औरंगजेब की कब्र नहीं, भविष्य के गर्भ में छिपे ‘और-रंग’ देखें!!
इतिहास केवल अतीत को स्मरण करने का माध्यम नहीं होता, वह वर्तमान को दिशा…
इतिहास केवल अतीत को स्मरण करने का माध्यम नहीं होता, वह वर्तमान को दिशा देने और भविष्य को आकार देने का एक सशक्त औजार होता है। भारत का इतिहास, विशेषकर मध्यकालीन इतिहास, अत्याचारों, धर्म विरोधी कृत्यों और सांस्कृतिक संहार की लंबी परछाइयों से भरा हुआ है। औरंगज़ेब जैसे शासकों ने इस देश की आत्मा पर जो घाव दिए, वे आज भी हमारे राष्ट्रीय मानस में टीसते हैं। किंतु इस सत्य को स्वीकारते हुए, यह भी आवश्यक है कि हम उन घावों को केवल कुरेदते न रहें, बल्कि उनसे सीखकर एक सकारात्मक, सशक्त और सांस्कृतिक रूप से स्वाभिमानी राष्ट्र की दिशा में आगे बढ़ें।
औरंगज़ेब की क्रूरता, उसकी मज़हबी कट्टरता और उसके शासन की साम्प्रदायिक नीतियां हमारे सामने एक गहरी सीख छोड़ती हैं। वह यह कि जब भी सत्ता का उपयोग जनता के हितों की उपेक्षा कर किसी एक विचारधारा, एक पंथ या एक मत के विस्तार के लिए किया जाता है, तो वह सत्ता केवल विनाश को जन्म देती है। औरंगज़ेब का शासनकाल इसका जीता-जागता प्रमाण है। उसके द्वारा किए गए मंदिर विध्वंस,
हिंदू त्यौहारों पर पाबंदियां, संस्कृत विद्वानों का उत्पीड़न, और जबरन धर्मांतरण जैसी घटनाएं न केवल क्रूरता का प्रतीक हैं, बल्कि भारतीय सभ्यता के सहिष्णु और बहुधर्मी चरित्र पर भी आघात करती हैं। फिर भी, औरंगज़ेब की निरंतर आलोचना करते रहना ही क्या पर्याप्त है? क्या यह हमें वर्तमान की समस्याओं से उबार सकेगा? क्या यह आने वाले समय में भारत को एक विकसित, आत्मनिर्भर और वैश्विक शक्ति के रूप में स्थापित कर सकेगा? इन प्रश्नों पर विचार करना आज की आवश्यकता है। हमें यह स्वीकारना होगा कि अतीत की स्मृति आवश्यक है, परंतु उसमें उलझे रहना राष्ट्रीय ऊर्जा का अपव्यय है। इतिहास हमें चेताता है, किंतु वह हमारे लिए कर्म-पथ नहीं बन सकता। औरंगज़ेब के अतीत में लिपटे रहना हमारी वर्तमान संभावनाओं को कुंठित करता है।
हमारी पीढ़ी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह नहीं है कि हम औरंगज़ेब जैसे अत्याचारियों की कितनी आलोचना करते हैं, बल्कि यह है कि हम उससे आगे बढ़कर कैसी राष्ट्रीय संरचना तैयार करते हैं जो ऐसी शक्तियों को भविष्य में फिर से पनपने न दे। औरंगज़ेब की नीतियों ने भारतीय एकता को तोड़ने का कार्य किया, लेकिन आज हमें ऐसी नीतियाँ बनानी हैं जो विविधता में एकता को पोषित करें, भारतीय मूल्यों की रक्षा करें, और हमारे बच्चों को इस गौरवशाली संस्कृति से जोड़ें। औरंगज़ेब का नाम लेना आज भी हमारे समाज में घृणा और आक्रोश का कारण बनता है, और यह स्वाभाविक भी है। उसकी क्रूरताएं, उसकी विभाजनकारी नीतियां और उसकी कलाओं के पीछे छिपा धार्मिक एजेंडा किसी भी समझदार भारतीय को चिंतित करता है। पर क्या हम अपने बच्चों को केवल औरंगज़ेब की कहानियां सुनाकर एक रचनात्मक राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं? हमें आज शिवाजी और संभाजी जैसे युगपुरुषों के विचारों को आत्मसात करना होगा। हमें उन लोगों की परंपरा को जीवित रखना होगा जिन्होंने औरंगज़ेब जैसे अत्याचारियों के विरुद्ध हिंदवी स्वराज की स्थापना की थी।
इतिहास में औरंगज़ेब को केवल इसलिए याद नहीं रखा जाना चाहिए कि उसने कितने मंदिर तोड़े, या कितने धर्मांतरण कराए, बल्कि इसलिए याद रखा जाना चाहिए कि उसने हमें यह सिखाया कि अगर हम सतर्क न रहें, अगर हम अपनी संस्कृति और अस्मिता की रक्षा के लिए एकजुट न हों, तो कैसे कोई सत्ता धर्म के नाम पर विनाश का मार्ग अपना सकती है। वह स्मृति एक चेतावनी के रूप में आवश्यक है, पर उस चेतावनी को लेकर हमें भविष्य के लिए योजनाएं बनानी होंगी, न कि उस अंधकार में खो जाना होगा।
आज भारत को एक नई भूमिका में देखा जा रहा है। वैश्विक मंच पर भारत की स्थिति सशक्त हो रही है। विज्ञान, तकनीक, शिक्षा, सैन्य, अंतरिक्ष, आयुर्विज्ञान – हर क्षेत्र में भारत प्रगति कर रहा है। ऐसे में अगर हम अपने राष्ट्रीय संवाद को केवल औरंगज़ेब की आलोचना तक सीमित रखें, तो यह हमारी ऊर्जा का अपव्यय होगा। हमें अपने युवाओं को औरंगज़ेब के अन्यायों की जानकारी देनी चाहिए, लेकिन साथ ही यह भी सिखाना चाहिए कि उनसे आगे बढ़कर कैसे एक समरस, शक्तिशाली और सांस्कृतिक रूप से संपन्न राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है। आज भी कुछ शक्तियां हैं जो औरंगज़ेब की विरासत को पुनर्जीवित करने का प्रयास करती हैं-चाहे वह शिक्षा के माध्यम से हो, इतिहास के विकृतिकरण द्वारा हो, या राजनीतिक समर्थन द्वारा। उनका विरोध करना हमारा नैतिक दायित्व है। पर इस विरोध को केवल प्रतिक्रिया तक सीमित न रखें -इसे एक रचनात्मक आंदोलन बनाएं। हमारे विद्यालयों में बालकों को हिंदू दर्शन, संस्कृति, इतिहास, और भारत की परंपरा से जोड़ना चाहिए। आधुनिकता के साथ-साथ सांस्कृतिक चेतना का संचार करना चाहिए।
हमें ऐसे संस्थान खड़े करने होंगे जो न केवल इतिहास के अन्यायों को उजागर करें, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह सिखाएं कि उन्हें दोहराना नहीं है। औरंगज़ेब के शासनकाल की तरह एक भी कालखंड फिर इस धरती पर न लौटे-इसके लिए हमें शिक्षित, संगठित और संस्कारित समाज चाहिए। और वह केवल नकारात्मक आलोचना से नहीं बनता, बल्कि सकारात्मक निर्माण से बनता है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि औरंगज़ेब जैसे शासक को भूलना नहीं चाहिए, लेकिन उसे केंद्र में रखकर ही संवाद करना, उसका नाम बार-बार दोहराना, एक प्रकार की मानसिक गुलामी जैसा है। जैसे मुग़लों ने वास्तुशिल्प, संगीत या शिलालेखों के माध्यम से सत्ता को स्थायित्व देने का प्रयास किया, वैसे ही आज की भारतीय चेतना को आत्मबल, सांस्कृतिक गौरव और नवचेतना के द्वारा स्थायित्व देना होगा।
हमें औरंगज़ेब की आलोचना करते हुए भी, अपनी ऊर्जा का अधिकतम भाग राष्ट्र-निर्माण में लगाना होगा। गांव से लेकर शहर तक, विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक, सामाजिक संगठनों से लेकर सरकारी नीतियों तक -सबका केंद्र बिंदु यही होना चाहिए कि अगली पीढ़ी ऐसी हो जो औरंगज़ेब जैसी विभाजनकारी शक्तियों को पहचान सके और उनका प्रतिकार कर सके। कला, साहित्य, संगीत, शिक्षा, मीडिया -हर क्षेत्र में हमें सांस्कृतिक पुनर्जागरण का बीज बोना है। एक ऐसा भारत निर्मित करना है जो न केवल तकनीकी रूप से सशक्त हो, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी जागरूक हो। भारत को वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के साथ विश्व पटल पर एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत करना है।
हमें अपने बच्चों को केवल यह नहीं बताना कि औरंगज़ेब कितना अत्याचारी था, बल्कि यह भी बताना है कि शिवाजी और संभाजी जैसे महानायक किस महान मूल्य की रक्षा कर रहे थे। हमें यह स्मरण कराना है कि उन्होंने केवल एक शासक के विरुद्ध युद्ध नहीं लड़ा, बल्कि उन्होंने भारतीय आत्मा की रक्षा की थी। इसलिए, अब समय है कि हम औरंगज़ेब की स्मृति को केवल एक चेतावनी की तरह याद रखें, और अपने संवाद, योजनाओं, नीतियों और प्रयत्नों का केंद्र भविष्य को बनाएं। वह भविष्य जिसमें भारत न केवल आर्थिक और तकनीकी दृष्टि से महान बने, बल्कि सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी विश्व का मार्गदर्शक बने।
लेखक श्री अरविंद महाविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में सहायक प्राध्यापक है)