एक देश-एक चुनाव का गणित
भारत केवल विविधताओं से भरा देश ही नहीं बल्कि यह राजनैतिक विविधताओं से भरा देश भी है।
भारत केवल सामजिक,आर्थिक,धार्मिक व भौगोलिक विविधताओं से भरा देश ही नहीं बल्कि यह राजनैतिक विविधताओं से भरा देश भी है। इसका प्रमाण यह है कि स्वतन्त्रता के बाद से इसके उत्तर-दक्षिण के राज्यों के साथ पूर्वोत्तर राज्यों की राजनीति अलग-अलग रही। 1956 में भारत के राज्यों के पुनर्गठन के बाद जहां लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस का राज था वहीं 1957 के चुनावों के बाद दक्षिण के केरल राज्य में स्व. ईएमएस नम्बूदिरिपाद की कम्युनिस्ट सरकार गठित हुई थी और तमिलनाडु में स्व. सी. अन्नादुरै ने पेरियार की द्रविड़ कषगम पार्टी से अलग होकर अपनी अलग द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम पार्टी का गठन किया था और चुनावों में भाग लेने की घोषणा की थी। इसकी वजह यह थी कि 1956 में प्रथम प्रधानमन्त्री श्री जवाहर लाल नेहरू ने संविधान में संशोधन करके यह व्यवस्था की थी कि ऐसी कोई भी पार्टी चुनावों में हिस्सा नहीं ले सकती है जो भारतीय संघ से अलग होकर क्षेत्रीय स्वतन्त्रता की कसम उठाती हो।
अन्नादुरै के गुरु पेरियार की ‘द्रविड़ कषगम’ पार्टी पृथक द्रविड़ राष्ट्र की मांग स्वतन्त्रता के पहले से ही करती आ रही थी। जाहिर है कि आजादी के बाद ऐसी पृथकता की मांग करना पूरी तरह फिजूल हो चुका था क्योंकि 1947 में अंग्रेजों के चले जाने के बाद देश के पहले गृहमन्त्री व उप प्रधानमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारतीय संघ के एकात्म स्वरूप को हकीकत में बदल दिया था। 1950 में उनकी मृत्यु के बाद बाकी बचा-खुचा काम पं. नेहरू ने पूरा कर दिया था। 1956 में 15 राज्य बने व सात केन्द्र प्रशासित क्षेत्र घोषित हुए। अतः 1957 के चुनावों में जहां केरल में कम्युनिस्ट सरकार बनी वहीं ओडिशा में ‘उत्कल गणतन्त्र परिषद’ ने अच्छा प्रदर्शन किया। मगर 1962 में गणतन्त्र परिषद का चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की स्वतन्त्र पार्टी में विलय हो गया और 1967 में वह समय आया जब स्वतन्त्र पार्टी के नेता श्री आर.एन. सिंहदेव कुछ अन्य दलों के सहयोग से मुख्यमन्त्री बने।
अतः लोकतान्त्रिक राजनैतिक विविधता भी भारत का अन्तर्निष्ठ गुण है। भारतीय संविधान ने भारत की विविधता को ध्यान में रखते हुए ही इसे धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान किया। संविधान में राज्यों के संघ (यूनियन आफ इंडिया) भारत के राज्यों को कुछ विशिष्ट अधिकार दिये गये और केन्द्र की सरकार को अलग से अधिकार इस प्रकार दिये गये कि पूरा भारत एकनिष्ठ स्वरूप में खड़ा दिखाई दे। राज्यों व केन्द्र के अधिकारों के अलावा संविधान ने कुछ अधिकार साझा तौर पर भी दिये जिसे समवर्ती सूची कहा जाता है। यह व्यवस्था हर हालत में देश की एकता व अखंडता को अक्षुण्य रखने के लिए की गई। इस राजनैतिक विविधता के फलस्वरूप ही संविधान में त्रिस्तरीय शासन प्रणाली (केन्द्र, राज्य व स्थानीय निकाय) को इस प्रकार स्थापित किया गया है कि राजनीति के स्तर पर यदि केन्द्र व राज्यों में अलग-अलग राजनैतिक दलों की सरकार बनती है तो भी देश की एकता व अखंडता पर कोई भी प्रभाव न हो।
क्योंकि प्रत्येक राज्य की चुनी हुई सरकार केवल संविधान के अनुसार ही चलेगी। जाहिर है कि हर पांच साल बाद राष्ट्र व राज्यों में चुनाव होने के बाद ही सरकारें बदलेंगी और देश के मतदाता दोनों ही स्तर पर अपनी-अपनी राजनैतिक वरीयताएं बताएंगे क्योंकि बिना किसी भेदभाव के भारत के लोगों को मिला एक वोट का अधिकार ही सरकारें गठित करेगा। संविधान में भारत के संघीय ढांचे का जो नक्शा है वह केन्द्र के चुनावों के साथ राज्यों के चुनावों को जोड़कर नहीं देखता है। मतदाताओं को राज्य व केन्द्र के स्तर पर अपनी सरकारें गठित करने का अधिकार इस तरह मिला हुआ है कि दोनों के होने वाले चुनावों में मतदाताओं में किसी प्रकार का भ्रम न हो। राज्यों व केन्द्र के चुनाव एक साथ कराने जैसी कोई शर्त संविधान में नहीं है। पिछले 74 सालों से हम संविधान के इसी प्रावधान के तहत चुनाव करा रहे हैं।
मगर अब इनके एक साथ कराने को लेकर देश में बहस छिड़ी हुई है। सरकार संसद में ‘एक देश-एक चुनाव’ के लिए संविधान संशोधन विधेयक भी लेकर आयी है जिसे संसद की संयुक्त समिति को विचार करने के लिए भेजा जा चुका है। इस समिति ने अपना कार्य शुरू कर दिया। जाहिर है कि समिति अपनी रिपोर्ट पेश करने से पहले इस क्षेत्र के विशेषज्ञों से भी सलाह-मशविरा करेगी। बीते हुए कल को इस समिति के सामने भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश श्री यू.यू. ललित आमन्त्रित थे। बताया जाता है कि उन्होंने एक देश-एक चुनाव के बारे में कहा कि इससे संवैधानिक संकट खड़ा हो सकता है। राज्यों की विधानसभाओं के कार्यकाल पर असर पड़ सकता है। श्री ललित का यह कहना उचित लगता है क्योंकि संसदीय लोकतन्त्र में यह गारंटी नहीं दी जा सकती कि कोई भी सरकार पूरे पांच साल ही चलेगी। संसद से लेकर विधानसभाओं तक में राजनैतिक समीकरण बदल जाने पर टिकाऊ समझी जाने वाली सरकारें भी कभी-कभी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाती है। भारत का ताजा इतिहास इसका गवाह है।
लोकतन्त्र में बीच में ही अगर कोई सरकार गिर जाती है और उसके स्थान पर कोई वैकल्पिक सरकार गठित नहीं हो पाती है तो गणतन्त्र में सिवाय जनता के पास जाने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता है। जब हम स्वीकार करते हैं कि लोकतन्त्र का राजा मतदाता होता है और चुनी गई कोई भी सरकार उसकी मालिक नहीं बल्कि नौकर होती है तो राजनैतिक दलों को अपने मालिक के पास जाने से भय कैसा? भारत के मतदाताओं को यह अधिकार महात्मा गांधी और बाबा साहेब अम्बेडकर देकर गये हैं। यह ऐसा अधिकार भारत के नागरिकों को मिला हुआ जिसकी गूंज दुनिया भर में होती रहती है।
यह बेवजह नहीं है कि भारत अपने पारदर्शी व जवाबदेह लोकतन्त्र के लिए पूरी दुनिया में एक ताकत के रूप में देखा जाता है जिसे अंग्रेजी में ‘साफ्ट पॉवर’ कहते हैं। केन्द्र सरकार ने ‘एक देश-एक चुनाव’ के लिए पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति भी गठित की थी जिसने अपनी रिपोर्ट दो महीने बाद राष्ट्रपति को सौंप दी थी। इस रिपोर्ट में एक देश-एक चुनाव के पक्ष में राय व्यक्त की गयी है। इसके बाद ही सरकार संसद में विधेयक लेकर आयी परन्तु पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री ललित ने संसद की संयुक्त समिति के सामने अपना विरोधी विचार रखा है। जाहिर है कि श्री ललित ने सभी संवैधानिक प्रावधानों की रोशनी में ही यह विचार व्यक्त किया होगा। अतः इस मामले में जोश में कदम न उठाते हुए संवैधानिक बारीकियों को समझते हुए होश से काम लेना होगा।