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कश्मीर का ‘मार्तंड सूर्य मन्दिर’

जम्मू-कश्मीर के उस गौरवशाली इतिहास की बहुत कम भारतीयों को जानकारी दी गई है जिसके तहत यह प्रदेश पृथ्वी के स्वर्ग के रूप में प्रतिष्ठापित होकर समूचे भारत की अद्भुत और विस्मयकारी लोक मनोहारी शास्त्रीय संस्कृति का न केवल ध्वज वाहक था बल्कि ज्ञान-विज्ञान का महाकेन्द्र भी था और आज के पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित ‘शारदा विश्व विद्यालय’ के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व के ज्ञान पिपासू छात्रों को आकर्षित करता था।

12:54 AM May 09, 2022 IST | Aditya Chopra

जम्मू-कश्मीर के उस गौरवशाली इतिहास की बहुत कम भारतीयों को जानकारी दी गई है जिसके तहत यह प्रदेश पृथ्वी के स्वर्ग के रूप में प्रतिष्ठापित होकर समूचे भारत की अद्भुत और विस्मयकारी लोक मनोहारी शास्त्रीय संस्कृति का न केवल ध्वज वाहक था बल्कि ज्ञान-विज्ञान का महाकेन्द्र भी था और आज के पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित ‘शारदा विश्व विद्यालय’ के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व के ज्ञान पिपासू छात्रों को आकर्षित करता था।

कश्मीर का ‘मार्तंड सूर्य मन्दिर’
जम्मू-कश्मीर के उस गौरवशाली इतिहास की बहुत कम भारतीयों को जानकारी दी गई है जिसके तहत यह प्रदेश पृथ्वी के स्वर्ग के रूप में प्रतिष्ठापित होकर समूचे भारत की अद्भुत और विस्मयकारी लोक मनोहारी शास्त्रीय संस्कृति का न केवल ध्वज वाहक था बल्कि ज्ञान-विज्ञान का महाकेन्द्र भी था और आज के पाक अधिकृत कश्मीर में स्थित ‘शारदा विश्व विद्यालय’ के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व के ज्ञान पिपासू छात्रों को आकर्षित करता था। शारदा विश्वविद्यालय भारत की प्राचीनतम शिक्षा पीठ मानी जाती है जो कश्मीर की मनोरम स्थली में ही स्थित थी। इसी कश्मीर में ‘श्रांगीला’ जैसी वह विलक्षण घाटी थी जिसे दैवीय रहस्यों का खजाना कहा जाता था। बदकिस्मती से यह इलाका भी आजकल पाकिस्तान के कब्जे में हैं और इसे ‘हुंजा घाटी’ कहा जाता है जो चीन की सीमा के बहुत करीब है। इसी घाटी में आज भी ‘भारत-यूनानी’  (इंडो-ग्रीक) संस्कृति की विरासत संभाले वे लोग रहते हैं जिन्हें ‘कैलाश’ के नाम से जाना जाता है। इसकी संस्कृति देव मूर्ति पूजा के साथ कुछ यूनानी परंपराओं का पालन करने वाली है और माना जाता है कि ये लोग भारत में सिकन्दर के आक्रमण के समय से ही यहां बसे थे।
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भारत के 1947 में दो टुकड़े होने पर इनकी कुल संख्या 80 हजार से ऊपर थी जो आज घट कर केवल ढाई हजार से भी कम रह गई है। इसकी वजह कैलाश लोगों का बेदर्दी के साथ इस्लाम में धर्मान्तरण किया जाना है। कुषाण वंश के राजा कनिष्क के शासनकाल के दौरान हालांकि बौद्ध धर्म का बहुत विस्तार हुआ और पूरी श्रांगीला घाटी में बौद्ध धर्म की ‘महायान’ शाखा के विस्तार के साथ भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में डेढ़ सौ के लगभग प्रतिमाएं चट्टानों को काट कर ही तराशी गईं मगर बाद में मुस्लिम आक्रान्ताओं ने सभी को नष्ट कर डाला किन्तु कैलाश नाम से जाने जाने वाले लोगों को वे पूरी तरह धर्मान्तरित नहीं कर सके। दुर्भाग्य से यह काम पिछली सदी में पाकिस्तान के इस्लामी निजाम में बहुत क्रूरता के साथ हुआ विशेष कर कैलाश लोगों की स्त्रियों को अगवा कर उनका विवाह मुसलमान नागरिकों से करा कर। हालत यहां तक पहुंचा दी गई कि कैलाश कहे जाने वाले लोग अपने पुरुषों के नाम भी अब डर से मुस्लिम रखने लगे हैं परन्तु हाल ही में विगत शुक्रवार को जम्मू-कश्मीर के अनन्तनाग जिले में स्थित ‘मार्तंड सूर्य मन्दिर’ भग्नावशेषों की यात्रा एक सौ के लगभग तीर्थ यात्रियों ने की। इस मन्दिर का निर्माण आठवीं सदी में सम्राट ललितादित्य ने कराया था जिसकी राजधानी श्रीनगर के निकट ही अवन्तिपुर (अवन्तिका पुरी)  थी और उसका शासन कश्मीर से होते हुए ओडिशा तक पूरे भारत पर था।
इतिहासकारों की मानें तो कोनार्क के सूर्य मन्दिर की प्रतिकृति को कश्मीर की पर्वतीय घाटियों में उतारना बहुत ही दुष्कर कार्य था क्योंकि मार्तंड सूर्य मन्दिर के मुख्य स्तम्भ एक ही शिला को तराश कर बनाये गये थे और उन्हें ऊंचे पर्वतीय पठार तक ले जाना बहुत दुष्कर कार्य था परन्तु सम्राट ललितादित्य ने इसे संभव कर दिया था और इसके निर्माण में कई वर्ष खपाये थे। इस मन्दिर की बहुत विशेषताएं थीं, मसलन सूर्य की पहली किरण इसकी देवप्रतिमा पर पड़ते ही सर्वत्र प्रकृति का जय गान होने लगता था। मन्दिर से समूचे जम्मू-कश्मीर का नजारा बहुत सुखद होता था। ऊंचे पर्वत शिखर पर निर्मित यह मन्दिर दुनिया भर के दूसरे शासकों को भारत की भव्यता और सम्राट ललितादित्य के तेज-प्रताप से सीधा परिचय कराता था। अफगानिस्तान से लेकर उसके आस-पास के लगे केन्द्रीय एशियाई देश जैसे उज्बेकिस्तान, तुर्कमिनिस्तान, किर्गिस्तान आदि पूर्व सोवियत संघ देशों के साथ ही लगभग पूरे भारत पर उसका शासन चलता था और वह बौद्ध न होकर सनातन धर्म का पालक था परन्तु यह भी विचारणीय मुद्दा है कि ललितादित्य का शासन 724 से 760 ई. तक ही रहा और इस दौरान 711 ई. में सिन्ध में अरब से मोहम्मद बिन कासिम का आगमन हो चुका था। अतः इतिहासकारों का यह मत बहुत पुख्ता लगता है कि 711 के बाद से नौवीं शताब्दी तक भारत की ज्ञान पुस्तिकाओं का परिगमन जमकर अरब में  हुआ जिनमें हमारे ऋषि मुनियों द्वारा लिखित वेद-उपनिषद से लेकर अंतरिक्ष ज्ञान सम्बन्धी व गणित ज्ञान व चिकित्सा विज्ञान सम्बन्धी पुस्तिकाएं शामिल थीं जिनमें सूर्य सिद्धान्त भी था। इसी के आधार पर बाद में इस्लामी विद्वानों के पृथ्वी व आकाश सम्बन्धी परिकल्पनाओं में परिवर्तन आया जबकि कई सौ साल पहले ही सिकन्दर के भारत आने पर इस देश की चिकित्सा पद्धति यूनान पहुंच चुकी थी जो रोमन साम्राज्य के दौरान अरब व अन्य मुल्कों में फैली। सम्राट ललितादित्य के बनाये सूर्य मन्दिर का महत्व भारतीयों के लिए वर्तमान सन्दर्भों में इसलिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत की संस्कृति की जड़ें इसके मुगलकालीन इतिहास की लादी हुई मान्यताओं का मूलतः सिद्धान्ततः विरोध करती हैं और बताती हैं कि मुस्लिम आक्रान्ताओं का लक्ष्य केवल इस देश की सम्पत्ति को लूट कर शासन करना ही नहीं था बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी इस देश का चरित्र बदलना था जिसमें मानवीयता को सीमित करके मजहब के दायरे में बन्द कर दिया जाना था। हालांकि मार्तंड सूर्य मन्दिर की निगरानी भारत का पुरातत्व विभाग करता है और वह अपने संरक्षण में लिए गये किसी भी ऐतिहासिक स्थल पर पूजा-पाठ नहीं करने देता मगर आम भारतीय नागरिकों को वह ऐसे स्थलों को देखने से मना भी नहीं करता है। इसमें तो कोई दो राय नहीं हो सकती कि कश्मीर का मार्तंड सूर्य मन्दिर एक हिन्दू देवालय ही है अतः इसके संरक्षण के साथ इसके जीर्णोद्धार का कार्य भी किया जाना कोई साम्प्रदायिक मांग नहीं मानी जायेगी। इसका विनाश भी तो 14वीं सदी में एक मुस्लिम आक्रान्ता शासक सिकन्दर शाह मीरी ने किया था।
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