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अब कथावाचकों पर भी विवादों के सिलसिले

03:46 AM Jul 07, 2025 IST | Dr. Chander Trikha

किसी भी विषय को लेकर विवादों का सिलसिला धीरे-धीरे हमारे देश में ‘राष्ट्रीय हॉबी’ बनाता जा रहा है। कई बार ऐसा भी लगता है कि देश के कुछ मीडिया-संस्थान व कुछ ‘बैठे ठाले’ नेतागण, विवादों का उत्पादन करने में ही व्यस्त रहते हैं। ‘विवादों’ के सिलसिले धीरे-धीरे एक धंधा बनते जा रहे हैं। वैसे यह भी तय है कि कोई भी विवाद 48 घंटे तक ही बना रहता है। नया विवाद कथावाचन पर है।
इन दिनों ‘कथावाचन’ ज्ञान-प्राप्ति का साधन मात्र नहीं रहा। कुछेक कथावाचकों का तो शुल्क ही 12 लाख से 20 लाख रुपए तक तय है। मगर इस शुल्क के साथ जाति का सवाल पहले नहीं था। चलिए थोड़ा सा कथावाचन की परंपरा पर भी दृष्टि डाल लेते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार भारतीय परिवेश में महर्षि वेद व्यास पहले कथावाचक थे। वह महर्षि पाराशर और मल्लाह-पुत्री सत्यवती के पुत्र थे। उन्हें ही महाभारत और श्रीमद्भागवत का रचनाकार माना जाता है। मान्यता यही है कि संसार में सबसे पहले गणेश जी ने कथा सुनी थी और उसे लिपिबद्ध भी किया था। उन्हें ब्रह्माजी के आदेश पर महर्षि वेद व्यास ने कथा सुनाई थी। वैसे पौराणिक कला में ऋषि-मुनि अपने आश्रमों में या वनों में अपने शिष्यों को कथा सुनाते थे। तब कथा का उद्देश्य ‘लोक कल्याण’ होता था। उसके लिए ऋषि-मुनि कोई शुल्क भी नहीं लेते थे।
अब कथावाचन ‘इवेंट मैनेजमेंट’ का एक विषय है। भव्य मंडप सजते हैं। कथावाचकों के शुल्क इन ‘इवेंट्स’ के बजट का मुख्य भाग होते हैं। इस समय प्रचलित जानकारी के अनुसार, पूर्व राजनीतिज्ञ कुमार विश्वास सबसे महंगे कथावाचक माने जाते हैं। अन्य चर्चित एवं महंगे कथावाचकों में स्वामी अवधेशानन्द जी, बागेश्वर-धाम के बाबा धीरेंद्र कुमार शास्त्री, पंडित देवकीनंदन कुमार, आचार्य अनिरुद्धाचार्य, मोरारी बापू, भोले बाबा उर्फ नारायण साकार, देवी जया किशोरी, देवी चित्रलेखा, संत रामपाल, श्री प्रदीप मिश्रा आदि का नाम शामिल है। अब थोड़ी चर्चा ‘व्यास पीठ’ के बारे में भी। यह पीठ उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में नैमिषारण्य तीर्थ पर स्थित है। यहीं पर महर्षि वेद व्यास ने महाभारत की रचना की थी। वहीं व्यास को समर्पित एक मंदिर भी है।
हाल ही का विवाद कथावाचकों की जाति को लेकर आरंभ हुआ है। इस समय में इटावा के कथावाचकों के मामले में उत्पन्न विवाद मीडिया में भी और राजनैतिक दलों में भी चर्चा एवं आरोपों-प्रत्यारोपों तक जा पहुंचा है। इटावा में यादव जाति से आने वाले आचार्य मुकुट मणि यादव और संत सिंह यादव का आरोप है कि उनके ब्राह्मण यजमान ने जाति के आधार पर उनसे मारपीट की। तब से यह बहस जारी है कि कथावाचन का अधिकार किसे है। काशी की विद्वत परिषद सरीखी संस्था का कहना है कि भागवत कथा सुनने, सुनाने का अधिकार सभी हिन्दुओं को है, जबकि इन दिनों खबरों में छाए शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का कहना है कि ‘सभी जातियों को कथा सुनाने का अधिकार केवल ब्राह्मणों के पास है मगर किसी भी जाति का व्यक्ति अपनी जाति के लोगों को भागवत कथा सुना सकता है।’
अब इस विवाद में समाजवादी पार्टी के नेतागण भी सक्रिय हो गए हैं। राजनैतिक तंदूर गर्म हो चुके हैं। राजनीति की रोटियां सेंकने की तैयारी भी पूर्ण हैं। कुछेक कथावाचक यादव हैं तो कुछेक दलित भी। अधिक छानबीन चली तो हो सकता है एकाध मुस्लिम भी नाम बदलकर इस सूची में शामिल दिखे। मगर यह तो तय है कि कभी कांवड़ यात्रा को लेकर तो कभी धर्म-परिवर्तन को लेकर विवादों के बवंडर उठते रहते हैं। अगले चुनावों में इनके से कुछ कथावाचकों को चुनाव-प्रचार में उतारने की योजनाएं भी चल रही हैं। कोई बड़ी बात नहीं कि कुछेक कथावाचकों को चुनावी मैदान में प्रत्याशी के रूप में भी उतार दिया जाए।
वैसे यह तथ्य भी कम दिलचस्प नहीं कि कुछ कथावाचकों के अपने इलेक्ट्रॉनिक चैनल भी हैं। उन चैनलों पर कथावाचन के लिए प्रायोजक भी मिल जाते हैं और विज्ञापनदाता भी। कुछेक धार्मिक चैनलों को तो कुछ राज्य सरकारें भी संरक्षण व प्रोत्साहन देती हैं। ऐसा भी नहीं कि कथावाचन की परंपरा केवल सनातन धर्म तक ही सीमित है। इस सूची में सभी पंथों के धर्माचार्य शामिल हैं। जैन धर्म, बुद्ध धर्म, ब्रह्मकुमारी विश्वविद्यालय, योग, ज्योतिष, तंत्र विद्या आदि से जुड़े कथावाचक भी हैं। पहले पहल साहित्य, कविगोष्ठी, कवि-सम्मेलन आदि के कार्यक्रम एवं ‘स्लॉट’ भी चले थे लेकिन ज्यादा भाव नहीं मिल पाया।
विवादों की उम्र ज्यादा नहीं होती। इस विवाद को अगले किसी विवाद के लिए स्थान खाली करना होता है। मगर इन विवादों का सबसे बड़ा अनुभव यह रहा है कि सुरूचिपूर्ण धारावाहिकों एवं कला-संगीत आदि से जुड़े कार्यक्रम हाशिए पर सरक चले हैं। सुरूचि का ना तो कोई वोट बैंक है, न उपयोगिता। अब हर तत्व, हर गतिविधि का चलन उपयोगिता से जुड़ चला है। कवि सुदामा पांडे धूमिल की एक काव्य पंक्ति अक्सर याद हो आती है-
इससे जब न चोली बन
सकती है, न चोंगा
तो इस ससुरी कविता को
जंगल से जनता तक
ढोने से क्या होगा
चलिए प्रार्थना करें कि विवादों का धंधा सुरूचिपूर्ण ढंग से तो चले।

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