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चुनावों से पहले 'चुनाव' का अर्थ

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09:22 PM Aug 18, 2017 IST | Desk Team

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देश पुन: कुछ महीने बाद ही चुनावी मुद्रा में आने वाला है। इसकी शुरुआत गुजरात राज्य विधानसभा चुनावों के रास्ते राजस्थान में चुनावों से होगी। इन परिस्थितियों को देखते हुए सत्ताधारी भाजपा और विपक्षी दलों ने कमर कसनी शुरू कर दी है मगर इस पड़ाव तक पहुंचने में कई ऐसे ठिकाने भी हैं जिनमें दोनों ही पक्षों को अपनी-अपनी ताकत का अंदाजा करने में मदद मिलेगी। ऐसा ही एक ठिकाना प. बंगाल और मध्य प्रदेश के नगर निकाय चुनाव भी थे। इनका चुनाव हाल ही में सम्पन्न हुआ है। प. बंगाल में ममता दी की तृणमूल कांग्रेस ने सभी सात निकायों के चुनावों में बाजी मारी। यहां भाजपा विपक्ष की भूमिका में है।

दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में कांग्रेस व भाजपा के बीच जमकर लड़ाई हुई। कुल 43 निकायों में से 24 पर भाजपा विजयी रही और 19 पर कांग्रेस का डंका बजा। यहां भाजपा सत्तारूढ़ है, जबकि कांग्रेस विपक्ष में है। प. बंगाल में भाजपा विपक्ष में है, जबकि तृणमूल सत्ता में है। ये चुनाव बेशक स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं मगर दलगत आधार पर प्रत्याशियों का चयन होता है जिससे आम जनता के रुख का पता चल जाता है। मध्यप्रदेश इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहां विपक्षी पार्टी कांग्रेस मुख्य मुकाबले में मानी जाती है। पूरे देश में इस पार्टी की ताकत जिस तरह कम हुई है उसे देखते हुए राज्य में इसके प्रदर्शन को बुरा नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद इसका प्रदर्शन इतना शानदार नहीं रहा कि उससे सत्ता विरोधी भावनाओं की एकजुटता प्रकट हो सकी है। क्योंकि इस राज्य में भाजपा पिछले तीन बार से विधानसभा चुनाव जीत रही है, फिर भी इसकी विजय टुकड़ों में रही है। एक ओर मध्य प्रदेश के ग्वालियर इलाके के इसके नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया की शक्ति का अंदाजा लगाया जा सकता है तो दूसरी ओर छिंदवाड़ा के इलाके में इस पार्टी के दिग्गज श्री कमलनाथ की ताकत का पता चलता है।

ग्वालियर संभाग के निकाय चुनावों में भाजपा जहां पूरी तरह भारी रही, वहीं छिंदवाड़ा में कांग्रेस ने कई ऐसे निकायों को भाजपा के जबड़े से बाहर खींच लिया जो इसके गढ़ माने जाते थे, लेकिन प. बंगाल में नजारा एकतरफा रहा जो ममता दी की ताकत का अंदाजा दिलाता है। हालांकि भाजपा इन चुनावों में लगभग दूसरे स्थान पर रही मगर मतों का अंतर बहुत ज्यादा रहा लेकिन कांग्रेस व माक्र्सवादी गठबंधन के प्रत्याशियों से यह आगे रही। इसका मतलब यह हुआ कि राज्य के लोगों को यह गठबंधन भा नहीं रहा है और वे भाजपा की तरफ झुक रहे हैं। भाजपा इसे अपने बढ़ते प्रभाव के रूप में देख रही है मगर यह इस हद तक नहीं है कि वह ममता दी को परास्त कर सके। महत्वपूर्ण यह है कि इस राज्य में भाजपा दूसरे स्थान पर स्वीकार्य हो रही है और वामपंथियों को परे धकेल रही है। इससे इस राज्य की राजनीति में आने वाले परिवर्तन की संभावना को दरकिनार नहीं किया जा सकता। एक जमाने में वामपंथियों का गढ़ रहे इस राज्य में यह परिवर्तन वैचारिक बदलाव की तरफ भी इशारा कर रहा है।

इन चुनावों का विश्लेषण हमें इस निष्कर्ष तक तो पहुंचा सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस व अन्य विपक्षी दल जिस प्रकार का गठबंधन बनाकर भाजपा का मुकाबला करना चाहते हैं उसमें तब तक धार नहीं आ सकती जब तक कि इस गठबंधन को किसी बड़े राजनीतिक वट वृक्ष का साया न मिले। प. बंगाल में यदि कांग्रेस-माक्र्सवादियों का गठबंधन असफल हो रहा है तो इसकी असली वजह यह है कि इस राज्य में दोनों ही दल एक-दूसरे के कट्टर विरोध में रहे हैं और इन दोनों का एक मंच पर आना जनता को सहज नहीं लग रहा है, जहां तक मध्य प्रदेश का सवाल है वहां कांग्रेस पार्टी निश्चित रूप से एक ताकत है मगर वहां वह एक स्वीकार्य नेतृत्व के न होने से अपने विरोधाभासों से भी लड़ रही है। इस राज्य में किसी एक नेता के हाथ में पूरी पार्टी की कमान न होने से इसकी ताकत संतरे के छिलके में बंद विभिन्न फांकों की मानिन्द होकर रह गई है। इसका लाभ भाजपा को निश्चित रूप से मिलेगा। इससे इस पार्टी के केंद्रीय स्तर पर नेतृत्व की शिथिलता का भी पता चलता है। दूसरी तरफ भाजपा एक मजबूत गोबन्द ताकत की तरह हर मोर्चे पर खड़ी हुई है जिससे इसके जमीनी कार्यकर्ताओं को किसी प्रकार का दिशा भ्रम नहीं होता।

राजनीति में संगठन क्षमता के मायने यही होते हैं कि प्रत्येक कार्यकर्ता को उसका शीर्ष नेतृत्व जमीन पर संघर्ष करते हुए अदृश्य रहने पर भी अपनी ताकत से मालामाल करता हुआ लगे। यह ताकत उन विचारों की होती है जिस पर कोई राजनीतिक दल खड़ा होता है। जब इन विचारों के टकराव से कोई गठबंधन बनता है तो उसका हश्र प. बंगाल की तरह ही होता है। तर्क दिया जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी का गठबंधन भी इसी प्रकार का है मगर यह सत्ता में आने के बाद का गठबंधन है, सत्ता में आने के लिए नहीं। सत्ता प्राप्त करने और सत्ता करने की राजनीति पूरी तरह अलग होती है। पीडीपी और भाजपा ने अलग-अलग ही चुनाव लड़ा था। गठबंधन की सत्ता पाने की राजनीति क्या होती है इसका विश्लेषण फिर कभी उचित समय पर करूंगा।

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