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नक्सलवाद : प्रहार और प्रयास

भारत सीमा पार परियोजित आतंकवाद के दंश तो लगातार झेलता आ रहा है लेकिन देश के भीतर भी नक्सलियों के खूनी खेल से बार-बार त्रस्त हुआ है। 25 मई, 1967 को चारू मजूमदार ने सीपीआई (मार्क्सवादी) से अलग होकर पश्चिम बंगाल के जिला दार्जिलिंग के गांव नक्सलवाड़ी में नक्सलवाद की बुनियाद रखी थी।

12:58 AM Nov 18, 2020 IST | Aditya Chopra

भारत सीमा पार परियोजित आतंकवाद के दंश तो लगातार झेलता आ रहा है लेकिन देश के भीतर भी नक्सलियों के खूनी खेल से बार-बार त्रस्त हुआ है। 25 मई, 1967 को चारू मजूमदार ने सीपीआई (मार्क्सवादी) से अलग होकर पश्चिम बंगाल के जिला दार्जिलिंग के गांव नक्सलवाड़ी में नक्सलवाद की बुनियाद रखी थी।

भारत सीमा पार परियोजित आतंकवाद के दंश तो लगातार झेलता आ रहा है लेकिन देश के भीतर भी नक्सलियों के खूनी खेल से बार-बार त्रस्त हुआ है। 25 मई, 1967 को चारू मजूमदार ने सीपीआई (मार्क्सवादी) से अलग होकर पश्चिम बंगाल के जिला दार्जिलिंग के गांव नक्सलवाड़ी में नक्सलवाद की बुनियाद रखी थी। उन दिनों आिदवासी युवा बंगाल और ​बिहार के जमींदारों के जुल्म से बहुत परेशान थे और उन्हें अपनी मुक्ति का एक ही रास्ता नजर आता था कि जमींदारों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया जाए। लिहाजा नक्सलवाद एक ही लक्ष्य को लेकर शुरू हुआ था कि बंदूक के जरिये सत्ता परिवर्तन किया जाए और समतामूलक समाज की स्थापना की जाए लेकिन तब से अब तक गंगा-यमुना में न जाने कितना पानी बह चुका है। 53 वर्ष में नक्सलवादी आंदोलन अपने मकसद से भटक गया और वह आतंक का पर्याय बन कर रह गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि विकास के नाम पर आदिवासियों से जल, जंगल और जमीन छीना गया। उनके जीवन यापन के प्राकृतिक संसाधनों को उजाड़ दिया गया। जो आंदोलन अधिकार प्राप्त करने के लिए शुरू किया गया था, वह लाल खून से रंजित हो गया। सामंतवाद के विरुद्ध भड़की छोटी सी चिंगारी पश्चिम बंगाल, ओडि़शा, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड से लेकर तमिलनाडु तक फैल गई। नेपाल में भी नक्सलवाद पनपा। एक समय था जब कहा जाता था​ कि पशुपति नाथ से ​तिरुपति तक लाल गलियारा स्थापित हो चुका है और नक्सलवाद पर काबू पाना काफी मुश्किल है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकारों की अनदेखी, हमारे सामाजिक तंत्र की खामियां, विकास का अभाव, शोषण, गरीबी, सामाजिक न्याय की इच्छा, भ्रष्ट अफसरशाही और राजनीति ने इस समस्या को उपजने में उर्वरक का काम किया, परन्तु पिछले कुछ दशकों में जो कुछ हुआ, उसने सभी सीमाएं तोड़ दीं। 2007 तक माओवाद का विस्तार देश के 192 जिलों तक हो चुका था, जबकि पूरे देश में लगभग 602 जिले हैं। नक्सली जंगली इलाकों में ट्रेनों का अपहरण करने लगे, जंगलों में जितनी खदानें, उत्पादक इकाइयां, ​बिजलीघर और सरकारी विभागों के दफ्तर हैं, उन सभी से इनके पास धन पहुंचता रहा। जंगल में वनोपज और तेंदु पत्ते के कारोबारी इन्हें लगातार धन देते रहे। कोई समय था कि हर वर्ष नक्सली संगठन के पास 1200 करोड़ की राशि पहुंच जाती थी।
छत्तीसगढ़ का बस्तर इलाका सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित रहा। सुकमा जिला की दरमा घाटी में हुए भीषण नक्सली हमले की घटना आज भी सबको दहशत से भर देती है। इस हमले में वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल, महेन्द्र कर्मा, छत्तीसगढ़ कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल समेत 30 लोगों की मौत हो गई थी। नक्सलवादियों ने हमले कर आम आदमी से लेकर सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतारा। अफसरों का अपहरण कर अपने साथी छुड़वाए, बारूदी सुरंगें बिछाकर दहशत फैलाई। सबसे बड़ा सवाल तो यह रहा कि नक्सलियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में कैसे लाया जाए? क्या अपने ही देश के लोगों के विरुद्ध सेना का इस्तेमाल किया जाए या नहीं। केन्द्र और राज्य सरकारों ने मिलकर एक समन्वित रणनीति पर काम शुरू किया है। धीरे-धीरे नक्सलवाद सिमटने लगा। कई नक्सली कमांडर मारे गए, अनेक ने राज्य सरकारों के प्रयासों से आत्मसमर्पण कर दिया। नक्सलवाद का विस्तार रुक गया लेकिन अभी भी नक्सली ठिकानों को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सका है। गृह मंत्री अमित शाह नक्सलवाद की समस्या से ​निपटने के लिए काफी सक्रिय हैं। उन्होंने अर्धसैन्य बल, आईबी और पांच राज्यों के अधिकारियों के साथ लगातार बैठक कर रणनीति तैयार की है। कई राज्यों में नक्सलियों को खत्म करने के टारगेट बनाए गए हैं। नक्सलियों के खिलाफ आपरेशन प्रहार-3 की योजना बनाई गई है। सबसे ज्यादा ध्यान छत्तीसगढ़ पर केन्द्रित किया जा रहा है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात की। इससे पहले उन्होंने गृहमंत्री को पत्र लिख कर बस्तर सम्भाग में नक्सलवाद को खत्म करने के लिए कुछ सुझाव भी दिए थे। उन्होंने कहा कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर सृजित करने चाहिएं ताकि बेरोजगार विवश होकर नक्सली समूहों में शामिल न हों। बस्तर अंचल में लौह अयस्क प्रचुरता में उपलब्ध है। यदि बस्तर में स्थापित होने वाले स्टील प्लांटों को 30 फीसदी रियायती दरों पर लौह अयस्क उपलब्ध कराया जाए तो इससे जहां करोड़ों का निवेश होगा वहीं हजारों की संख्या में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार के अवसर निर्मित होंगे। कठिन भौगोलिक क्षेत्र होने के कारण वहां ग्रिड से बिजली पहुंचाना आसान नहीं, वहां सौर ऊर्जा को बढ़ावा दिया जाए। मुख्यमंत्री ने यह सुझाव भी दिया है कि वनांचलों में लघु वनोपज, वन औषधियां तथा अनेक प्रकार की फसलें होती हैं। उनके लिए फूड प्रोसेसिंग इकाइयां और कोल्ड चेन निर्मित करने की जरूरत है। आकांक्षी जिलों को लोगों की आजीविका के साधनों के विकास के लिए अलग से अनुदान दिया जाना चाहिए। मुलाकात के बाद गृह मंत्री अमित शाह ने मुख्यमंत्री बघेल  को हर संभव सहायता का आश्वासन दिया। 
इसमें कोई संदेह नहीं कि बस्तर में अब विकास की रोशनी दिखने लगी है। सड़कें और विकास उन जंगलों तक पहुंच रहा है जो नक्सलियों के कब्जे में थे। नक्सलवाद से लड़ाई छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद शुरू हुई। 2005 में बीजापुर से नक्सल विरोधी अभियान सलमा जुडूम की शुरूआत हुई थी। उस दौर में आम नागरिकों और सुरक्षा बलों के जवानों की बहुत हत्याएं हुई थीं। नक्सलवाद से निपटने के लिए जहां एक और प्रहार की जरूरत है, साथ ही मुख्यधारा में लौटने वाले लोगों को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार भी देना होगा। अब सुरक्षा बल उनकी मांद तक जाकर चुनौती दे रहे हैं, वहीं प्रशासन बड़ी समझदारी से लोगों को हथियार छोड़ने के लिए तैयार भी कर रहा है। प्रहारों और प्रयासों से उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द ही नक्सलवाद अस्तित्व खो बैठेगा। बस्तर में जो नक्सली 800 गांवों में जनता सरकार चलाते थे अब वे 200 गांवों में ही रह गया है। कैडर ​बिखर चुका है। युवा पीढ़ी को अगर रोजगार मिल जाए तो फिर कोई नक्सली विचारधारा उन्हें जकड़ नहीं पाएगी।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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