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मोदी की ‘सफल’ चीन यात्रा

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12:37 AM Apr 29, 2018 IST | Desk Team

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चीन की दो दिवसीय यात्रा पूरी करके प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी स्वदेश लौट आये हैं लेकिन इस यात्रा के दौरान न तो कोई समझौता हुआ है और न ही कोई संयुक्त वक्तव्य जैसा प्रपत्र जारी हुआ है जबकि आपसी समझ के स्तर पर दोनों ही देशों में नई उम्मीद पैदा हुई है। इस यात्रा का कोई घोषित एजेंडा था भी नहीं बल्कि यह दोनों देशों के मध्य विभिन्न मुद्दों पर आपसी सहमति बनाने की तरफ एक प्रयास के रूप में देखी जा रही थी।

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के आजीवन इस पद पर बने रहने पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्वीकृति के बाद श्री मोदी का उनके साथ वार्तालाप कई मायनों में महत्वपूर्ण माना जा रहा था विशेषकर तब जबकि चीन का रुख भारत से लगती सीमाओं के बारे में स्पष्ट नहीं माना जाता। भूटान की सीमा पर डोकलाम तिराहे पर भारत व चीन की सेनाओं के बीच जो तनातनी का माहौल पैदा हुआ था उसे लेकर अभी तक वह स्पष्टता नहीं बन सकी है जिससे भारत आश्वस्त हो सके कि पुनः इस स्थान पर तनाव की स्थिति नहीं बनेगी।

दर असल चीन के साथ हमारे सम्बन्ध अन्य पड़ाेसी देशों के साथ सम्बन्धों की तुलना में ऊपर-नीचे इसलिए होते रहे हैं क्योंकि दोनों देशों के बीच अभी तक कोई स्पष्ट औऱ मान्य सीमा रेखा नहीं है। दोनों ही देश अपनी–अपनी अवधारणा के अनुरूप अपनी सीमाएं सुनिश्चित करते रहे हैं। इसकी मुख्य वजह तिब्बत रहा जिसे चीन ने कभी भी स्वतन्त्र राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं दी लेकिन 2003 में भारत की भाजपा नीत वाजपेयी सरकार द्वारा तिब्बत को चीन का स्वायत्तशासी अंग स्वीकार कर लिये जाने के बाद हालात में परिवर्तन आना चाहिए था,

जो संभव नहीं हुआ बल्कि इसके बाद चीन ने अरूणाचल प्रदेश पर अपना दावा करना शुरू कर दिया। भारत की कूटनीति की पराजय का यह एेसा दस्तावेज था जिसे संभालने में अगली मनमोहन सरकार को भारी मेहनत करनी पड़ी औऱ चीन को समझाना पड़ा कि वह भूल कर भी 1962 की गफलत में न रहे क्योंकि आज का भारत बदल चुका है। इस सन्दर्भ में 2006 में देश के रक्षामन्त्री के तौर पर चीन की सात दिवसीय यात्रा करने वाले पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी का बीजिंग की धरती पर दिया गया यह बयान वर्तमान दौर का शिलालेख बन चुका है कि ‘आज का भारत 1962 का भारत नहीं है’ तब प्रणवदा ने एक और चेतावनी दी थी कि 21वीं सदी को एशिया की सदी बनाने के लिए यह बहुत जरूरी है कि भारत और चीन मिल कर आपसी सहयोग करते हुए अपने-अपने विकास का रास्ता तय करें।

दोनों के बीच इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा के लिए स्थान तो है मगर दुश्मनी के लिए नहीं किन्तु तब से लेकर अब तक दुनिया में काफी बदलाव आ चुका है और चीन ने वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए हिन्द महासागर से लेकर प्रशान्त एशिया क्षेत्र तक में अमेरिकी शक्ति का मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान को साथ लेकर भारतीय उपमहाद्वीप में भी अपनी रणनीति बदल डाली है। पाक अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरने वाली उसकी अबोर (वन बेल्ट वन रोड) परियोजना भारत के राष्ट्रीय हितों को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है।

साथ ही अमेरिका व उसके मित्र देशों आस्ट्रेलिया व जापान के साथ भारत का रणनीतिक सैनिक सहयोग उसे खटकता रहता है। कूटनीतिक रूप से भारत की स्थिति अब वैसी नहीं रही है जैसी यह गुट निरपेक्ष आन्दोलन के समय जो शक्ति स्तम्भों मे बंटे विश्व के दौरान थी। तब भारत यह मांग पुरजोर तरीके से करता था कि हिन्द महासागर को अन्तर्राष्ट्रय शान्ति क्षेत्र घोषित किया जाये। अब इस मांग के कोई मायने नहीं रह गये हैं क्योंकि पूरे सागर क्षेत्र में चीन व अमेरिका के बीच सामरिक प्रतिद्विंदता सिर चढ़ कर बोल रही है।

मगर हकीकत यह है कि चीन हमारा एेसा एेतिहासिक पड़ाेसी देश है जिसके साथ हमारे सांस्कृतिक सम्बन्ध भी हजारों वर्ष पुराने हैं और दोनों देशों की संस्कृतियां भी प्राचीनतम समझी जाती हैं। श्री मोदी की यात्रा से दोनों देशों के बीच यदि आपसी सम्बन्धों की पेचीदगियां समझ कर उन्हें सुलझाने का रास्ता बनता है तो निश्चित रूप से भारत और चीन मिल कर दुनिया में शान्ति और सह अस्तित्व का वह मार्ग पुनः

खोल सकते हैं जिसके लिए भारत जाना जाता है। मगर इसके लिए जरूरी है कि चीन भारत को उसका वाजिब हक दे और सीमा निर्धारण के उस फार्मूले पर अमल करे जो मनमोहन सरकार के दौरान बनाया गया था कि ‘सीमावर्ती इलाकों में जो हिस्सा जिस देश के प्रशासन में चल रहा है वह उसी का अंग माना जाये।’ इसके साथ ही वह किसी अन्य देश द्वारा उसके सप्लाई किये गये सामरिक हथियारों का भारत के विरुद्ध प्रयोग करने पर भी प्रतिबन्ध लगाये।

पाकिस्तान के साथ जिस प्रकार के सम्बन्ध पिछले कुछ वर्षों से चीन ने बनाये हैं उन्हें लेकर यह आशंका व्यक्त की जाती रही है। हालांकि श्री मोदी की यात्रा में दोनों देश इस बात पर सहमत हुए हैं कि वे अफगानिस्तान में आर्थिक विकास की साझा परियोजना चलायेंगे। इसका खुलासा होना अभी बाकी जरूर है मगर यह सही दिशा में कदम जरूर है।

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