परिवारवाद हाशिये पर कब जायेगा?
क्या भारत की राजनीति में परिवारवाद या वंशवाद अब हाशिये पर जाने लगे हैं? बिहार में हुए चुनाव परिणामों का निष्कर्ष हमें ऐसे ही संकेत देता लगता है। राज्य में लालू जी की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को जिस पराजय का मुंह देखना पड़ा है उससे स्वयं लालू जी के परिवार में भी युद्ध जैसा वातावरण बना हुआ है। मगर ध्यान देने वाली बात यह है कि राष्ट्रीय जनता दल के वोटों में गिरावट नहीं आयी है। उनके वोट इन चुनावों में 23 प्रतिशत के आसपास हैं। जबकि भाजपा व नीतीश बाबू की पार्टी जद(यू) के अलग-अलग प्रत्येक को मिले वोट 20 प्रतिशत से कम रहे हैं। इसका मतलब यह निकलता है कि लालू जी का वोट बैंक सुरक्षित है। मगर राज्य के सीमांचल इलाके में असीदुद्दीन ओवैसी की पार्टी इत्तेहाद-ए-मुसलमीन को जो छह प्रतिशत वोट और पांच सीटें मिली हैं , वे जाहिर तौर पर राजद के वोट बैंक के खाते से ही गईं हैं।
पिछले 2020 के चुनावों में भी ओवैसी साहब को ऐसी ही सफलता मिली थी।
इत्तेहाद-ए-मुसलमीन का सीमांचल में पैर जमाने का गुणात्मक असर लालू जी के वोट बैंक पर पड़ेगा। वैसे भी लोकतन्त्र में कभी भी किसी एक वर्ग को राजनीतिक दड़बे में कैद नहीं किया जाना चाहिए। इसकी वजह यह है कि भारत में हर मतदाता की अपनी राजनीतिक सोच होती है जिसके अनुसार वह चुनावों में मतदान करता है। 90 के दशक में मंडल आयोग के लागू होने के बाद बिहार की राजनीति ने करवट बदली थी और लालू व नीतीश को राजनीति में उतारा था जबकि स्व. रामविलास पासवान 1967 से ही राजनिति में सक्रिय थे। बिहार के सन्दर्भ में इन तीन नेताओं की खास अहमियत थी जो कि सामाजिक न्याय की गुहार लगने के बाद से जमीन पर पैर जमाये हुए थे। मगर तीनों ही नेता 1974 के जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में शामिल थे। संभवतः तब नीतीश बाबू इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ रहे थे। सबसे बड़ी बात यह है कि इन तीनों ने ही स्व. चौधरी चरण की पार्टी भारतीय लोकदल (बाद में जनता दल) से अलग होकर अपनी-अपनी पार्टी बनाई और आगे की राजनीति अपनी सुविधा के अनुसार की।
यह सुविधा जाति व सम्प्रदाय के रास्ते से होकर निकली। इनमें स्व. पासवान व लालू जी बहुत आगे निकल गये और इन्होंने अपनी पार्टी की कमान अपने परिवार के भीतर ही रखने की रणनीति अपनाई। मगर क्या एेसा केवल बिहार में ही हो रहा है ? हम अगर नजर दौड़ाएं तो पूरे भारत की यही स्थिति है। दक्षिण भारत में तो हालत और भी ज्यादा खराब है। यहां कि प्रमुख पार्टियों द्रमुक व अन्ना द्रमुक दोनों ही परिवारवाद की चपेट में हैं। द्रमुक फिलहाल तमिलनाडु में सत्ता पर काबिज है जबकि अन्ना द्रमुक विपक्ष में है। द्रमुक को स्व. एम. करुणानि धि के पुत्र स्टालिन चला रहे हैं जबकि अन्ना द्रमुक स्व. जयललिता के नाम पर चल रही है। परन्तु केरल में ऐसी स्थिति नहीं है।
इस राज्य में आज भी राजनीतिक विचारों के आधार पर गठबन्धनों का गठन होता है। यहां वामपंथी गठबन्धन व कांग्रेस नीत लोकतान्त्रिक गठबन्धनों के बीच चुनावी लड़ाई होती है। मगर कर्नाटक में पूर्व प्रधानमन्त्री एच.डी. देवगौड़ा ने अपनी पार्टी जनता दल (एस) की कमान अपने बेटे एच.डी. कुमारस्वामी के हाथ में देने की कोशिश की मगर वह राज्य की राजनीति में हांशिये पर चले गये। इसी प्रकार महाराष्ट्र को देखें तो यहां शिवसेना भी स्व. बाल ठाकरे के परिवार के हाथों में है। हालांकि भाजपा के साथ राज्य की हुक्मरानी कर रही शिवसेना पार्टी मूल शिवसेना से ही निकली है मगर विद्रोही शिवसेना के सर्वेसर्वा उप मुख्यमन्त्री श्री एकनाथ शिन्दे भी स्वयं को स्व. बाल ठाकरे का सैद्धांतिक उत्तराधिकारी बता रहे हैं और स्व. ठाकरे के पुत्र को अयोग्य ठहरा रहे हैं।
इस राज्य की दूसरी प्रमुख पार्टी राष्टवादी कांग्रेस भी परिवारवाद के चक्कर में लगी हुई है। इस पार्टी के सर्वेसर्वा माने जाने वाले श्री शरद पवार जितने बड़े नेता हैं उनकी पार्टी अब उतनी ही छोटी होती जा रही है। इन्होंने भी पार्टी की कमान अपनी पुत्री सांसद श्रीमती सुप्रिया सुले को देने का मन बनाया हुआ है। शिवसेना की तरह इनकी पार्टी भी बीच से दोफाड़ हो चुकी है जिसे इनके भतीजे अजित पवार ने किया। इस प्रकार भारत के लगभग हर प्रमुख राज्य में परिवारवाद की गंगा बह रही है। मगर इन सबसे ऊपर कांग्रेस पार्टी का नाम लिया जा सकता है जिसमें वर्तमान में पूरा गांधी परिवार ही राजनीति में सक्रिय है। कांग्रेस की आलोचना इसलिए होती है कि पिछले लगभग 90 सालों से पार्टी एक ही परिवार के कब्जे में है। मगर इसके लिए गांधी परिवार को दोष नहीं दिया जा सकता है क्योंकि कांग्रेस कार्यकर्ता ही ऐसा चाहते हैं। उनमें किसी अन्य नेता को पार्टी का सर्वेसर्वा बनाये जाने का सख्त विरोध होता है। हम स्व. सीताराम केसरी का हश्र देख चुके हैं। असल में लोकतन्त्र में ऐसी स्थिति तब आती है जब राजनीति व्यापार बन जाती है।
आज भारत भर में अलग- अलग कांग्रेस पार्टियां हैं जो सभी मूल कांग्रेस से अलग होकर बनी हैं। आन्ध्र प्रदेश में पूर्व मुख्यमन्त्री जगन रेड्डी की जो वाईएसआर कांग्रेस पार्टी है वह कांग्रेस से अलग होकर ही बनी। इसी प्रकार श्री शरद पवार भी कांग्रेस से अलग हुए। प. बंगाल में ममता दी की जो तृणमूल कांग्रेस है वह भी कांग्रेस से अलग होकर ही बनी। उत्तर प्रदेश की दमदार समझी जाने वाली समाजवादी पार्टी की कमान स्व. मुलायम सिंह के पुत्र श्री अखिलेश यादव के पास है। पंजाब में अकाली दल की दयनीय हालत स्व. प्रकाश सिंह बादल के परिवार वालों ने ही की। यह सब राजनीति के व्यापार में बदलने का ही परिणाम है। हरियाणा में तो पंजाब से भी ज्यादा बुरी हालत है। इस राज्य में स्व. देवीलाल के वंशजों ने उनकी पूरी पार्टी को ही आपस में बांट लिया। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की मुखिया बहिन मायावती ने तो साफ कर रखा है कि उनके बाद उनकी पार्टी की कमान उनके भतीजे आनन्द के हाथों में ही रहेगी। मगर मध्य प्रदेश वंशवाद से अछूता रहा है। यहां भी कई बार पूर्व में ऐसे प्रयोग हुए मगर वे सफल नहीं रहे। ठीक ऐसी ही स्थिति राजस्थान की भी रही है। मगर यहां दूसरी समस्या है। वह पूर्व राजे-रजवाड़ों की है।
इन पूर्व महाराजाओं या राजकुंवरों का अपनी-अपनी पूर्व रियासत के लोगों पर खासा प्रभाव अभी तक बना हुआ है जिसके दबाव में आम मतदाता आ जाता है। यहां वंशवाद की समस्या है। बिहार के चुनाव परिणामों ने क्या वंशवाद या परिवारवाद की राजनीति को समेटने का इन्तजाम बांधा है। निश्चित रूप से हम इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। इसकी वजह यह है कि भारत के लगातार विकसित होते जाने के बावजूद चारों ओर गरीबी भी कम नहीं है। लोकतन्त्र में जब लोग अतीत से चिपके रहते हैं तो आधुनिक विकास दम तोड़ने लगता है। इस व्यवस्था में नागरिकों को आधिकाधिक पढ़ा-लिखाकर ही योग्य बनाया जाता है। जिससे वे अपने अधिकारों व कर्त्तव्यों के प्रति सजग रहें। मगर यह भी तय है कि भारत से परिवारवाद का मर्ज दूर होगा। यह मर्ज ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों के भीतर के झगड़ों से ही दूर हो सकता है। जिस प्रकार एक किसान की जमीन उसकी अगली पीढि़यों में बंट-बंटकर छोटी होती जाती है उसी प्रकार राजनीतिक विरासत भी हल्की होती जाती है।
आन्ध्र प्रदेश में श्री जगन रेड्डी की लड़ाई अपनी सगी बहिन शर्मीला के साथ है महाराष्ट्र में दोनों शिवसेनाओं व राष्ट्रवादी कांग्रेस के भीतर झगड़ा होने से ही इस पार्टी का वोट बैंक टूटा। दूसरा सबसे महत्वूर्ण कारण यह है कि प्रधानमन्त्री मोदी ने राजनीति के मुख्य कारक ही बदल डाले हैं । वह जिस प्रकार लोगों का मनोविज्ञान प्रभावित करते हैं उससे मतदाता भाजपा की तरफ खिंचा चला आता है। भाजपा का विस्तार बताता है कि विभिन्न राज्यों में जातिगत या क्षेत्रीय आधार पर बने राजनीतिक दल अपनी जमीन छोड़ रहे हैं। लोगों में यह बात घर कर चुकी है कि राजनीतिक दल पुश्तैनी ‘परचून’ की दुकान नहीं होते।