ट कार्ड बहुत लम्बा होना स्वाभाविक है। आम जनता को अब फैसला यह करना है कि शिवराज सिंह का 18 साल का शासन अच्छा रहा अथवा कमलनाथ का सवा साल का। यह बहुत टेढ़ा प्रश्न है। अतः आम जनता कांग्रेस व भाजपा दोनों की ही मूल नीतियों व सिद्धान्तों की समीक्षा करने के लिए तैयार होगी। मध्य प्रदेश मूलतः कृषि मूलक राज्य है और यहां गेहूं जैसे अनाज से लेकर तिलहन व दलहन की भी खेती होती है। अतः किसानों की माली हालत यहां मुख्य चुनावी मुद्दा बनी हुई है। इसके साथ ही राज्य में बेरोजगार युवकों की भी विशाल फौज है जिससे यह सवाल भी चुनाव के केन्द्र में है। इसके साथ ही राज्य में गरीबी का स्तर क्या है, इस पर भी वाद-विवाद जारी है और शिक्षा के क्षेत्र में किस तरह राज्य में घपलेबाजी की दुकानें चल रही हैं यह भी मुद्दा बना हुआ है। भारत भर में मध्य प्रदेश का शिक्षा स्तर औसत दर्जे में भी नहीं आता है जो कि बहुत बड़ी चिन्ता का विषय है। इसकी वजह राज्य में हुए विभिन्न शिक्षा संस्थान घोटालों को कहा जा सकता है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी चिकित्सा ढांचा कितना जर्जर है इसकी व्यथा-कथा हम अक्सर विभिन्न टीवी न्यूज चैनलों पर देखते रहते हैं। इन सब मुद्दों से इतर मध्य प्रदेश को जनसंघ या भाजपा का गढ़ भी माना जाता है। इसकी वजह यह है कि यह राज्य भारतीय इतिहास के कई अध्यायों का साक्षी रहा है और हिन्दू संस्कृति का केन्द्र भी रहा है। महाकवि कालिदास की कर्मस्थली से लेकर यह राज्य राजा भोज की भी कर्मस्थली भी रहा है अतः इस राज्य के लोगों का धार्मिक व सांस्कृतिक लगाव भी बहुत है जिसकी प्रतिध्वनि हमें राजनीति में भी देखने को मिलती रही है। साथ ही यह राज्य नवाबों व राजे-रजवाड़ों का भी गढ़ रहा है जिसकी वजह इसका समाज आज भी अर्द्ध सामन्ती परंपराओं की गिरफ्त में दिखाई पड़ता है। इसी वजह से मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाएं भी इस राज्य में सुनने को मिल जाती हैं। इतनी विविधता व विषमताओं से भरे राज्य की राजनीति निश्चित रूप से सरल नहीं हो सकती। परन्तु यह 21वीं सदी चल रही है और बाजारमूलक अर्थव्यवस्था ने जिस तरह से पूरे देश में पूंजी की सत्ता को इज्जत बख्शी है उससे यह राज्य भी अछूता नहीं रह सकता। इसी के परिणाम स्वरूप राज्य की गरीबी को देखते हुए इसमें बेचैनी बढ़ रही है जिसका असर राजनीति में भी दिखाई पड़ रहा है।
यह बेवजह ही नहीं है कि शिक्षा व स्वास्थ्य और रोजगार जैसे मुद्दे चुनावी केन्द्र मे आ रहे हैं। इनका केन्द्र में आने का मतलब ही है कि मध्य प्रदेश यथा स्थिति से उबरना चाहता है। कांग्रेस व भाजपा दोनों ही प्रयास कर रहे हैं कि वे जनता को उज्वल भविष्य का सपना बेचकर सत्ता में आयें। एक तरफ 18 साल हैं और दूसरी तरफ सवा साल है, यह तुलना कई मायनों में उचित भी नहीं लगती है। परन्तु भारत में यह कहावत भी खूब प्रचिलित है कि कुछ चावल देख कर ही पूरी बोरी का अन्दाजा लग जाता है। मध्य प्रदेश में असली लड़ाई इसी अवधारणा पर हो रही है। जो लोग इन दोनों पार्टियों के अलावा किसी अन्य तीसरी पार्टी की कोई भूमिका देख रहे हैं वे मूर्खों की दुनिया में रह रहे हैं क्योंकि जब लड़ाई दो स्पष्ट विचारधाराओं के बीच होती है तो जनता अपना लक्ष्य कभी नहीं भूलती है। राज्य में बहुत बड़ा सवाल प्रशासनिक दक्षता का भी बना हुआ है। इस मामले में भी लोग कमलनाथ व शिवराज सिंह को जांच रहे हैं। मगर चुनावों के मूल में शिक्षा, स्वास्थ्य, गांव, गरीबी व बेरोजगारी जैसे मुद्दे ही हैं। जो राजनीति के स्वस्थ दिशा पकड़ने के संकेत भी कहे जा सकते हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com