नए साल की सबसे बड़ी चुनौती
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एक और नया साल आ गया है और हम हिन्दोस्तानी ऐसे मोड़ पर आकर खड़े हो गए हैं जिसमें हमें अपने भविष्य का चुनाव करना है। हर तरफ यही शोर है कि 2019 में लोकसभा चुनावों के नतीजे क्या होंगे? यह बहुत वाजिब सवाल है जिसका सम्बन्ध खेतों में काम करते हर किसान से लेकर सीमा पर लड़ते जवान से है और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई करते नौजवान से है। इस देश की राजनीतिक पार्टियों के लिए ये सवाल टेढ़े हो सकते हैं मगर आम आदमी के लिए बहुत सीधे-सादे और सपाट हैं क्योंकि वह देख रहा है कि ये सियासी पार्टियां ही हैं जो उसे मंजिल तक पहुंचने से पहले ही इस तरह भटकाना चाहती हैं कि वह अपना रास्ता ही भूल जाए।
मगर आजाद भारत का इतिहास गवाह है कि आम मतदाता जब इरादे कर लेता है तो आसमान में भी सुराख करने से उसे कोई ताकत नहीं रोक सकती लेकिन ये राजनीतिक दल ही होते हैं जो उसके इरादों को नाकाम करने के लिए अपने भीतर ही चिंगारियां पैदा करके उन शोलों को हवा देते हैं जिनमें मतदाता के ख्वाब जल कर स्वाहा हो जाएं। आज ऐसा वक्त है जिसमें हर कांग्रेसी को अपनी छाती पर हाथ रख कर सोचना चाहिए कि मध्यप्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में जिस तरह ग्वालियर रियासत के पूर्व रजवाड़े के शासक के वंशज ने लोगों के जनादेश की धज्जियां उड़ाने की कसम खा रखी है क्या उसका असर 2019 के लोकसभा चुनावों पर नहीं पड़ेगा? लोकतन्त्र में उस पार्टी का भविष्य कभी उज्ज्वल नहीं रह सकता जिसके अपने भीतर ही अपनी हुक्मरानी जनता की इच्छा के ऊपर गालिब करने वाले लोग बैठे हों।
जिस तरह इस राज्य में नए–नए बने कुछ मन्त्री अपनी वफादारी पूर्व ग्वालियर रियासत के हुक्मरान को ‘श्रीमन्त साहब’ कह कर दिखा रहे हैं और अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राहुल गांधी तक को बेपरवाह नजरों से देख रहे हैं उसे देख कर यही लगता है कि मध्यप्रदेश का वह हिस्सा लोकतान्त्रिक भारत से अलग है जिसे 1947 से पहले ग्वालियर रियासत के नाम से जाना जाता था। क्या इस राज्य में हाल में ही हुए चुनावों में ग्वालियर इलाके के लिए अलग से जनादेश दिया है जिसकी वजह से इस क्षेत्र के मंत्रिमंडल में शामिल कांग्रेसी विधायक बजाय भोपाल में स्थापित लोकतान्त्रिक सत्ता के ग्वालियर घराने के राजसिंहासन के सामने नतमस्तक हो रहे हैं?
मध्यप्रदेश की राजनीति एक ऐसा उदाहरण है जो इस देश की ऐसी सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी की मौजूदा दौर में हालत बयान करती है कि इसके पुरखों ने देश की आजादी के लिए जिस तरह रियासती चंगुल में बेदम होती जनता के अधिकारों के लिए अंग्रेज हुकूमत के सामने अपने ताज पेश करने वाले राजा-महाराजा और नवाबों के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी थी, उसकी हालत आज क्या हो गई है? मगर कमोबेश एेसी हालत दूसरी पार्टियों की भी है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। दरअसल नए साल में यह अहद जरूरी है कि लोकतन्त्र से उन ताकतों का सफाया हो जिन्होंने इसे आधुनिक ‘राजतन्त्र’ में परिवर्तित करने में कोई कसर नहीं उठा रखी है।
मगर यह कार्य प्रतीकों से नहीं किया जा सकता इसके लिए उस आम इंसान के हाथ में ताकत देना जरूरी है जिसे मतदाता कहा जाता है और यह काम खैरात बांट कर नहीं बल्कि संवैधानिक अधिकार देकर उसे सशक्त बना कर ही किया जा सकता है मगर हम तो उसे इस तरह भटका देना चाहते हैं कि वह इसी बहस में गुम हो जाए कि ईश्वर बड़ा है या अल्लाह इतना ही नहीं बल्कि हनुमान जी को भी हम जातियों में बांट देना चाहते हैं और शहरों को भी हिन्दू–मुसलमान में विभक्त कर देना चाहते हैं और भ्रष्टाचार जैसे मामले पर सियासी प्रतियोगिता पैदा कर देना चाहते हैं लेकिन ये सब एक सिलसिला है जो हमें बता रहा है कि किस तरह हमारे ही लोगों ने हमें लूटने का जाल बिछा रखा है। जब सब कुछ वैसा ही रहता है जैसे पहले था तो सियासत का दस्तूर है कि पुराने जख्मों के हरा करने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। मैंने कांग्रेस पार्टी का ऊपर जो उदाहरण दिया है वह इसी बात का प्रमाण है कि आम लोगों के बाअख्तियार होने से घबराई हुई पुरानी ताकतें किस तरह लोगों के वोट की ताकत को ही बेअसर करती हैं।
इसे पार्टी के भीतर की गुटबाजी तक सीमित नहीं रखा जा सकता क्योंकि कांग्रेस का पुराना इतिहास बताता है कि किस तरह पं. जवाहर लाल नेहरू से लेकर स्व. इंदिरा गांधी ने पुराने राजे–रजवाड़ों को लोकतन्त्र की हदों में इस तरह बान्ध दिया था कि उन्हें जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के सामने जाकर सिर झुकाना पड़ता था परन्तु यह तस्वीर का एक पहलू है। हमारे लोकतन्त्र में ही जातिवाद के नाम पर नए रजवाड़े पैदा हो चुके हैं जो जनता के वोट की ताकत को ब्लैंक चेक बना कर उसकी खुलेआम नीलामी करते हैं। इन ताकतों की मिलीभगत रूढ़ीवादी शक्तियों के साथ इस प्रकार रहती है कि देश में सामाजिक शान्ति की जगह हिंसक संघर्ष का वातावरण बने।
उत्तर प्रदेश में गाजीपुर में जिस तरह एक पुलिस कांस्टेबल की हत्या एक विशेष जातिगत राजनीतिक दल के समर्थकों ने की वह इसी का प्रमाण है। इसका सम्बन्ध केवल कानून-व्यवस्था से जोड़ कर देखना बुद्दिमत्ता नहीं होगी बल्कि यह सत्ता की शतरंज की ऐसी बिसात है जिससे मतदाताओं को कबीलों में बांटा जा सके। उत्तर प्रदेश की राजनीति की पिछले 25 सालों से यही त्रासदी है। अतः राष्ट्रीय धरातल की राजनीतिक सोच को सतह पर लाना 2019 में सबसे बड़ी चुनौती होगी क्योंकि केवल इसी के जरिये हम भारत की ज्वलन्त राष्ट्रीय समस्याओं का हल जनता से ताकत लेकर कर सकते हैं। आज नववर्ष है। आईए बीत गए वर्ष को अलविदा कहें और नववर्ष का स्वागत करें। पंजाब केसरी के सुधि पाठकों को नववर्ष की बहुत-बहुत बधाई।