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अब जूनागढ़ पर भी पाक का नापाक दावा

04:00 AM Oct 27, 2025 IST | Dr. Chander Trikha
अब जूनागढ़ पर भी पाक का नापाक दावा
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अपने ही क्षेत्र वाले प्रदेश भले ही न संभाल पा रहे हों, पाक अब भी पूर्व भारतीय रियासत जूनागढ़ को अपने देश का अंग मानता है। वर्ष 2020 में प्रकाशित अपने सरकारी नक्शों में पाकिस्तान ने जूनागढ़ को एक क्षेत्र ही दर्शाया है। वहां की सरकार का दावा है कि जूनागढ़ के नवाब ने लिखित रूप में वर्ष 1947 में पाकिस्तान के साथ विलय के दस्तावेज पाक-शासकों को सौंप दिए थे। मगर पाकिस्तान की सरकार जूनागढ़ के ‘नवाबी परिवार’ को अभी तक नाममात्र का ही सही, राजकीय सम्मान देती है, मगर कोई मदद नहीं करती। कराची स्थित ‘जूनागढ़ हाउस’ के वर्तमान मालिक अपनी पुरानी जमा पूंजी पर अपना शाही खर्च चला रहे हैं। वहां अब भी जूनागढ़ का पुराना शाही झण्डा फहराता है।
इधर, भारतीय गुजरात के जिले जूनागढ़ की पुरानी गाथाएं अभी भी चर्चा में बनी हुई हैं। हैदराबाद, कश्मीर के अलावा जूनागढ़ की रियासत ही ऐसी थी जो विभाजन के दिनों में सर्वाधिक चर्चा में उभरी थीं। संयोगवश जूनागढ़ उसी राज्य की एक स्वतंत्र इकाई है जिसने इस देश को गांधी, जिन्ना व पटेल सरीखी शख्सियतें थीं।
इस रियासत के अंतिम नवाब महाबत खांजी (तृतीय) के किस्से, विभाजन के 76 वर्ष बाद भी चर्चा में बने हुए हैं। जूनागढ़ के शाही परिवार के वंशज अब भी कराची स्थित ‘जूनागढ़ हाउस’ में बसे हैं और वहां से भी शाही परिवार के किस्से-कहानियां अभी भी छन-छन कर बाहर आते हैं। भारतीय संदर्भ में उस अंतिम नवाब के 800 पालतू कुत्तों की कहानियां अधिक प्रचलित हैं। प्राप्त विवरणों के अनुसार इन 800 पालतू कुत्तों में प्रत्येक को एक निजी सेवादार भी उपलब्ध कराया गया और अब कुछ इतिहासकारों का यह भी कहना है कि उन शाही कुत्तों में से अगर किसी की भी मृत्यु होती तो उसके शोक में राजकीय झण्डा भी उसके अंतिम संस्कार तक झुका दिया जाता। इसी संदर्भ में इसी नवाब के शासनकाल में उनकी पालतू कुतिया रोशना और एक ब्रिटिश लैब्राडार बॉबी के विवाह की भी चर्चा होती है। रोशना को निकाह वाले दिन सोने-चांदी के आभूषणों से सजाया गया और चांदी की पालकी में विवाह स्थल पर ले जाया गया। दूसरी ओर ब्रिटिश लैब्राडार ‘बॉबी’ भी स्वर्णाभूषणों से लदे थे। दोनों को एक सज्जित शाही हाथी के हौदे पर बैठाया गया। सारी रस्में हिन्दू शाही पुजारियों ने अदा की। मंत्रोच्चार भी हुआ। रेशमा और बॉबी की समझ के दायरे से वह सब कुछ बाहर था। इस अवसर पर आयोजित भोज पर 60 हजार पौंड के खर्च की अदायगी शाही खजाने की बहियों में दर्ज है।
बाद में कुछ तत्कालीन शाही इतिहासकारों ने इसे अलग ढंग से बयान किया। उनके अनुसार यह मात्र एक रस्म थी जो किसी भी शाही शादी से पहले वास्तविक दुल्हा-दुल्हन की नज़र उतारने के लिए दो कुत्तों की शादी से अदा होती थी।
मगर रस्म के बाद सभी आभूषण शाही खजाने में जमा हो जाते थे। ऐसी रस्मों की पुष्टि एवं आंशिक उल्लेख करने वालों में जूनागढ़ के एक इतिहासज्ञ प्रद्युमन खचर, भारतीय राजदरबारों के संस्मरणों पर लिखने वाले दीवान जरमनी दास और श्रीनाथ राघवन आदि भी शामिल थे। कुछ ने नवाब को पशु प्रेमी व जानवरों के बारे में करुणाशाील भी बताया। वैसे जूनागढ़ में गाैवध पर प्रतिबंध था और जंगली जानवरों के लिए एक अभ्यारण्य भी स्थापित था। कहा तो यह भी जाता है कि इसी ऐश्वर्य-पसंद नवाब को एशियाटिक-शेरों को बचाने का श्रेय भी था। गिरनार के वन्य-अभ्यारण्य इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। कुछ इतिहासकारों का यह भी कहना है कि वस्तुत: नवाब भारत में ही बने रहने के पक्ष में था, मगर अपने दीवान भुट्टो (जु़ल्फीकार अली भुट्टो के पिता) के उत्तेजक परामर्शों ने उसे पाकिस्तान समर्थक बना दिया। दीवान ने नवाब को भड़काया कि यदि जूनागढ़ भारत में विलीन हो गया तो कांग्रेस के लोग उसके प्रिय कुत्तों को मरवा डालेंगे।
सितम्बर के अंत तक नवाब अंतिम निर्णय लेने में सफल नहीं हो पाया। इधर, नवाब के खिलाफ आंतरिक असंतोष भी निरंतर बढ़ने लगा। वीपी मेनन के परामर्श पर महात्मा गांधी के ही एक चचेरे भाई श्यामल दास ने जूनागढ़ की एक अंतरिम सरकार का भी गठन घोषित कर दिया और उस अंतरिम सरकार के लिए राजकोष के लिए छोटे-छोटे काम करने वालों में धीरूभाई अम्बानी सरीखे युवा भी थे जो बाद में भारतीय उद्योग के एक शिखर हस्ताक्षर बन गए। भारतीय जिले जूनागढ़ में अब भी इस पूर्व नवाबी परिवार की कुछ सम्पत्तियां, महल व किले मौजूद हैं, मगर अब इन सम्पत्तियों पर ‘शत्रु सम्पत्ति कानून’ के तहत भारत सरकार का अधिकार है। इसी जूनागढ़ के साथ ही जुड़ी है दो शाही साहबजादों की गाथा, जिसमें से एक पाकिस्तान सेना में शामिल हो गया जबकि दूसरा भारतीय सेना में ही रह गया था जो साहबज़ादा पाक सेना में चला गया था उसे बाद में वहां की सेना से भी बर्खास्तगी झेलनी पड़ी थी, मगर जो भारतीय सेना में शामिल हुआ था उसे कश्मीर में 1948 के मोर्चे पर शौर्य के लिए सम्मान भी मिले थे।
यह भी एक विचित्र संयोग था कि कश्मीर के 1948 के युद्ध के मोर्चे पर दोनों भाई एक-दूसरे के खिलाफ लड़े थे।

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Dr. Chander Trikha

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