पटरी पर लौटता नेपाल
भारत और नेपाल में दो सहोदर भ्राताओं जैसे रिश्ते रहे हैं जिनमें रोटी और बेटी तक का सम्बन्ध रहा है। भारत के स्वतन्त्र होने के बाद इन रिश्तों में और प्रगाढ़ता आयी और दुनिया के एकमात्र हिन्दू राष्ट्र नेपाल के साथ भारत ने अपने अटूट एेतिहासिक सांस्कृतिक रिश्तों को और मजबूत किया। दोनों देशों के बीच सैनिक सम्बन्ध भी इस प्रकार के स्थापित हुए कि नेपाल की सुरक्षा की गारंटी तक भारत ने ली और नेपाली जनता के लिए भारत के द्वार हर तरफ से खोले तथा इसके विकास व प्रगति में अपना पूरा योगदान दिया। जाहिर है कि इनमें आर्थिक रिश्ते भी बहुत महत्व रखते थे, अतः भारत ने नेपाल के समग्र आर्थिक विकास में अपना पूरा योगदान दिया। परन्तु शुरू में राजशाही में चलने वाले नेपाल में 2008 में जब राजशाही का अन्त हुआ और यहां की जनता के उग्र आन्दोलन के स्वरूप नेपाल एक गणतान्त्रिक व धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित हुआ, तो इसका संविधान बनाने में भारत ने पूर्ण सहयोग किया मगर तब तक नेपाल पर चीन का आंशिक प्रभाव भी प्रभावी होने लगा था। अतः गणतान्त्रिक नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टियों का भी प्रभाव बढ़ा।
गणतान्त्रिक नेपाल में कम्युनिस्टों को फलने-फूलने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ मगर ये पार्टियां भारत के साथ इसके अन्तः सम्बन्धों को नहीं तोड़ पाईं। वर्तमान में नेपाल में जो जन आन्दोलन खड़ा हुआ उसे पूरी तरह जनता का स्फूर्त आन्दोलन कहना उचित नहीं होगा क्योंकि इस आन्दोलन के तहत चुन-चुन कर लोकतान्त्रिक संस्थानों पर हमला किया गया और 2015 से लागू नेपाल के संविधान की धज्जियां उड़ाई गईं। इस आन्दोलन में कहीं न कहीं चीन विरोधी शक्तियों की भूमिका भी नजर आती है। क्योंकि नेपाल से पहले बंगलादेश व श्रीलंका में भी हमें यही देखने को मिला। मगर इससे चीन को भी वैधानिकता नहीं मिल जाती है क्योंकि इसने इन तीनों ही देशों में अपना आर्थिक विस्तार करके भ्रष्टाचार को ही कहीं न कहीं बढ़ावा दिया। बंगलादेश में तो वहां की भारत की मित्र शेख हसीना सरकार को उखाड़ा गया और यही हाल श्रीलंका में भी हुआ मगर नेपाल में तो चीन ने अपनी शक्ति का विस्तार राजनीतिक स्तर पर भी बहुत तेजी के साथ किया था। वरना एक जमाने में यहां की प्रमुख राजनीतिक पार्टी नेपाली कांग्रेस ही हुआ करती थी जो राजशाही के दौरान यहां की पंचायत राज प्रणाली की कर्णधार मानी जाती थी। वर्तमान में पिछले कुछ दिनों में नेपाल में जो कुछ भी हुआ है उसे केवल भीषण अराजकता ही कहा जा सकता है जिसमें जनता ने अपने ही बनाये राष्ट्रीय संस्थानों को तहस-नहस किया। अतः भारत के बारे में भी एेसा ही कुछ सोचने वाले लोग न केवल गलती पर हैं बल्कि राष्ट्रद्रोह की बात करते हैं क्योंकि भारत में लोकतन्त्र की जड़ें बहुत गहरी हैं जिन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जमाकर गये हैं।
महात्मा गांधी ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान सबसे ज्यादा जोर व्यक्ति की गरिमा व उसके आत्मसम्मान पर दिया जिससे स्वतन्त्र भारत का वह स्वयं शासक एक वोट के अधिकार के माध्यम से बन सके। इसके साथ ही बापू ने सर्वाधिक जोर अहिंसा पर दिया जिससे किसी भी सूरत में स्वतन्त्र भारत में किसी भी स्तर पर अराजकता पैदा न हो सके। गांधी के देश में यह फार्मूला समय की हर कसौटी पर खरा उतरा है अतः भारत में अराजकता की बात करने वाले लोग भारतीय संविधान की उस ताकत की अनदेखी करते हैं जिसमें प्रत्येक नागरिक को एक समान अधिकार बिना किसी भेदभाव के दिये गये हैं। गांधी के आन्दोलन का प्रभाव नेपाल पर भी न पड़ा हो एेसा नहीं है। वस्तुतः नेपाली कांग्रेस गांधी के आन्दोलन की ही उपज थी जो शान्तिपूर्ण तरीकों से राजशाही के तहत जनता के अधिकारों के लिए लड़ी। वर्तमान में लगातार कई दिनों तक हिंसा करने के बाद नेपाल को क्या मिला? विध्वंस कभी भी किसी राष्ट्र का ध्येय नहीं हो सकता। विध्वंस से केवल नकारात्मकता का ही सृजन होता है जो कि व्यक्ति के विकास में सबसे बड़ी बाधा होती है अतः कुछ दिनों के विध्वंस के बाद नेपाली सेना ने स्थिति को अपने नियन्त्रण में लिया और सामान्य हालात बनाने के प्रयास किये। सवाल पूछा जा सकता है कि जब लगातार दो दिन तक नेपाल की सड़कों पर तांडव हो रहा था तो सेना क्यों चुप थी? इसका उत्तर है कि तब तक नेपाल में लोगों की चुनी हुई के.पी. शर्मा ओली की सरकार सत्ता पर काबिज थी और शासन पर उसी का नियन्त्रण था। सेना ने तभी कमान संभाली जब यह सरकार बेअसर हो गई और प्रशासन पर इसकी पकड़ समाप्त हो गई। इसका निष्कर्ष यह भी निकाला जा सकता है कि नेपाली सेना भी लोकतन्त्र का सम्मान करती है और वह समस्या का हल इसी दायरे में ढूंढना चाहती है। क्योंकि नेपाल के सेना प्रमुख ने स्वयं सत्ता संभालने की बात नहीं कही है बल्कि उन्होंने यहां के राष्ट्रपति को अपने संरक्षण में रखा हुआ है।
नेपाल और बंगलादेश की अराजकता में यही मूलभूत अन्तर है। जैसी खबरें मिल रही हैं उनके अनुसार इस देश की सत्ता प्रमुख देश के सर्वोच्च न्यायालय की प्रधान न्यायाधीश रहीं श्रीमती सुशीला कार्की नई प्रधानमन्त्री हो सकती हैं क्योंकि उनके नाम पर आन्दोलनकारियों में भी सहमति बताई जाती है। हालांकि कुछ और नाम भी हवा में तैरने शुरू हो गये हैं। परन्तु नेपाल की स्थिति को देखते हुए श्रीमती कार्की सर्वश्रेष्ठ चुनाव लगती हैं। जहां तक भारत का सवाल है तो इसकी मंशा नेपाल की स्थिरता के लिए ही हो सकती है क्योंकि एक स्थिर व विकसित नेपाल भारत के हित में है। भारत किसी दूसरे देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है मगर वह इस बात का हिमायती रहता है कि किसी भी देश में सरकार वहां की जनता की इच्छा के अनुरूप ही बननी चाहिए। 2008 में राजशाही के विरुद्ध उपजे आन्दोलन में भी भारत का रुख यही रहा था।