म्हारो प्रणाम बांके बिहारी जी
भगवान कृष्ण की क्रीड़ास्थली श्री वृन्दावन में करोड़ों हिन्दू भक्तों की अटूट आस्था है। यहां स्थित श्री बांके बिहारी जी का मन्दिर इस आस्था का संगम है। मगर मन्दिर के प्रबन्धन व इसके आसपास बनाये जाने वाले कारीडोर को लेकर खासा विवाद उत्पन्न हो गया है। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंच चुका है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार चाहती है कि मन्दिर में आने वाले भक्तों की अपार भीड़ को देखते हुए मन्दिर का प्रबन्धन कुशल हाथों में दिया जाये। इसके लिए राज्य सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर मन्दिर का न्यास गठित करने की व्यवस्था की थी। सरकार ने यह फैसला तब किया था जब सर्वोच्च न्यायालय की ही एक पीठ ने कहा था कि मन्दिर के प्रबन्धन का कार्य एक न्यास मंडल करेगा और उसे श्री बांके बिहारी के नाम से खुले बैंक खातों से धन निकालने का अधिकार होगा। यह न्यास मन्दिर के आसपास की सात एकड़ जमीन खरीद सकेगा मगर वह जमीन श्री बांके बिहारी के नाम पर ही होगी। इसके बाद योगी सरकार ने एक मन्दिर न्यास गठित करने की घोषणा की थी।
विगत दिन सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति सूर्यकान्त व जायमाल्या बागची की पीठ ने इस फैसले को बदलने की बात कही और कहा कि जब तक इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मन्दिर के अध्यादेश सम्बन्धी याचिका पर अन्तिम फैसला नहीं आता है तब तक अध्यादेश पर रोक रहेगी। मगर जहां तक मन्दिर के सुचारू प्रबन्धन का सवाल है तो न्यायालय अवकाश प्राप्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक समिति गठित करेगा जिसमें चुनौती देने वाले गोस्वामी परिवारों के व्यक्ति भी शामिल किये जा सकते हैं। असल में 16वीं सदी में इस मन्दिर के संस्थापक गोस्वामी हरिदास के वंशज गोस्वामी परिवार मन्दिर पर निजी मालिकाना हक मानते हैं और वर्तमान में मन्दिर का प्रबन्धन ये लोग ही चलाते हैं। राज्य सरकार चाहती है कि मन्दिर में बढ़ती भक्तों की भीड़ के मद्देनजर मन्दिर की प्राचीन बनावट को यथावत रखते हुए इसके प्रचीन परिसर के स्थान पर विशाल परिसर बनाया जाये जिससे हर वर्ष करोड़ों की संख्या में आने वाले भक्तगणों को किसी प्रकार की असुविधा न हो। गोस्वामी परिवार के वंशज इसका विरोध कर रहे हैं। वास्तव में हिन्दुओं के मन्दिर किसी की निजी सम्पत्ति नहीं होते हैं बल्कि उन पर पूरे समाज का अधिकार होता है क्योंकि परोक्ष रूप से उनके द्वारा चढ़ाये गये चढ़ावे से ही मन्दिर की आय होती है। सरकार चाहती है कि मन्दिर में श्रद्धा रखने वाले भक्तों की सही से देखभाल के लिए जरूरी है कि कारीडोर बनाया जाये जिससे यात्रियों को मन्दिर में उनके इष्ट देव की पूजा या दर्शन करने का मार्ग सुगम हो सके। इसे देखते हुए ही राज्य सरकार ने अध्यादेश जारी किया था।
मगर शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय ने इस अध्यादेश को निलम्बन में रखने का आदेश दिया और कहा कि वह प्रबन्धन के लिए एक उच्च स्तरीय समिति गठित करेगा जिसमें सरकारी अधिकारी व गोस्वामी परिवारों के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे। न्यायमूर्ति सूर्यकान्त ने तो यहां तक कहा कि वह मई महीने में इसी न्यायालय की एक अन्य पीठ द्वारा पारित उस फैसले को भी वापस लेंगे जिसमें राज्य सरकार को पुनर्विकास कार्यों के लिए मन्दिर कोष से धन निकालने की अनुमति दी गई थी। मन्दिर के कोष में सैकड़ों करोड़ रुपये बताये जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी साफ कर दिया कि वह याचिकाकर्ताओं को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अध्यादेश को चुनौती देने की स्वतन्त्रता भी देता है। फिलहाल यह अध्यादेश तब तक निलम्बित रहेगा जब तक कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय इसकी वैधता के बारे में अपना अन्तिम फैसला नहीं देता है। सर्वोच्च न्यायालय में अध्यादेश की वैधानिकता को चुनौती गोस्वामी परिवारों की ओर से दी गई है। इस मामले में यह स्पष्ट होना चाहिए कि भगवान कृष्ण का बांके बिहारी स्वरूप हिन्दी साहित्य के भक्ति काल से लेकर आधुनिक काल तक में अनुपम माना जाता है। कृष्णभक्त मीरा का यह भजन,
म्हारो प्रणाम बांके बिहारी जी...
भारतीय शास्त्रीय संगीत का अद्वितीय भजन माना जाता है जिसे प्रख्यात शास्त्रीय गायिका स्व. किशोरी अमोनकर ने गाया था। किशोरी जी को उनकी संगीत विधा पर भारत सरकार ने पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया था। इतना ही नहीं कुछ वर्ष पहले तक वृन्दावन में स्वामी हरिदास संगीत सम्मेलन भी हुआ करता था जिसमें किशोरी जी कई बार स्वयं भी उपस्थित हुईं और उन्होंने म्हारों प्रणाम भजन भी गाया। इसके साथ ही भक्ति आन्दोलन के महानायकों में से एक गोस्वामी तुलसीदास की वृन्दावन यात्रा का संस्मरण भी खूब प्रचलित है जिसमें तुलसी दास जी बांके बिहारी जी की मोहक छटा को देखकर मुग्ध तो होते हैं परन्तु अपने भगवान राम के उपासक होने का भाव भी नहीं छिपाते हैं। इसे एक दोहे में इस प्रकार पिरोया गया है,
मोर, मुकुट कटि काछनी
भले लगो हों नाथ
तुलसी मस्तक तब झुके
जब धनुष बाण लो हाथ
अतः बांके बिहारी जी के मन्दिर के प्रबन्धन को लेकर उठा विवाद निश्चित रूप से अप्रिय तो है ही।