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नेपाल : राजनीतिक ध्रुवीकरण का दौर

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12:02 AM Oct 17, 2017 IST | Desk Team

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भारत के पड़ोसी देश नेपाल में संसदीय चुनावों के दृष्टिगत नेपाली संसद को भंग कर दिया गया है। संवैधानिक प्रावधानों के चलते प्रतिनिधि सदन के चुनाव के लिए उम्मीदवारों के नामांकन भरने से एक दिन पहले ही संसद का कार्यकाल खत्म हो जाता है। वर्ष 2013 के चुनावों के बाद नेपाल में संविधान सभा का गठन किया गया था और 20 सितम्बर 2015 को संविधान लागू होने के बाद संविधान सभा संसद में परिवर्तित हो गई थी। नेपाल में संसदीय चुनाव और प्रांतीय चुनाव एक साथ करवाए जा रहे हैं, इसलिए राजनीतिक ध्रुवीकरण का दौर तेज हो गया है। वाम दलों ने जहां बड़ा गठबंधन बनाया है तो वहीं इनका मुकाबला करने के लिए सत्तारूढ़ नेपाली कांग्रेस छोटे-छोटे दलों से गठजोड़ करने जा रही है। वाम गठबंधन का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रीय जनता पार्टी, फेडरल सोशलिस्ट फोरम, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी और नेपाल लोकतांत्रिक फोरम समेत 5 दलों ने नेपाल कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का फैसला किया है।

पूर्व प्रधानमंत्री के.पी. ओली के नेतृत्व वाली सीपीएन-यूएमएएल, पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल प्रचंड की सीपीएन (माओवादी सैंटर) और बाबूराम भट्टराई के नेतृत्व वाली नया शक्ति नेपाल पार्टी ने बड़े वामपंथी गठबंधन का ऐलान किया है। नेपाल के इस राजनीतिक ध्रुवीकरण के चलते राष्ट्रीय जनमोर्चा, नेपाल वर्कर्स अैर किसान पार्टी जैसे छोटे दल दबाव में आ गए हैं कि वे नेपाली कांग्रेस और वाम गठबंधन में से किस और जाएं। दोनों ही गठबंधन चुनावी नतीजों में बहुत फर्क डाल सकते हैं। अहम सवाल सामने है कि क्या नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का दौर खत्म होगा? क्या जनादेश किसी एक गठबंधन के पक्ष में होगा या फिर जनादेश खंडित होगा? सन् 2008 में राजशाही समाप्त होने के बाद नेपाल में लोकशाही प्रारम्भ तो हुई, किन्तु संविधान सशक्त, समावेशी और त्रुटिरहित नहीं बन पाया।

भारत के लाख सहयोग के बावजूद नेपाल का लोकतंत्र अपने पांवों पर खड़ा नहीं हो पाया। नेपाल का एक धड़ा राजनीतिक अस्थिरता के लिए भारत को दोषी ठहराता रहा और भारत पर नेपाल के अन्दरूनी मामलों में हस्तक्षेप का आरोप लगाता रहा। राजनीति इतनी उलझ चुकी है कि सभी दल ओछी राजनीति में उलझे रहे। नेपाल के साथ भारत के मैत्री सम्बन्ध सदियों पुराने हैं। दोनों देशों में भौगोलिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक कारणों से जुड़ाव है। नेपाल का दक्षिण क्षेत्र भारत की उत्तरी सीमा से सटा है। यह तराई वाला इलाका है जो मधेश के नाम से जाना जाता है। राजनीतिक कारणों से नेपाल के सियासतदानों ने पहाड़ी रहवासियों और तराईवासियों के बीच एक अविश्वास की दीवार खींच दी। संविधान में मधेशियों को दोयम दर्जे का नागरिक करार दिया गया। राजनीतिक अस्थिरता का मुख्य कारण भी यही है। मधेशी भारत के साथ रोटी-बेटी के सम्बन्धों से जुड़े हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री ओली के शासनकाल में नेपाल के साथ भारत के सम्बन्धों पर प्रभाव पड़ा। हिंसा और नाकेबंदी के कारण भारत विरोधी स्वर उठे। भारत-नेपाल सम्बन्ध फिर पटरी पर लौटे। लोकशाही के शुरू होते ही नेपाल में भारत का समर्थन करने वाली और चीन का समर्थन करने वाली सरकारें आती-जाती रहीं। नेपाल की जनता ने इतनी अवधि में 9 प्रधानमंत्री देखे लेकिन राजनीतिक अस्थिरता का दौर खत्म नहीं हुआ। बंदूक की क्रांति से उपजे नेता पुष्प कमल दहल ने पदासीन प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा और उनके दल नेपाल कांग्रेस को उस समय मझधार में छोड़ा था जब उनकी सरकार 26 नवम्बर और 7 दिसम्बर को संघीय और प्रांतीय चुनाव कराने तथा 2015 में तैयार नए संविधान को पूर्ण रूप से लागू करने के लिए मजबूती से कदम उठा रही थी। भारत की नजरें नेपाल के चुनावों पर रहेंगी।

गठबंधनों में सत्ता हथियाने के लिए कड़ा संघर्ष होगा। नेपाली कांग्रेस, सीपीएन (यूएमएल) के बाद दूसरे सबसे बड़े दल के अध्यक्ष ओली ने दावा किया है कि वाम गठजोड़ सामान्य बहुमत से अधिक हासिल करेगा। जबकि दूसरा गठबंधन वाम गठबंधन को अलोकतांत्रिक बता रहा है और कह रहा है कि यह देश को निरंकुशतावाद की तरफ ले जाएगा। राजनीतिक हवा किस ओर बह रही है, इसका पता तो कुछ दिनों में चलेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि नेपाल की जनता राजनीतिक स्थिरता के लिए जनादेश देगी। नेपाल की राजनीति में परिपक्वता आनी ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता है तो नेपाल में अस्थिरता का नया दौर शुरू हो सकता है। तब यह सवाल फिर खड़ा होगा कि नेपाल को क्रांति के बाद क्या हासिल हुआ?

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