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नक्सलवाद का नासूर

नक्सलवाद किसी भी तरह की कोई क्रांति नहीं बल्कि आतंकवाद का रूप ले चुका है। बेशक यह लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद के इस्लामी आतंकवाद से भिन्न है लेकिन नक्सलवाद सामाजिक- आर्थिक कानूनी टकराव भी करार नहीं दिया जा सकता।

10:35 AM Mar 24, 2020 IST | Aditya Chopra

नक्सलवाद किसी भी तरह की कोई क्रांति नहीं बल्कि आतंकवाद का रूप ले चुका है। बेशक यह लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद के इस्लामी आतंकवाद से भिन्न है लेकिन नक्सलवाद सामाजिक- आर्थिक कानूनी टकराव भी करार नहीं दिया जा सकता।

नक्सलवाद का नासूर
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नक्सलवाद किसी भी तरह की कोई क्रांति नहीं बल्कि आतंकवाद का रूप ले चुका है। बेशक यह लश्कर-ए-तैयबा आैर जैश-ए-मोहम्मद के इस्लामी आतंकवाद से भिन्न है लेकिन नक्सलवाद सामाजिक- आर्थिक कानूनी टकराव भी करार नहीं दिया जा सकता।
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नक्सलवादी शुरू से ही बहुत बड़े भ्रम में रहे कि बंदूक की नली से भारत की सत्ता पर कब्जा किया जा सकता है। बार-बार नक्सलवाद का हिंसक चेहरा सामने आता रहा है तथा केंद्र और राज्य सरकारों ने नक्सलवाद पर काबू पाने में सफलता भी प्राप्त की है लेकिन अपनी रणनीति के मुताबिक जब नक्सलवादी सुरक्षा बलों के आगे कमजोर पड़ते हैं तो वे बिखर जाते हैं और फिर धीरे-धीरे अपनी ताकत जुटाकर हमला कर देते हैं।
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छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलियों के हमले में 17 जवान शहीद हो गए जबकि 14 घायल हैं। डीआरजी-एसटीएफ के जवानों को पहली बार इतना बड़ा नुक्सान हुआ है।
शहीद हुए 17 जवानों में से 12 जवान डीआरजी के हैं। डीआरजी स्थानीय युवकों द्वारा बनाया गया सुरक्षाबलों का एक दल है जो कि नक्सलियों के खिलाफ सबसे अधिक प्रभावी रहा है। जहां एक तरफ पूरा देश कोरोना जैसी महामारी से लड़ रहा है वहीं दूसरी तरफ नक्सलियों ने सुरक्षा बलों पर हमला कर बहुत ही कायराना हरकत की है।
2014 से अप्रैल 2019 के दौरान इसके पहले के पांच वर्षों की तुलना में नक्सली हिंसा से जुड़ी घटनाओं में 43 फीसदी कमी आई। इस दौरान नक्सली हिंसा की दो तिहाई घटनाएं सिर्फ दस जिलों में हुई हैं। 2016-19 के बीच नक्सली हिंसा की घटनाओं में 2013-15 की तुलना में 15.8 फीसदी कमी आई है।
सरकारों की नीतियों के प्रभावी क्रियान्वयन के कारण नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या कम हुई है। नक्सलवादियों के खिलाफ समग्र नीति के तहत सुरक्षाबलों की तैनाती के साथ ही विकास कार्यों पर भी जोर दिया जा रहा है। नक्सली बड़ी संख्या में आत्मसमर्पण भी कर रहे हैं।
अब केवल दस राज्य छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में ही नक्सली चुनौती उत्पन्न करते हैं। 25 मई 1967 को चारू मजूमदार ने सीपीआई (माओवादी) से अलग होकर पश्चिम बंगाल के जिला दार्जिलिंग के गांव नक्सलवाड़ी में नक्सलवाद की बुनियाद रखी थी।
उन दिनों आदिवासी युवा बंगाल और बिहार के जमींदारों के जुल्म से परेशान थे और उन्हें अपनी मुक्ति का एक ही रास्ता नजर आता था कि जमींदारों के खिलाफ सशक्त संघर्ष किया जाए। लिहाजा नक्सलवाद एक ही लक्ष्य को लेकर शुरू हुआ कि बंदूक के जरिये सत्ता परिवर्तन किया जाए।
नक्सलवाद का उद्देश्य सत्ता में आकर समतामूलक समाज की स्थापना करना भी रहा लेकिन तब से अब तक गंगा में काफी पानी बह चुका है लेकिन पांच दशक के अस्तित्व में नक्सलवादी आंदोलन अपने मकसद से अधिक इतना भटक गया है कि वह आतंक का पर्याय बन कर रह गया है।
दंतेवाड़ा, सुकमा और झीरम घाटी नरसंहार कर बार-बार देश को दहलाने वाले नक्सली अब सं​गठित गिरोह बन गए हैं जिनका काम विकास परियोजनाओं के ठेकेदारों से पैसा वसूलना, अपहरण कर फिरौती वसूलना आदि रह गया है। नक्सल प्रभावित इलाकों में कोई भी निजी कंपनी का संचालन आैर खनन कार्य नक्सलवादियों को धन दिये बिना हो ही नहीं सकता।
माओवाद की ​विचारधारा को अपनाने वाले इतने अधिक भटक चुके हैं कि अब वाम मोर्चे में शामिल पार्टियों का भी उन्हें वैचारिक एवं नैतिक समर्थन नहीं मिल रहा। दुनियाभर के कई हिस्सों में नक्सलवाद की विचारधारा को मानने वाले लोगों को इसका वैचारिक आकर्षण और माओ की वो अपील अपनी ओर खींचती है जिसमें अर्ध औपनिवेशिक बुर्जुआ राज्य को उखाड़ फैंकते हुए सर्वहारा राज्य की स्थापना की बात कही गई थी।
भारत में वामपंथी 60 के दशक में अपने जन्म के साथ ही ज्यादातर गांवों तक सीमित रहे लेकिन अब इस विचारधारा के समर्थक शहरों में नजर आने लगे हैं। जब भीमा कोरेगांव मामले में जांच के दौरान महाराष्ट्र पुलिस ने पांच प्रमुख कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया  तो मानवाधिकार संगठन शोर मचाने लगे।
मानवाधिकार संगठनों की भूमिका भी हैरत कर देने वाली है। जब नक्सली जवानों को मौत के घाट उतारते हैं तो इनकी जुबां से एक शब्द नहीं निकलता और जब नक्सली मारेेेेेेेेेेेेेेेेेे जाते हैं तो उनकी नजर में मानवाधिकारों का हनन होता है।
नक्सलवाद का उन्मूलन होना ही चाहिए। केंद्र आैर राज्य सरकारें तालमेल बनाकर नक्सलवाद की जड़ों पर लगातार प्रहार कर रही हैं। नक्सल प्रभावित आदिवासी इलाकों के नागरिकों को न केवल आर्थिक रूप से मजबूत बनाने का अभियान चलाया जा रहा है बल्कि  विकास कार्यों से मुख्यधारा से जोड़कर उन्हें नक्सलियों से दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। इस काम में सफलता भी मिल रही है।
अब जबकि कश्मीर का आतंकवाद काबू में है। अशांत रहने वाले नार्थ-ईस्ट में शांति की बयार बह रही है लेकिन नक्सलवाद का खात्मा करने के लिए अभी लम्बा सफर तय करना होगा।
सुरक्षा बलों को अधिक सावधान रहना होगा।
दुश्मन बैठा घातों में, बहक न जाना बातों में
सिपाही, दुश्मन है मक्कार, छिपाये बैठा है हथियार
करेगा पुनः किसी दिन वार, चुकाने को अपना प्रतिकार
सजग हो शक्तिवान रहना, पहरुए सावधान रहना।





-आदित्य नारायण चोपड़ा
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