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वादी में सिनेमा हुए गुलजार

कश्मीर घाटी का भारतीय फिल्म उद्योग से बहुत पुराना रिश्ता है।

02:42 AM Sep 22, 2022 IST | Aditya Chopra

कश्मीर घाटी का भारतीय फिल्म उद्योग से बहुत पुराना रिश्ता है।

कश्मीर घाटी का भारतीय फिल्म उद्योग से बहुत पुराना रिश्ता है। कश्मीर वादी को इस  धरती का जन्नत कहा जाता है। इसे भारत का स्विट्जरलैंड कहा जाता है। हिन्दी फिल्म उद्योग के जाने-माने फिल्म निर्देशकों ने घाटी की खूबसूरत वादियों को अपने कैमरों में कैद किया है। 1990 से पहले कश्मीर के पर्यटक स्थलों पर हिन्दी फिल्मों की शूटिंग होती थी, तो कश्मीरी अवाम अपने पसंदीदा सितारों को देखने के लिए इकट्ठा हो जाता था। शर्मिला टैगोर, आशा पारेख, मुमताज, शबाना आजमी और उस दौर की अभिनेत्रियों के लोग दीवाने थे। नैशनल कांफ्रैंस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला कई अभिनेत्रियों को साथ लेकर सैर-सपाटा करते रहे। पहलगांव में फिल्मों की शूटिंग के दौरान भीड़ को सम्भालने के​ लिए पुलिस को अच्छी खासी मेहनत करनी पड़ती थी। फिल्म के नायक और नायिकाओं को रोमांटिक सीन डल झील के किनारे बर्फ से ढकी पहाड़ियों और चिनार के पेड़ों के उड़ते पतों के बीच फिल्माए जाते थे। लेकिन 1990 में कश्मीर में आतंकवाद अपने चरम पर पहुंचा तो सिनेमा हालों में सन्नाटा छा गया। बम हमलों और गोलियों की दनदनाहट के बीच सिनेमा हाल बंद करने पड़े। 
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अब जम्मू-कश्मीर में 32 वर्षों बाद सिनेमाघर गुलजार हो रहे हैं। गृहमंत्री अमित शाह और उपराज्यपाल मनोज सिन्हा की कुशल रणनीति और बेहतर प्रयासों के चलते जम्मू-कश्मीर में ​सिनेमाघर गुलजार हो रहे हैं। उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने दक्षिणी कश्मीर के शोपियां, पुलवामा और श्रीनगर के सोनमर्ग में पहले मल्टीप्लेक्स सिनेमाहाल का उद्घाटन किया। कश्मीर घाटी में ऐसे 10 मल्टीप्लेक्स बनाने की घोषणा हो चुकी है। घाटी में 32 साल तक सिनेमा बंद रहने के कारण युवाओं को 300 किलोमीटर दूर जम्मू आकर ​िफल्म देखने का सपना पूरा करना पड़ता था। घाटी के युवा जो बाहर पढ़ रहे थे या रोजी-रोटी के लिए जो बाहर काम करते थे वो तो सिनेमा का आनंद उठा पाते थे, लेकिन जो युवा घाटी में ही रह रहे हैं वे टीवी तक ही सीमित हो गए थे। कई युवा ऐसे भी हैं जिन्हें यह भी नहीं पता कि मल्टीप्लेक्स होता कैसा है। आतंकवाद के चलते एक-एक करके घाटी के 19 सिनेमाहाल बंद हो गए थे। इनमें से अकेले 9 सिनेमा तो श्रीनगर में ही थे। 
1999 में फारूख अब्दुल्ला सरकार ने बंद पड़े सिनेमाहालों को फिर से खुलवाने की कोशिश की थी। लेकिन श्रीनगर के ​सिनेमा रीगल पर ग्रेनेड हमले में एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी और 12 लोग घायल हो गए थे। इसके बाद सिनेमाघरों में ताला लग गया। कुछ सिनेमाघरों को कड़े सुरक्षा प्रबंधों के चलते चलाने की कोशिश  की गई लेकिन डर के मारे दर्शक ही नहीं पहुंचते थे। जो राजनीतिज्ञ जम्मू-कश्मीर पर राज करते रहे वे तो देश के बड़े शहरों या विदेश में जाकर रहते रहे और  चुनावों से पहले जम्मू-कश्मीर में आकर राजनीति की दुकान चमकाते रहे लेकिन कश्मीर मनोरंजन से वंचित रहा। घाटी में मल्टीप्लेक्स का खुलना इस राज्य में स्तिथि सामान्य होने का संकेत है। जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के बाद आतंकवादी हिसा में कमी आई है।  ढाई वर्ष के कोरोना काल के बाद जम्मू-कश्मीर में इस वर्ष पर्यटन बढ़ा है। कश्मीर के हर पर्यटक स्थल पर पर्यटकों की भारी भीड़ देखी गई है। उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने तो कश्मीर में फिल्म सिटी बनाने की भी घोषणा कर दी। 
अब सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या मल्टीप्लेक्सों में उतनी ही भीड़ जुट पाएगी जितनी 1990 से पहले जुटा करती थी। उम्मीद की जा रही है कि नए सिनेमाहाल लोगों के आकर्षण का केन्द्र बनेंगे। जब लोग घरों से बाहर निकलेंगे। मल्टीप्लेक्स में जाकर तीन घंटे का शो देखेंगे तो निश्चय समाज में संवाद बढ़ेगा। जो युवा शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा से दबे पड़े हैं उन्हें तनाव से मुक्ति मिलेगी। कश्मीर में बदलाव का ऐतिहासिक दौर शुरू हो चुका है। जरूरत है चीजों को दुरुस्त करने की। जरूरत है कश्मीर के पर्यटन और मनोरंजन उद्योग को प्रोत्साहन करने की। सिनेमा देखने आने वाले दर्शकों की सुरक्षा भी एक अहम पहलू है। पिछले दस वर्षों में कश्मीर समस्या पर कई फिल्में बनी हैं, लेकिन जरूरत इस बात की है कि स्थानीय स्तर पर फिल्म उद्योग को बढ़ावा दिया जाए। मल्टीप्लेक्स खुलने से लोगों को रोजगार मिलेगा। फिल्मों की शूटिंग होगी तो स्थानीय प्रतिभाओं को निखरने का मौका मिलेगा। इस संबंध में जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने फिल्म उद्योग को प्रोत्साहित करने के लिए एक नीति भी तैयार कर ली है। श्रीनगर के अलावा अनंतनाग, बारामूला और सोपोर में भी कई सिनेमाहाल थे, जो अब खंडहर बन चुके हैं उन्हें भी दुबारा स्थापित करने की जरूरत है।
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