W3Schools
For the best experience, open
https://m.punjabkesari.com
on your mobile browser.
Advertisement

इन्तकाम नहीं इंसाफ ही कानून

अपराधी को अपराध करने से डर लगे इसीलिए कानून बनाया जाता है और सभ्य समाज की संरचना के लिए कानून का शासन होना जरूरी माना जाता है।

04:16 AM Dec 09, 2019 IST | Ashwini Chopra

अपराधी को अपराध करने से डर लगे इसीलिए कानून बनाया जाता है और सभ्य समाज की संरचना के लिए कानून का शासन होना जरूरी माना जाता है।

इन्तकाम नहीं इंसाफ ही कानून
Advertisement
इन्तकाम या बदला लेने के लिए किये गये कार्य को यदि हम इंसाफ मानते तो समाज में जुल्म करने वाले ‘जुल्मी’  की सरेआम हत्या करने वाले व्यक्ति के ‘डाकू’ बनने की प्रक्रिया को न्यायिक कवच मिला होता परन्तु उल्टे ऐसे व्यक्ति के कृत्य को न्यायिक समीक्षा के दायरे में लाकर अदालतें इंसाफ सुनाती हैं। ‘खून का बदला खून’ यदि न्याय होता तो कानून में आत्म रक्षार्थ किये गये खून अर्थात हत्या को जीवन जीने के मौलिक अधिकार के क्षेत्र में क्यों रखा जाता? परन्तु कानून आत्म रक्षार्थ किये गये खून या हत्या के लिए वे सारे सबूत मांगता है जिनकी वजह से व्यक्ति हत्यारा बनने को मजबूर होता है।
Advertisement
इंसाफ और इन्तकाम में बुनियादी फर्क यह होता है कि इंसाफ जुल्मी और जुल्म सहने वाले दोनों व्यक्तियों की  नीयत को देख कर किया जाता है और इन्तकाम सिर्फ ‘जुल्मी’ के काम को देख कर हाथोंहाथ कर दिया जाता है। इसमें पर पीड़ा में सुख की अनुभूति इंसान की इंसानियत को उसी तरह खत्म कर देती है जिस तरह उस पर जुल्म करने वाला व्यक्ति आदमी से जानवर बन कर जुल्म करता है।
Advertisement
जुल्म से तंग आकर जब कोई व्यक्ति स्वयं जुल्मी बनने का फैसला लेता है तो उसकी नीयत इंसाफ से भटक कर दूसरों पर जुल्म ढहाने की हो जाती है जिसकी वजह से उसका काम ‘इन्तकाम’ बन जाता है और तब दोनों ही पक्षों में वह भेद खत्म हो जाता है जिसके आधार पर न्याय या इंसाफ का फैसला किया जा सके। इंसाफ दोनों ही पक्षों को अपनी सफाई पेश करने की छूट देता है जिससे किसी भी गैर कानूनी काम के करने की वजह का पता लगाया जा सके और उसके बाद निर्णय दिया जा सके कि असली गलती किसकी थी।
महात्मा गांधी ने दुनिया के इतिहास का अवलोकन करने के बाद ही यह कहा होगा कि यदि ‘आंख के बदले आंख निकालने को हम इंसाफ कहेंगे तो एक दिन पूरी दुनिया ही अंधी हो जायेगी’ परन्तु अपराध रोकने के लिए समाज में डर का माहौल बनाना भी जरूरी होता है। अपराधी को अपराध करने से डर लगे इसीलिए कानून बनाया जाता है और सभ्य समाज की संरचना के लिए कानून का शासन होना जरूरी माना जाता है। कानून का पालन करके ही कोई भी समाज अनुशासित रह सकता है और अनुशासन की वजह से ही अपराधी के मन में डर व्याप्त रहता है।
इस खौफ को बनाये रखने के लिए ही पुलिस की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। पुलिस का काम सभ्य समाजों के देश में खुद इंसाफ करना नहीं होता बल्कि अपराधी को इंसाफ के सामने पेश करने का होता है। अपराधी के काम से पीड़ित व्यक्ति को जल्दी से जल्दी न्याय मिले इसके लिए पुलिस को ही मुस्तैद होकर काम करना पड़ता है और उन प्रक्रियाओं को पूरा करना होता है जिनके होने से न्याय के मन्दिर में जल्दी से जल्दी फैसला सुनाया जा सके। कुछ लोग गलतफहमी में हैं जो यह सोचते हैं कि न्याय पाने में देरी होने के लिए अदालतें खुद जिम्मेदार होती हैं।
यह ‘अर्ध सत्य’ है क्योंकि पुलिस की तरफ से प्रक्रिया पूरी होने पर कोई भी अदालत सम्बन्धित मुकदमे में आगे की तारीख नहीं दे सकती। बेशक इसमें भी कई प्रकार की विसंगतियां हैं परन्तु वे ऐसी नहीं हैं जिन्हें व्यवस्था दूर न कर सके। इस तरफ अभी तक राजनीतिक व्यवस्था का ध्यान नहीं गया है, ऐसी बात नहीं है बल्कि असलियत यह है कि राजनीतिक व्यवस्था स्वयं इस न्यायिक व्यवस्था का लाभ लेने लगी है।
राजनीति में अपराधी प्रवृत्ति के लोगों का जैसे-जैसे दखल बढ़ा है वैसे-वैसे ही इस तरफ से राजनीतिक व्यवस्था लापरवाह होती रही है वरना 1969 में जब उत्तर प्रदेश में किसान नेता स्व. चौधरी चरण सिंह ने अपनी नई पार्टी ‘भारतीय क्रान्ति दल’ की स्थापना की थी तो उसके घोषणा पत्र में न्यायिक सुधारों को रखा था और विशेष रूप से निचले स्तर की न्यायिक प्रणाली में आमूलचूल सुधारों को जरूरी बताया था। चौधरी साहब का यह जमीन से जुड़े होने का प्रमाण था कि किस प्रकार भारतीय समाज में अपराध तन्त्र अब से लगभग 50 वर्ष पूर्व अपनी जड़ें जमा रहा था।
हालांकि इसका कारण विरासत में मिली वह न्यायिक प्रणाली ही थी जो अंग्रेजों ने हमें सौंपी थी परन्तु फिर भी चौधरी साहब इसमें आधारभूत परिवर्तन चाहते थे। अब पचास साल बाद जब 2019 में हम समाज की स्थिति देखते हैं तो ‘इन्तकाम के इंसाफ’ बनने की नौबत में पहुंच जाते हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री शरद अरविन्द बोबडे़ का यह बयान पत्थर की लकीर समझा जाना चाहिए कि न्याय कभी भी ‘तुरन्त तैयार’ ‘इंस्टैंट’ नहीं हो सकता अर्थात वह हाथोंहाथ नहीं किया जा सकता और न्याय कभी भी बदले की भावना के साथ नहीं किया जा सकता।
प्रतिशोध या इन्तकाम और इंसाफ में यही मूलभूत अन्तर होता है। हमें सोचना चाहिए कि हम समाज को किस तरफ ले जाना चाहते हैं। बदला तो स्वयं में न्याय की अवमानना से बेपरवाह कृत्य होता है। अतः वह इंसाफ कैसे हो सकता है?
Advertisement
Author Image

Ashwini Chopra

View all posts

Advertisement
Advertisement
×