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मुसलमान और वक्फ बोर्ड

04:37 AM Aug 10, 2024 IST | Aditya Chopra
मुसलमान और वक्फ बोर्ड

केन्द्र सरकार मुस्लिम वक्फ बोर्ड कानून में संशोधन चाहती है जिसकी वजह से लोकसभा में वक्फ (संशोधन) विधेयक लायी और इसे संयुक्त संसदीय समिति में भेज दिया। पिछले दस सालों में संभवतः यह पहला अवसर है जब सरकार ने कोई विधेयक संसद की किसी समिति के पास भेजा है। इससे यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि सत्तारूढ़ एनडीए के घटक दलों में विधेयक पर मतैक्य नहीं है और अलग-अलग राय है। संसद की समितियां मिनी संसद कहलाती हैं क्योंकि इनमें संसद में मौजूद सभी प्रमुख दलों का प्रतिनिधित्व रहता है। संयुक्त समिति में तो राज्यसभा व लोकसभा दोनों सदनों के सांसद रहते हैं अतः इसमें विधेयक पर विचार करने के बाद जो निष्कर्ष निकलेगा वह समूची संसद की राय इसलिए मानी जायेगी कि एेसी समितियों में जो भी निर्णय होता है वह प्रायः सर्वसम्मति से ही होता है। हालांकि मतभेद होने पर कोई भी सदस्य अपनी अलग राय दर्ज करा सकता है। पिछले कुछ वर्षों से मुस्लिम वक्फ बोर्ड की सम्पत्ति को लेकर तरह-तरह की अफवाहें व खबरें उड़ती रही हैं परन्तु सत्य यही है कि रेलवे व रक्षा मन्त्रालय के बाद देश भर में वक्फ बोर्ड की सम्पत्ति सर्वाधिक है। बेशक यह सम्पत्ति मुस्लिम दानदाताओं द्वारा ही वक्फ या दान की गई है।
वक्फ बोर्ड के पास जो भी सम्पत्ति है वह केवल नेक कामों के लिए ही है मगर इस सम्पत्ति पर कुछ चुनीन्दा लोग चौकड़ी मारकर बैठ गये हैं जिसके खिलाफ मुसलमानों के कुछ फिरकों में भी रोष है। सरकार चाहती है कि वक्फ बोर्ड के कार्यकलाप में लोकतान्त्रिक पारदर्शिता आये और सम्पत्ति का लाभ कुछ चुनीन्दा लोगों की जगह मुस्लिम समाज के दबे-कुचले वर्गों को भी मिले। मगर विपक्ष का कहना है कि सरकार वक्फ बोर्ड की पारदर्शिता के बहाने अपना हिन्दू एजेंडा लागू करना चाहती है और बहुसंख्यक समाज को यह सन्देश देना चाहती है कि उसकी जद से कोई भी सम्पत्ति बाहर नहीं है। जाहिर तौर पर सोचें तो वक्फ की जो भी सम्पत्ति है वह राष्ट्र की ही सम्पत्ति है। इस देश में हिन्दू-मुस्लिम सदियों से साथ रहते आ रहे हैं और दोनों समुदाय अपनी धार्मिक गतिविधियां भी स्वतन्त्रता के साथ करते आ रहे हैं। मगर मुस्लिम आलिमों का कहना है कि जिस प्रकार हिन्दुओं की धार्मिक गतिविधियों में कोई गैर हिन्दू दखल नहीं दे सकता उसी प्रकार मुसलमानों के मजहबी मामलों में भी किसी गैर मुस्लिम को शामिल नहीं किया जाना चाहिए। जबकि सरकार का मानना है कि वक्फ बोर्डों की सम्पत्ति के रखरखाव व प्रबन्धन में पारदर्शिता आनी चाहिए जिससे इसका उफयोग चन्द लोग ही अपना हित साधने के लिए न कर सकें। निश्चित रूप से भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और हर धर्म का सम्मान करना राज्य का धर्म है अतः मुसलमानों को भी अपनी धार्मिक गतिविधियां संविधान के दायरे में रहते हुए चलाने का पूरा अधिकार है।
भारत में अल्पसंख्यक समुदायों को पूरी छूट है कि वे अपनी संस्कृति के अनुसार अपना जीवन जियें और धार्मिक गतिविधियां भी चलायें। इनमें अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान स्थापित करना भी माना जाता है। परन्तु देश भर में चार लाख से अधिक सम्पत्तियां होने के बावजूद हमें मुसलमानों की केवल तीन-चार ​िशक्षण संस्थाएं ही नजर आती हैं जबकि वक्फ बोर्ड के पास अत्यधिक भू-सम्पत्ति है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय या जामिया मिलिया इस्लामिया अथवा हैदराबाद के शिक्षण संस्थान के अलावा दक्षिण भारत में कुछ मुस्लिम शिक्षण संस्थान जरूर हैं मगर ये अंगुलियों पर ही गिने जाने लायक हैं। इसलिए जरूरी है कि वक्फ की सम्पत्तियों का इस्तेमाल गरीब व दबे-कुचले मुस्लिम समाज के आर्थिक व शैक्षणिक उत्थान के लिए हो। सरकार का उद्देश्य लगता है कि वह वक्फ बोर्डों का लोकतन्त्रीकरण करना चाहती है मगर यह कार्य वक्फ बोर्ड के प्रबन्धन में गैर मुस्लिमों को बैठाये बिना भी उसी प्रकार हो सकता है जिस प्रकार सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक समितियों में होता है।
भारत में पहले से ही इतने मन्दिर-मस्जिद हैं कि इनकी अब और जरूरत महसूस नहीं होती मगर अच्छी व किफायती शिक्षा देने वाले शिक्षण संस्थानों की बहुत जरूरत है। पहले भारत में रिवाज था कि कदीमी सेठ अस्पताल और स्कूल बनावाया करते थे जिससे गरीब लोग उनका लाभ उठा सकें। यदि हम सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को देखें जो मनमोहन सरकार के दौरान मुसलमानों की आर्थिक व शैक्षणिक स्थिति जानने के लिए बनाई गई थी, उसने भी इस ओर इशारा किया था कि वक्फ बोर्डों की सम्पत्ति का इस्तेमाल आम मुसलमान की माली हालत सुधारने के लिए किया जाना चाहिए। मगर वक्फ की सम्पत्ति पर चौकड़ी मारे कुछ लोग इस तरफ बढ़ना ही नहीं चाहते। इस मामले में स्वयं मुस्लिम समाज को ही विचार करना चाहिए कि उनकी आने वाली नस्लों की तरक्की तभी हो सकती है जब वे वैज्ञानिक सोच के साथ उम्दा पढ़ाई-लिखाई करें। वक्फ बोर्ड को इस तरफ सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए मगर उनके धार्मिक मामलों में गैर मुस्लिमों को क्यों शामिल किया जाये? भारत का संविधान उन्हें अपने धार्मिक मामले स्वयं हल करने की इजाजत देता है।

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Aditya Chopra

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