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मणिपुर : मुख्यमंत्री का माफीनामा

प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर मणिपुर राज्य का लम्बा इतिहास रहा…

10:17 AM Jan 01, 2025 IST | Aditya Chopra

प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर मणिपुर राज्य का लम्बा इतिहास रहा…

प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर मणिपुर राज्य का लम्बा इतिहास रहा है। अंग्रेजाें के शासन में मणिपुर एक रियासत हुआ करती थी। 1947 में ​म​णिपुर के महाराजा को कार्यकारी प्रमुख बनाते हुए यहां एक लोकतांत्रिक सरकार का गठन किया गया था। 1949 में मणिपुर का भारत में विलय हो गया और 21 जनवरी 1972 को इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। यह राज्य कभी जंग तो कभी हिंसा का मैदान बना। देशवासियों ने मंगलवार की रात 2024 वर्ष को अलविदा कहा लेकिन बीता वर्ष मणिपुर के लिए काफी उथल-पुथल वाला रहा। राज्य में मैतेई समुदाय और पहाड़ी क्षेत्रों में कुकी जनजातीय समुदायों के बीच टकराव इतना गहराया ​जिससे व्यापक जनहनि, हिंसा, भीड़ के हमले और आम नागरिकों वाले क्षेत्रों में बमों और ड्रोन हमले हुए। हिंसा की आग में लगभग 200 लोग मारे गए और 50 हजार से अधिक लोग विस्थापित होकर अपने ही देश में शरणार्थी बन गए। मणिपुर में 3 मई 2023 से ही बहुसंख्यक मैतेई और कुकी के बीच आरक्षण और आर्थिक लाभ को लेकर जो हिंसा शुरू हुई वह अभी थमने का नाम नहीं ले रही। कभी अपनी सांस्कृतिक सद्भावना के ​लिए जाना जाने वाला राज्य अब गहराते विभाजन का सामना कर रहा है और लोग लगातार भय में जी रहे हैं। तनाव कम होने का कोई संकेत नहीं ​िदख रहा। शांति की तलाश अभी भी जारी है। मणिपुर ऐसा राज्य रहा जहां भीड़ में से चंद दरिंदे दो महिलाओं को निस्वस्त्र कर उनके साथ बर्बरतापूर्ण हरकत करते नजर आए तो पूरा देश आक्रोश में आ गया। जनमानस की प्रतिक्रिया लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुत महत्व रखती है। न तो राज्य सरकार ने हिंसा को रोकने के लिए कोई ठोस उपाय किए और न ही शांति स्थापित करने के कोई प्रयास किए गए। मुख्यमंत्री एन. बीरेन सरकार डेढ़ साल से ज्यादा समय से खेमों में बंटती राजनीतिक उलझन में फंसी रही।

इतने गंभीर और मानवता के अस्तित्व को ही नकारने से जुड़े मसले पर भी समाज के लोगों में जो बंटवारे की प्रवृति दिख रही है वो किसी भी नजरिए से देश के आम लोगों के लिए फायदेमंद नहीं है। मुद्दा चाहे कोई भी, खांचों या खेमों में बांटने या बंटने की प्रवृ​ित राजनीति से जुड़े लोगों, राजनीतिक दलों और नेताओं में तो शुरू से रहा है लेकिन जब समाज में आम लोग भी इस तरह के बंटवारे का हिस्सा बन जाते हैं तो इसमें नुक्सान सिर्फ और सिर्फ देश के नागरिकों का होता है।

मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सरकार संकट में सही ढंग से नहीं निपटने के चलते ​अपनी विश्वस्नीयता पहले ही खो चुकी है। एन. बीरेन सिंह ने नववर्ष की पूर्व संध्या पर राज्य में बीते साल हुई घटनाओं पर गहरा अफसोस जताते हुए जनता से माफी मांगी है। उन्होंने कहा कि यह पूरा साल बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा। हिंसक घटनाओं में कई लोगों ने अपने प्रियजनों को खो दिया और कई लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा जिसका उन्हें बहुत पछतावा है, इसलिए वह सभी से माफी मांगते हैं।

हिंसा में इतने मासूमों की मौत के बाद मुख्यमंत्री के माफी मांगने का कोई औचित्य नजर नहीं आ रहा। मुख्यमंत्री की माफी को लेकर विपक्ष कांग्रेस उन पर और केन्द्र सरकार पर हमलावर है। 19 महीनों में एन.बीरेन असंवेदनशील बने रहे और वर्ष के अंत में उन्होंने माफी मांगकर किस संवेदनशीलता का परिचय दिया है उससे यह बात स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री हिंसा को अपने हिसाब से नफा-नुक्सान से जोड़ रहे हैं। राज्य सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वो जनता को जवाब दें। इतना कुछ होने के बावजूद एन. बीरेन सरकार को हटाकर वहां राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया गया। केन्द्र भी खामोशी धारण किए रहा। अब सवाल यह है कि त्रासदी का अंत कैसे हो।

जैसा कि हाल की घटनाओं से पता चला है, यहां तक कि शुरू में हिंसा से बचे रहे जिरीबाम जैसे इलाके भी अब संघर्ष की चपेट में हैं। मणिपुर में हालत अब सिर्फ यह पहचानने की नहीं रह गई है कि हिंसा किसने भड़काई या इसे रोकने के लिए किन प्रशासनिक कदमों की जरूरत है। हिंसा इस हद तक बढ़ गई है कि जातीय विभाजन राज्य के सामाजिक ताने-बाने में जड़ जमा चुका है। हिंसा की हरेक हरकत की वजह से अब मैतेई और कुकी जो दोनों पक्षों की ओर से पूरे समुदाय के ख़िलाफ़ प्रतिशोध की मांग उठती है। जहां हथियारबंद राजकीय मशीनरी से इतर के तत्व (नॉन-स्टेट एक्टर), जिनमें से कुछ निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा खुले तौर पर या गुप्त रूप से समर्थित हैं, हालात पर कब्जा जमाते जान पड़ते हैं, वहीं नागरिक समाज समूह हाशिए पर है।

हमारे देश में ऐसा मान लिया गया है कि राजनीति का मतलब ही किसी न किसी तरह सत्ता हासिल करना है। हालांकि सही मायने में लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति की परिभाषा और दायरा उससे कहीं ज्यादा व्यापक है। जातीय हिंसा का समाधान संवाद से ही होता है। राज्य सरकार को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए मैतेई और कुकी समुदाय के साथ लगातार संवाद जारी रखना चाहिए। पिछले 3-4 महीनों से शांति की दिशा में प्रगति देखी गई है। समस्या का राजनीतिक समाधान निकालना चाहिए ताकि सभी के हित सुरक्षित रहे और विश्वास की बहाली हो।

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