बहुधर्मी समाज और विशेष पूजा स्थल कानून
भारत की जनता बेशक ‘धर्मपरायण’ है परन्तु वह धर्म ‘उन्मादी’ नहीं है…
भारत की जनता बेशक ‘धर्मपरायण’ है परन्तु वह धर्म ‘उन्मादी’ नहीं है। भारत की पांच हजार साल से भी पुरानी संस्कृति इसकी गवाह है कि सामन्ती दौर तक में कभी भी किसी भी राजा ने धर्मोन्माद में कोई निर्णय नहीं किया। अतः भारत की लोकतान्त्रिक सरकार द्वारा संसद में 1991 में बनाया गया ‘पूजा स्थान विशेष कानून’ इस देश के लोगों की सहिष्णुता का ही प्रतीक माना जायेगा क्योंकि इसे बनाते वक्त तत्कालीन सांसदों के बहुमत ने यह तय किया था कि आजाद भारत के पहले दिन 15 अगस्त 1947 को जिस स्थान का जो धार्मिक चरित्र था उसे वैसा ही बरकरार रखा जायेगा परन्तु केवल एक अपवाद अयोध्या की राम जन्मभूमि स्थली को इसमें शामिल नहीं किया गया था क्योंकि उस समय पूरे देश में राम जन्मभूमि आन्दोलन चल रहा था।
अतः बहुत स्पष्ट है कि भारत के संविधान के तहत जो धार्मिक स्वतन्त्रता यहां के लोगों को दी गई है उसी की रक्षा हेतु 1991 में यह कानून संसद में बनाया गया था। मगर 2020 में इस कानून की संवैधानिकता को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने वाली याचिका दायर की गई जिस पर सुनवाई जारी है। हम सब जानते हैं कि 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में वह मस्जिद आन्दोलकारियों द्वारा ढहा दी गई जिसके बारे में यह मान्यता बलवती की गई थी कि सदियों पहले भगवान श्रीराम का जन्म इसी स्थान पर हुआ था। बिना किसी शक के हिन्दू शास्त्रों के अनुसार श्री राम का जन्म अयोध्या में ही हुआ था अतः हजारों साल बाद उनके जन्म स्थान को चीन्हना साधारण काम नहीं था। मगर भाजपा नेता श्री लालकृष्ण अडवानी के नेतृत्व में चल रहे आन्दोलन में यह कहा जा रहा था कि राम का जन्म स्थान वह बाबरी मस्जिद ही है जिसे भारत पर बाबर के समय मन्दिर तोड़ कर बनाया गया था।
वास्तव में यह आस्था का विषय था जिसे श्री अडवानी अपने आन्दोलन के समय बार-बार दोहराते थे। मगर 1991 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. पी.वी. नरसिम्हा राव की कांग्रेसी सरकार ने खतरे को भांपते हुए विशेष पूजा स्थल कानून बना दिया था। इसके तहत किसी अन्य पूजा स्थान को लेकर आन्दोलन करने का रास्ता बन्द हो गया था। वास्तव मे राम जन्मभूमि मन्दिर आन्दोलन को स्वतन्त्र भारत में हिन्दू पुनर्जागरण का आन्दोलन भी कहा गया। नरसिम्हा राव सरकार ने यह खतरा भांप लिया था और मस्जिद के विध्वंस से पूर्व ही विशेष पूजा स्थल कानून बना दिया था। इस कानून के तहत भारत के किसी भी धर्म के किसी भी पूजा स्थल का चरित्र नहीं बदला जा सकता था। जब 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या के बारे में निर्णय सुनाते हुए यह कहा कि 1991 में बना विशेष पूजा स्थल कानून देश के अन्य धार्मिक स्थलों को सुरक्षा कवच प्रदान करता है तो 2020 में इस कानून को चुनौती दी गई।
अतः मार्च 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार से अपना पक्ष रखने के लिए कहा। केन्द्र सरकार ने सितम्बर 2022 में न्यायालय से अपने पक्ष का शपथ पत्र दाखिल करने के लिए दो सप्ताह का समय मांगा परन्तु सरकार इस समयावधि में शपथ पत्र दाखिल नहीं कर सकी और अक्टूबर 2022 में इसने न्यायालय से पुनः दो सप्ताह का समय मांगा। फिर जुलाई 2023 में शपथ पत्र दाखिल न करने की सूरत में सरकार को अक्टूबर 2023 तक का समय दिया गया। मगर इस बार इसने न्यायालय को सूचित किया कि पूजा स्थल कानून के सम्बन्ध में जितनी भी याचिकाएं दाखिल की गई हैं उन सबके बारे में एक सांझा शपथ पत्र देने का काम सरकार के विचाराधीन है।
अतः इन तथ्यों की रोशनी में हम समझ सकते हैं कि सरकार इस मुद्दे पर उहा-पोह की स्थिति में है। 2024 दिसम्बर महीने में भी सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को चार सप्ताह के भीतर अपना पक्ष रखने की हिदायत दी थी। मगर वह यह कार्य अभी तक पूरा नहीं कर सकी है। परन्तु इस बीच देश के कई स्थानों में एसी मस्जिदों को मुस्लिम काल में मन्दिर के ऊपर बने धार्मिक स्थान बताने की नई मुिहम शुरू हो गई जिस पर विगत 22 दिसम्बर को सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालतों को आदेश दिया कि वे एेसे मुकदमों पर तब तक पर कोई निर्णय या आदेश न दें जब तक कि सर्वोच्च न्यायालय इस बारे में कोई निर्देश न दे। इसकी असल वजह यह थी कि जहां कांशी की श्री विश्वनाथ परिसर में खड़ी ज्ञानवापी मस्जिद से लेकर कई अन्य स्थानों पर भी हिन्दू संगठनों द्वारा मन्दिर होने का दावा निचली अदालतों में किये जाने लगा जिनमें उत्तर प्रदेश के संभल शहर की शाही जामा मस्जिद प्रमुख थी।
इस मस्जिद का सर्वेक्षण करने का आदेश स्थानीय अदालत द्वारा दे दिया गया था। जिसे लेकर शहर में साम्प्रदायिक तनाव इतना बढ़ा कि पांच लोगों की पुलिस से मुकाबला करते हुए मृत्यु हो गई। इसके बाद एेसी ही याचिकाएं कई दूसरे शहरों में भी स्थानीय अदालतों में दायर की गई। यहां अजमेर शरीफ की विश्व प्रसिद्ध दरगाह का जिक्र करना भी लाजिमी है जिसे हिन्दू और मुसलमान बराबर की संख्या में पूज्य स्थल मानते हैं। इससे पूरे देश में ही साम्प्रदायिक तनाव बढ़ जाने का खतरा पैदा हो गया जिसे देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 22 दिसम्बर को आदेश दिया। अब इस मामले में गत 15 जनवरी को नया मोड़ आया और देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय में इस बारे में चल रहे मुकदमे में हस्तक्षेप याचिका दायर की जिसमें कहा गया कि विशेष पूजा स्थल कानून -1991 भारत का साम्प्रदायिक सौहार्द बनाये रखने के लिए बहुत जरूरी है।
यह याचिका पार्टी के महासचिव श्री के.सी. वेणुगोपाल ने अपनी पार्टी की तरफ से डाली है। अतः बहुत स्पष्ट है कि विशेष पूजा स्थल कानून अब कहीं न कहीं भारत की बहुधर्मी सामाजिक संरचना से जाकर जुड़ गया है। खतरा इतना बड़ा है कि यदि निचली अदालतें विवाद में खड़ी की गई मस्जिदों के सर्वेक्षणों का आदेश देती रहती तो भारत के हर शहर व कस्बे में साम्प्रदायिक तनाव पैदा हो सकता था। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने विगत 22 दिसम्बर को सर्वेक्षणों पर रोक लगाने का आदेश जारी करके भारत के लोगों को यथास्थित बनाये रखने का सन्देश दिया।
आम भारतीय के लिए सोचने वाली बात यह है कि मस्जिदों में अपने भगवान की खोज करना कोई धार्मिक कृत्य नहीं है क्योंकि भारत में लाखों की संख्या में विभिन्न देवी-देवताओं के मन्दिर हैं। जब हमारा संविधान हमें अपने तरीके से अपना धर्म पालन करने की छूट देता है तो हमे नये पचड़ों में पड़ने की क्या जरूरत है। यह हकीकत है कि मुस्लिम राजाओं ने भारत पर छह सौ साल तक शासन किया मगर भारत को कभी भी इस्लामी राज बनाने की कोशिश इन सुल्तानों, नवाबों व बादशाहों ने कभी नहीं की। बेशक उन्होंने कुछ मन्दिरों पर आक्रमण किये मगर किसी भी मुगल बादशाह ने हिन्दुओं को दोयम दर्जे पर नहीं रखा। इसका अन्दाजा हम इस तथ्य से लगा सकते हैं कि जब 15 अगस्त 1947 को भारत अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हुआ तो तो समूचे हिन्दुस्तान ( पाकिस्तान व बांग्लादेश को मिला कर ) इसकी जनसंख्या में मुसलमानों की संख्या 24 प्रतिशत से कुछ अधिक ही थी।
आजादी के बाद हमने धर्म निरपेक्ष होना कबूल किया और किसी भी धर्म या मजहब को एक बराबर का दर्जा दिया। अतः हिन्दू संस्कृति मुस्लिम शासकों के जमाने में भी फलती-फूलती रही। अब 21वीं सदी चल रही है और हम 14वीं सदी में किये गये अन्यायों का बदला लेने के बारे में सोच कर केवल अपने भविष्य से ही खिलवाड़ करेंगे। आजाद भारत के विकास में मुसलमानों का भी उतना ही योगदान है जितना कि हिन्दुओं का। भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ हमारे मुस्लिम भाई-बहन ही हैं ।
1857 से लेकर 1947 तक का इतिहास हमें बताता है कि हिन्दू- मुस्लिम भाईचारा समाप्त करने में अंग्रेजों की भूमिका बहुत निर्णायक रही। एेसा करके उन्होंने अपने शासन को मजबूती दी और भारतीय को भारतीय के खिलाफ लड़ाया। यदि एेसा न होता तो क्या मुहम्मद अली जिन्ना 1936 से लेकर 1947 तक भारत में एलानिया साम्प्रदायिक राजनीति कर सकता था? जबकि दूसरी तरफ महात्मा गांधी पूरे भारतीय समाज की राजनीति कर रहे थे। आज के दौर में अगर हम मस्जिद-मन्दिर में ही उलझे रहेंगे तो अपना भविष्य संशयपूर्ण बनाने की ओर बढ़ेंगे। कोई भी देश तभी तरक्की कर सकता है जब उसके भीतर साम्प्रदायिक सौहार्द और भाईचारा हो।