सरकारी ठेकों में मुस्लिम आरक्षण
भारत आरक्षण के इर्द-गिर्द बुनियादी संवैधानिक सवालों पर आज भी बहस कर रहा है। आरक्षण…
भारत आरक्षण के इर्द-गिर्द बुनियादी संवैधानिक सवालों पर आज भी बहस कर रहा है। आरक्षण की स्थापना हमारे समाज में समानता को स्थापित करने के प्रयास के लिहाज से की गई थी जिसका उद्देश्य समाज के कमजोर वर्ग को सशक्त बनाना था लेकिन आरक्षण को देश में राजनीतिक हथियार बना लिया गया जिसके चलते आरक्षण अपने मूल उद्देश्य से ही भटक गया। भारत में जातीय व्यवस्था बहुत जटिल है। जब पूरी व्यवस्था में धर्म जुड़ जाता है तो समूची व्यवस्था ही जटिल हो जाती है। कर्नाटक में सरकारी ठेकों में मुस्लिमों को 4 प्रतिशत आरक्षण देने संबंधी विधेयक पारित हो जाने के बाद एक विवाद खड़ा हो गया है जिसे लेकर संसद के दोनों सदनों में जमकर हंगामा हो रहा है। इस विवाद ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में धर्म आधारित आरक्षण दिया जा सकता है? भारतीय जनता पार्टी सरकारी ठेकों में मुस्लिम आरक्षण को असंवैधानिक करार दे रही है जबकि कांग्रेस और कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार इसे संविधान के अनुरूप करार दे रही है। मुस्लिमों के आरक्षण का मामला पहले भी सियासत का केन्द्र रहा है और यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। भाजपा इसे मुस्लिम तुष्टिकरण बता रही है और यह कह रही है कि ओबीसी के रिजर्वेशन में कटौती कर मुस्लिमों को आरक्षण दिया जा रहा है। संविधान में भी कहा गया है कि धार्मिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता। धर्म के आधार पर आरक्षण का दांव पहले भी राजनीतिक दल चलाते रहे हैं।
दरअसल, मौजूदा समय में एससी/एसटी को 24 फीसदी रिजर्वेशन मिला हुआ है जबकि ओबीसी में श्रेणी-1 में 4 फीसदी और श्रेणी-2 में 15 फीसदी रिजर्वेशन है। अब ओबसी में जो श्रेणी-2 है, उसी में मुसलमानों को जोड़ने की बात कही गई है। सिद्धारमैया के इस खेल के पीछे राज्य में 12.92% मुसलमान आबादी को माना जा रहा है जिसे वे ममता बनर्जी की तरह ‘हमेशा के लिए’ अपना वोटर बनाना चाहते हैं। ममता भी तकरीबन 30 फीसदी मुस्लिम आबादी के लिए ऐसा दांव चल चुकी हैं। इसके दम पर वो मुसलमानों का मसीहा बनकर वोट हासिल करती रही हैं और निर्विवाद रूप से जीतती रही हैं।
धर्म आधारित आरक्षण पहली बार 1936 में त्रावणकोर कोचीन राज्य में लागू किया गया था। 1952 में इसे साम्प्रदायिक आरक्षण में बदल दिया गया। केरल में ओबीसी को 30 प्रतिशत आरक्षण मिलता है जिसमें मुस्लिम समुदायों को नौकरियों में 8 प्रतिशत और उच्च शिक्षा में 10 प्रतिशत कोटा प्रदान किया गया है। तमिलनाडु में पिछड़े वर्ग के मुस्लमानों को 3.5 प्रतिशत आरक्षण मिलता है जिसमें मुस्लिम समुदाय की 95 फीसदी जातियां हैं। बिहार में ओबीसी को 32 फीसदी आरक्षण मिलता है जिसमें मुस्लिम समुदाय को 4 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया है। इसी तरह आंध्र प्रदेश में मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देने की कोशिश की गई थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण के मामले को खारिज किया है। इसके बावजूद राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के चलते आरक्षण का लोभ कम नहीं हो रहा। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने सरकारी ठेकों में मुस्लिमों के आरक्षण का नया ट्रैंड शुरू किया है। राज्य सरकारों को इस बात का हक है कि वह आरक्षण दे सकती हैं लेकिन उनके फैसलों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है। विधि विशेषज्ञों की राय है कि मौजूदा मामला टैंडर से संबंधित है। संवैधानिक तौर पर यह आरक्षण शायद ही टिक पाए। क्योंकि संविधान में आर्टिकल 15 व 16 में रिजर्वेशन दिए जाने का प्रावधान है। एजुकेशनल इंस्टिट्यूट में दाखिले के लिए आर्टिकल 15 के तहत प्रावधान है और सरकारी नौकरी में रिजर्वेशन का प्रावधान आर्टिकल 16 में है।
कर्नाटक सरकार ने टेंडर में रिजर्वेशन दिया है और वह भी रिलिजन के आधार पर दिया है। यह संविधान के तहत वर्णित परिभाषा पब्लिक एंप्लायमेंट के तहत नहीं आता है। रिजर्वेशन सिर्फ सरकारी नौकरी और शैक्षणिक संस्थान में दाखिले के लिए हो सकता है। ज्ञानंत सिंह बताते हैं कि आर्टिकल 19(1) (जी) में ट्रेड और कॉमर्स आदि का मौलिक अधिकार है और कर्नाटक सरकार का फैसला उस अधिकार में दखल देता हैं। ऐसे में राज्य सरकार के फैसले को जब संवैधानिक कोर्ट में चुनोती दी जाएगी तो सुप्रीम कोर्ट देखेगा कि यह संवैधानिक दायरे में है या नहीं लेकिन पहली नजर में लगता है कि यह फैसला टिकना मुश्किल है। कर्नाटक की पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने 2024 में मुस्लिम ओबीसी के आरक्षण को खत्म कर दिया था। कांग्रेस भी जानती है कि आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं हो सकता और कोर्ट में इस डिफैंड करना आसान नहीं होगा। भाजपा कर्नाटक सरकार के फैसले को बड़ा चुुनावी मुद्दा बनाना चाहती है। मुस्लिमों का रिजर्वेशन दो धारी तलवार है। कांग्रेस बिहार के चुनावों में इसका फायदा उठाना चाहती है लेकिन इससे ओबीसी वोट छिटकने का डर है। फिलहाल आरक्षण को लेकर हंगामा जारी है। बेहतर यही होगा कि आरक्षण पर नए सिरे से विचार किया जाए और वोट बैंक की खातिर देश को प्रयोगशाला नहीं बनाया जाना चाहिए।