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मोदी ने ट्रंप से बनाई दूरी–अभी नहीं होगा आमना-सामना

05:30 AM Oct 29, 2025 IST | Prabhu Chawla

कुआलालंपुर के चमकदार सम्मेलन केंद्रों में जहां दक्षिण-पूर्व एशिया के नेता बहुध्रुवीय भविष्य की रूपरेखा तय करने के लिए जुटे, वहां एक खाली कुर्सी बहुत कुछ कह गई। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो अब तक लगभग हर महाद्वीप पर भारत की पहचान दर्ज कराने पहुंचे हैं, इस बार 47वें आसियान शिखर सम्मेलन और 22वें आसियान-भारत सम्मेलन में वर्चुअली हिस्सा लिया। उनकी यह अनुपस्थिति सबके बीच चर्चा का विषय बन गई है। सवाल उठ रहा है कि क्या दिल्ली अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से होने वाली किसी कूटनीतिक टकराहट से बचना चाहती है। नई दिल्ली की नज़र से देखें तो यह कोई मामूली कार्यक्रम टालने की बात नहीं, बल्कि एक सोची-समझी रणनीति है। वॉशिंगटन के साथ चल रहे जटिल रिश्तों में यह कदम उस उच्च दांव वाले खेल का हिस्सा है जहां कभी आर्थिक आदेशों को गठबंधन का नाम दे दिया जाता है और कभी रूस से दोस्ती को विश्वासघात कहा जाता है। मोदी की आसियान यात्रा हमेशा उनकी सक्रिय विदेश नीति की पहचान रही है। 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से उन्होंने दस में से आठ आसियान-भारत सम्मेलनों में खुद हिस्सा लिया है।

उन्होंने इस साझेदारी को एक सौ तीस अरब डॉलर वार्षिक व्यापार वाले मज़बूत आर्थिक रिश्ते में बदल दिया। मगर अब यह मंच भी अहंकारों की भिड़ंत का प्रतीक बन गया है, जहां सहमति की जगह टकराव बढ़ने लगा है। दुनिया के दो सबसे प्रभावशाली नेता, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, मानो एक अजीब से कूटनीतिक नृत्य में फंस गए हैं। दोनों अपने देशों को लोकतंत्र और मुक्त बाज़ार के झंडाबरदार बताते हैं लेकिन एक-दूसरे से आमने-सामने मिलने से बच रहे हैं। कुआलालंपुर में होने वाला आगामी आसियान-भारत सम्मेलन जिसमें ट्रंप पहुंचे और मोदी ऑनलाइन शामिल हुए, दोनों नेताओं के बीच बढ़ते अविश्वास का ताज़ा उदाहरण बन गया है। यह शिखर सम्मेलन मलेशिया के प्रधानमंत्री अनवर इब्राहिम की मेज़बानी में हुआ, जहां दस आसियान सदस्य देश इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम, फ़िलिपींस, ब्रुनेई, कंबोडिया, लाओस और म्यांमार के साथ भारत, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे संवाद साझेदार भी शामिल हुए। सम्मेलन का विषय है “कनेक्टिविटी और रेज़िलिएंस”, यानी आर्थिक सुधार, समुद्री सहयोग और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में डिजिटल एकीकरण पर ज़ोर। भारत ने अपनी ‘एक्ट ईस्ट नीति’ के तहत हमेशा आसियान को अपनी पूर्वी कूटनीति का मुख्य स्तंभ माना है। इसलिए मोदी का कुआलालंपुर न जाना उनकी पिछली परंपरा से स्पष्ट विचलन माना जा रहा है।

2014 से अब तक मोदी लगातार हर आसियान-भारत या ईस्ट एशिया शिखर सम्मेलन में मौजूद रहे हैं। आसियान और भारत के विदेश मंत्रालय के रिकॉर्ड बताते हैं कि उन्होंने 2014 के 12वें सम्मेलन से लेकर 2024 के 21वें सम्मेलन तक कभी एक भी बैठक नहीं छोड़ी। इन बैठकों में मोदी ने दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भारत के आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा दिया, सामरिक साझेदारी को मज़बूत किया और इस क्षेत्र में भारत को एक संतुलनकारी शक्ति के रूप में स्थापित किया, जो चीन की बढ़ती दख़ल और अमेरिका की अप्रत्याशित नीतियों के बीच एक स्थिर आवाज़ बन सके। नई दिल्ली की ओर से जारी आधिकारिक बयान में कहा गया है कि प्रधानमंत्री का कार्यक्रम बिहार विधानसभा चुनाव और दिवाली के बाद की व्यस्तताओं के कारण बेहद भरा हुआ है लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार यह वजह ज़्यादा राजनीतिक बहाना लगती है। असल कारण ट्रंप की संभावित उपस्थिति मानी जा रही है। दोनों नेताओं की आख़िरी मुलाक़ात 2025 की शुरुआत में वॉशिंगटन में हुई थी, जो कुछ ही मिनटों की थी और बिना किसी संयुक्त बयान या व्यापार समझौते के समाप्त हो गई थी। कभी दोस्ताना बताए जाने वाले रिश्ते अब स्पष्ट रूप से ठंडे पड़ चुके हैं। ट्रंप के तीखे बयान कई बार भारत के लिए शर्मिंदगी का कारण बने। उन्होंने दावा किया था कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध रोका, जो दिल्ली के लिए अस्वीकार्य था। एक और बयान में उन्होंने कहा कि मोदी ने निजी तौर पर रूस से तेल आयात घटाने का वादा किया था, जिसे भारत ने पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया। इन सब ने दोनों देशों के बीच तनाव को और गहरा किया।

सिर्फ़ बयानबाज़ी ही नहीं, ट्रंप की नीतियों ने भारत की अर्थव्यवस्था पर भी सीधा असर डाला है। अमेरिका ने भारतीय निर्यात पर पचास प्रतिशत तक की टैरिफ़ वृद्धि कर दी है, यह कहकर कि भारत अनुचित व्यापार प्रथाएं अपनाता है। ऊर्जा क्षेत्र में भी स्थिति तनावपूर्ण है। भारत की तेल ज़रूरतों का लगभग एक-तिहाई हिस्सा रूस से आता है। ट्रंप प्रशासन ने रूस की कंपनियों रॉसनेफ्ट और लुकोइल पर प्रतिबंध लगाकर भारत के रिफ़ाइनरियों को भुगतान और बीमा जैसी समस्याओं में उलझा दिया है। ट्रंप का यह बयान कि जो देश रूसी तेल खरीदते हैं, वे अप्रत्यक्ष रूप से आक्रमण को वित्तपोषित करते हैं, स्पष्ट रूप से भारत पर निशाना था। “रीसेट डिप्लोमेसी” की जो बातें कुछ महीने पहले चल रही थीं, वह अब नतीजे नहीं दे पाई हैं। बयान और हकीकत के बीच की दूरी अब एक खाई बन चुकी है। ऐसे में मोदी का ट्रंप के साथ सार्वजनिक मंच साझा करना जोखिम भरा कदम होता। अमेरिकी राष्ट्रपति का कोई भी असंवेदनशील बयान पूरे सम्मेलन की दिशा बदल सकता था और भारत की सधी हुई विदेश नीति को झटका दे सकता था। इसलिए मोदी ने अपने आपको उस कूटनीतिक नाटक से बचा लिया। वर्चुअल रूप में शामिल होकर उन्होंने भारत की उपस्थिति तो दर्ज रखी, लेकिन किसी विवाद की संभावना से भी दूरी बनाए रखी, हालांकि यह फैसला प्रधानमंत्री के लिए राजनीतिक रूप से आसान नहीं था। मोदी की छवि हमेशा एक विश्व-स्तरीय नेता की रही है, जो हर मंच पर नज़र आता है। अब उनकी अनुपस्थिति पर विपक्ष ने निशाना साधा है। कहा जा रहा है कि जो नेता कभी वैश्विक मंचों पर सबसे आगे खड़ा रहता था, अब मुश्किल सवालों से बच रहा है। विपक्षी दलों का कहना है कि मोदी जो कभी ट्रंप जैसे नेताओं के साथ मंच साझा करते थे, अब उनसे दूरी बना रहे हैं।

मोदी का वर्चुअल हिस्सा लेना एक अल्पकालिक रणनीति कहा जा सकता है जिससे तत्काल विवाद तो टल गया लेकिन भारत की विदेश नीति में एक तरह की झिझक उजागर हुई है। इससे भारत को आसियान के कई महत्वपूर्ण नेताओं जैसे अनवर इब्राहिम, फूमियो किशिदा और फर्डिनांड मार्कोस जूनियर के साथ व्यक्तिगत बातचीत का मौका नहीं मिला। अक्सर ऐसी मुलाक़ातें औपचारिक भाषणों से कहीं अधिक असरदार साबित होती हैं। इनसे भारत अपने दीर्घकालिक हितों के लिए आवश्यक प्रभाव बना सकता था। यह पूरा प्रकरण यह भी दर्शाता है कि भारत-अमेरिका रिश्तों में अनिश्चितता बढ़ती जा रही है। ट्रंप की अमेरिका फर्स्ट नीति और उनका तुनकमिज़ाज रवैया कई सहयोगियों को परेशान कर चुका है। उनकी आर्थिक राष्ट्रवाद वाली सोच ने साझेदारी की जगह प्रतिस्पर्धा और टकराव को बढ़ावा दिया है। दूसरी ओर मोदी ने संयम और संतुलन की नीति अपनाई है। इन दोनों नेताओं के अलग-अलग स्वभाव ने कभी दोस्ती की मिसाल कही जाने वाली साझेदारी को अब सावधानी भरे दूरी के रिश्ते में बदल दिया है, मगर दुनिया के लिए यह खामोशी खतरनाक है क्योंकि वैश्विक व्यापार, ऊर्जा सुरक्षा और एशिया की स्थिरता दोनों देशों के बीच सहयोग पर निर्भर है। आने वाले समय में मोदी को शायद ट्रंप की धौंसभरी शैली का सामना करना ही पड़ेगा। भारत, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, उसे दुनिया के सबसे अमीर लोकतंत्र से डरता हुआ नहीं दिखना चाहिए। आखिरकार, नेतृत्व का मूल्यांकन इस बात से नहीं होता कि कोई नेता कितने सम्मेलन में गया, बल्कि इससे होता है कि वह सबसे कठिन मंच पर कितनी दृढ़ता से अपनी बात रखता है। फिलहाल मोदी की यह वर्चुअल उपस्थिति उन्हें ट्रंप की सीधी रेखा से बाहर रखती है। अब सवाल यह नहीं कि मोदी ट्रंप से कब मिलेंगे, बल्कि यह है कि मोदी फिर कब वह भूमिका निभाएंगे जिसमें वे भारत की आवाज़ को वैश्विक कूटनीति के असली मंच पर सबसे आगे रख सकें सिर्फ़ स्क्रीन के पीछे नहीं, बल्कि दुनिया की आंखों के सामने।

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