मुंगेरी लाल के हसीन सपने
यह संदर्भ स्पष्ट रूप से राहुल गांधी के उस भाषण की ओर था जिसमें…
अगर चाची की मूछ होती तो वह चाचा कहलाती: अब चाची की मूछ नहीं है तो वो चाचा नहीं हो सकती
यह संदर्भ स्पष्ट रूप से राहुल गांधी के उस भाषण की ओर था जिसमें उन्होंने कहा था कि वह इण्डिया (INDIA) गठबंधन सरकार के अंतर्गत राष्ट्रपति के अभिभाषण का एक “वैकल्पिक दृष्टिकोण” प्रस्तुत कर रहे हैं। राहुल गांधी का इण्डिया गठबंधन की सरकार की बात करना, हल्के शब्दों में कहें तो हास्यास्पद प्रतीत होता है। भाजपा सांसद ने भी ठीक यही किया,उन्होंने राहुल गांधी के इस दावे, बल्कि कल्पना का उपहास उड़ाया कि केंद्र में इण्डिया गठबंधन की कोई सरकार हो सकती है। संबित पात्रा यहीं नहीं रुके, उन्होंने टी-शर्ट और मफलर का जिक्र भी किया-पहला राहुल गांधी के संदर्भ में और दूसरा अरविंद केजरीवाल के संदर्भ में।
यह सर्वविदित है कि राहुल गांधी का पहचान चिह्न उनकी सफेद टी-शर्ट है जिसे वे दिल्ली की कड़ाके की सर्दी में भी पहनते हैं। वहीं, केजरीवाल अपने पहले कार्यकाल में हमेशा मफलर में नज़र आते थे। यह ठंड से बचाव का तरीका था या आम आदमी से जुड़ाव दिखाने का प्रयास, यह तो कोई भी अनुमान लगा सकता है। हालांकि, हाल के वर्षों में उनके परिधान से मफलर लगभग गायब हो चुका है।
पात्रा की मफलर संबंधी टिप्पणी ने अचानक उस ‘सुधारक’ की छवि ताजा कर दी जो कभी केजरीवाल की पहचान थी। वह व्यक्ति जो अपनी पुरानी वैगन-आर चलाता था और जिसने सरकारी गाड़ी या आधिकारिक आवास का उपयोग न करने की कसम खाई थी लेकिन वह दौर अब इतिहास बन चुका है,ठीक वैसे ही जैसे उनका भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन। आज केजरीवाल अपने भव्य और आलीशान आवास को लेकर विवादों में घिरे हैं,जिसे विपक्ष ‘शीश महल’ कहता है और जिसमें जैकुज़ी और जिम जैसी सुविधाएं शामिल हैं लेकिन पात्रा पर वापिस लौटते हैं, या यूं कहें कि राहुल गांधी और उनके इण्डिया गठबंधन सरकार के उल्लेख पर। पात्रा और गांधी दोनों ही राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव की बहस में भाग ले रहे थे। यह अभिभाषण बजट सत्र के पहले दिन दिया गया था, जैसा कि हर वर्ष की पहली संसदीय बैठक की परंपरा होती है।
मुख्य प्रश्न यह है कि इण्डिया गठबंधन आखिर है कहां? क्या वह सक्रिय है या निष्क्रिय हो चुका है? क्या स्वयं राहुल गांधी ने ही इसके अंत की घंटी नहीं बजा दी है? यदि अब तक के राजनीतिक घटनाक्रम को देखा जाए तो उत्तर स्पष्ट रूप से हां में ही मिलेगा। इण्डिया गठबंधन का गठन 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा का मुकाबला करने के उद्देश्य से किया गया था। आंतरिक विरोधाभासों के बावजूद विपक्षी गठबंधन ने उम्मीदें जगाईं। लोकसभा चुनाव परिणामों में भाजपा ने 240 सीटें जीतीं, जबकि इण्डिया गठबंधन ने 234 सीटों पर सफलता हासिल की।
हालांकि, यह स्वप्निल यात्रा यहीं समाप्त होती दिखी। आंतरिक विरोधाभासों के अलावा इसके घटक दल राज्य चुनावों में एकजुट नहीं रहे, बल्कि वे एक-दूसरे के विपरीत कार्य करते नजर आए। उदाहरण के लिए झारखंड के राज्य चुनावों में गठबंधन के साझेदार एक-दूसरे के खिलाफ लड़े। दिल्ली में इण्डिया गठबंधन के तीन घटकों ने आम आदमी पार्टी (आप) का समर्थन किया, जबकि कांग्रेस, जो गठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी है, इसके संस्थापक अरविंद केजरीवाल के खिलाफ लड़ रहे थे। दिल्ली के चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने केजरीवाल को झूठा, चालाक और घोटालेबाज कहा। केजरीवाल ने भी पलटवार करते हुए मतदाताओं को कांग्रेस के दोहरे मापदंडों की याद दिलाई। उन्होंने आरोप लगाया कि कांग्रेस और भाजपा के बीच एक ‘समझौता’ है, जिसमें कांग्रेस आप के वोट काटकर भाजपा की मदद करती है। इस प्रकार के तीखे हमले किसी भी गठबंधन के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। यह कहना आसान है कि हम राज्यों में अलग-अलग लड़ रहे हैं जबकि राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट हैं, लेकिन राजनीति में यह तरीका कारगर नहीं होता। आप एक मंच पर एक-दूसरे की आलोचना करें और फिर दूसरे मंच पर एकता की बात करें?
इण्डिया गठबंधन और इसके विघटन की बात करें तो इसके लिए कांग्रेस जिम्मेदार है। पुरानी पार्टी और इसके वर्तमान नेतृत्व, विशेष रूप से राहुल गांधी और उनके सहयोगी, गठबंधन के साझेदारों के एक पृष्ठ पर न होने के लिए उत्तरदायी हैं। इण्डिया गठबंधन के नेतृत्व को लेकर संकट उत्पन्न हो गया है, जिसमें कई वरिष्ठ नेता कांग्रेस या राहुल गांधी को गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए सक्षम नहीं मानते। क्षेत्रीय दल, जिन्हें जूनियर पार्टनर कहा जा सकता है, कांग्रेस के ‘बड़े भाई’ वाले रवैये से नाराज हैं, जबकि ममता बनर्जी जैसे वरिष्ठ नेता राहुल गांधी को नेतृत्व के लिए अक्षम मानते हैं। सामान्य धारणा यह है कि उनमें नेतृत्व की क्षमता नहीं है। इसी परिप्रेक्ष्य में कुछ दलों ने ममता बनर्जी को गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए समर्थन दिया। हालांकि, कुछ का मानना था कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे इस भूमिका के लिए उपयुक्त हैं लेकिन वर्तमान में यह सब अनिश्चित है।
इसके अलावा, पिछले वर्ष उद्योगपति गौतम अडानी के खिलाफ कांग्रेस के एकमात्र अभियान के साथ गठबंधन के अधिकांश साझेदार सहमत नहीं थे। तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने संसद में अडानी मुद्दे पर कांग्रेस द्वारा कार्यवाही बाधित करने का विरोध किया, लेकिन राहुल गांधी ने इसे जारी रखा। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एक कदम आगे बढ़कर इंडिया ठबंधन को पूरी तरह से भंग करने का आह्वान किया, 2024 के चुनावों के बाद गठबंधन के भविष्य पर स्पष्टता की कमी पर अफसोस जताया।
बहस इस बात पर नहीं है कि गठबंधन सफल होगा या असफल न ही यह राहुल गांधी में नेतृत्व गुणों की अनुपस्थिति के बारे में है। बहस बड़े चित्र और राष्ट्रीय मुद्दों पर है। इस मामले में भले ही कांग्रेस राहुल बनाम मोदी की प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के लिए उत्सुक हो, तथ्य यह है कि इसमें कोई तुलना नहीं है। यहां तक कि मोदी के सबसे कट्टर आलोचक भी, चाहे अनिच्छा से ही सही, मानते हैं कि गांधी और मोदी के बीच, वे देश का भविष्य मोदी के अधीन अधिक सुरक्षित पाते हैं। भले ही वे उनकी सांप्रदायिक और विभाजनकारी राजनीति से असहमत हों, कुछ ही लोग इनकार करेंगे कि मोदी के पास देश के लिए एक दृष्टिकोण है कि उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि को बढ़ाया है; और सबसे महत्वपूर्ण बात, जब मोदी बोलते हैं तो दुनिया सुनती है।
दूसरी ओर राहुल गांधी इन मानकों पर खरे नहीं उतरते। वास्तव में वे भारत और विश्व दोनों के सामने आने वाली चुनौतियों से अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। यह सच है कि वर्षों में उन्होंने परिपक्वता हासिल की है लेकिन मोदी को चुनौती देने के लिए अभी भी उनमें कई कमियां हैं। भारत गठबंधन और उसका गठन एक अच्छी शुरुआत थी, लोकसभा में इसका प्रदर्शन भी काफी उत्साहजनक रहा लेकिन ये लाभ अल्पकालिक साबित हुए, बल्कि एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में बर्बाद हो गए।
यदि ऐसा नहीं होता तो मोदी ने बहस के दौरान 2029 के बाद सत्ता में बने रहने की बात नहीं की होती, ‘यह तो हमारा तीसरा कार्यकाल है,’ उन्होंने सदन में कहा,जिसे मेज़ थप- थपकर ज़ोरदार समर्थन मिला, वहीं राहुल गांधी का इण्डिया गठबंधन की सरकार की कल्पना करना, मुंगेरी लाल के सपने से कम नहीं है।