अब हम लिखेंगे नई इबारत...
अब कोई गुंजायश नहीं बची। कोई विकल्प नहीं। न कोई शिमला-समझौता, न कोई ताशकंद…
अब कोई गुंजायश नहीं बची। कोई विकल्प नहीं। न कोई शिमला-समझौता, न कोई ताशकंद। हालात पल-पल में बदल रहे हैं। इस आलेख के ‘प्रिंट’ में जाने तक भी बहुत कुछ घट चुका होगा। इस पड़ौसी दुश्मन को तो यह भी पता नहीं कि उसकी जेब खाली है और पेट के लिए भी सिर्फ चार-छह दिनों का राशन है। उसके बाद पाक स्थित गुरुद्वारों का लंगर। उधारे या मुफ्त मिले हथियारों से आखिर कितने दिन विश्व के नक्शे पर बचा रह पाएगा यह देश?
मेरा एक सहयोगी बतला रहा था- सर, हमने जहां नोटबंदी देखी, लॉकडाउन से निपटे और क्रूर कोरोना को निपटाया, तो फेर इसतै भी निपट ल्यांगे, ‘बाजण देयो नै लट्ठ।’ ज़ाहिर है ‘पाकिस्तान के टुकड़े होंगे/इन्शा अल्लाह-इन्शा अल्लाह। एक टुकड़ा 1971 में टूटा था, अब तीन और टूटने वाले हैं। बलोचों ने तो नया झंडा व अपना निशां भी तैयार कर लिया है। पख्तून उनसे भी पहले कमर कसे बैठे हैं। इनसे निपटे तो ‘सरायकिस्तान’ की सुगबुगाहट शुरू हो जाएगी।
मज़हबी जुनून व खून के छटे दरिया के मुहाने पर बसाया गया यह देश चैन की नींद कैसे सो सकता है, जहां के फौजी, जरनैल एक खूंखार आतंकी के ताबूत को भी अपने कौमी झंडे में लपेटकर कंधा देते हैं और फिर कब्र में लिटाकर उलटे हथियारों से अंतिम सलामी देते हैं। नक्शे में बदलाव कैसे आएगा, यह तो नहीं मालूम। मगर यह पड़ौसी न तो यकीनन बाबा गुरु नानक, न बाबा फरीद और न ही वारिस शाह की विरासत के काबिल है। कितनी बड़ी त्रासदी है कि हमारे शहीदे आज़म भगत सिंह ने इसी मुल्क में पहली बार आंख खोली थी और इसी मुल्क में फांसी को चूमा था। यदि इस पड़ौसी मुल्क को विश्व के मानचित्र पर बने रहना है तो यहां के लोगों को अपने ही फौजी अगुआओं के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी।
पिछले 78 वर्षों में इस पड़ौसी ने पांचवीं बार हम पर यह युद्ध थोपा है। वर्ष 1948, 1965 व 1971 के अलावा भी कारगिल सरीखी विजय-गाथाओं की इबारत हमारे सैनिकों व नागरिकों ने अपने खून से लिखी है। इस बार भी वही होगा जो पहले चार बार हुआ है। ज़ाहिर है कि वर्तमान पाकिस्तान तीन या चार टुकड़ों में बंटेगा। इस बार कोई गुंजायश नज़र नहीं आती। एक लम्बी ‘प्राक्सी वार’ व अघोषित युद्ध के बावजूद हमने विकास व आत्मनिर्भरता का अलाव जलाए रखा है। इन्हीं के अल्लामा इकबाल ने कहा था, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’
अब हमें समझ आ गया है कि हमारी हस्ती का आधार आत्मनिर्भरता व विकास के संकल्प हैं। हम तो पांचवीं बार भी इस नापाक-पड़ौसी की नापाक साजि़शों से मुक्ति पाने में सफल रहेंगे, मगर पड़ौस में जो बचेगा, वो क्या होगा, कैसा होगा, यह अभी तय नहीं है।
यह वर्ष 2000 की बात है, जब अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा पर आए थे। उन्होंने एक बात 25 वर्ष पहले की थी, मगर पाकिस्तान उसे आज तक नहीं समझा। उन्होंने तब कहा था, ‘जो राष्ट्रीय सीमाएं खून से बनती हैं, उन्हें आप दोबारा नहीं बना सकते।’ वहीं विदेश मंत्री के रूप में यात्रा पर आई हिलेरी क्लिंटन ने साफ-साफ कहा था कि ‘आप अपने घर के पिछवाड़े सांप पालेंगे और सोचेंगे कि सांप सिर्फ पड़ौसी को ही काटेगा, तो यह संभव नहीं है।’ यही कारण है कि पाकिस्तान पर कोई विश्वास नहीं कर सकता है। पाकिस्तान का इतिहास 1948 से ऐसा ही रहा है। उस पर विश्वास करना मुश्किल है।
अन्य कई देशों व विदेशी गुप्तचर एजेंसियों ने भी समय-समय पर पाकिस्तान के शासकों को बताया था कि जो दहशतगर्दों के कैंप आपके यहां हैं, इसका फायदा आपको होने वाला नहीं है। यही आतंकी पाकिस्तान पर भी अटैक करते हैं। कितने ऐसे हमले वहां होते रहते हैं। कभी शिया के विरोध में तो कभी किसी मस्जिद पर ही हमला हो जाता है। एक बार मुशर्रफ ने खुद कहा था कि आप चाहते हो कि हमारा देश एक ‘टैरेरिस्ट स्टेट’ माना जाए।
वैसे पाकिस्तान के लिए यह बहुत अच्छा मौका है। जो काम करने की पाकिस्तान में हिम्मत नहीं थी, वह भारत ने कर दिखाया। उनके देश में डेरा डाले आतंकियों के नौ ठिकानों को ध्वस्त कर दिया। बाकी जो बचे हैं, आप खुद खत्म कर दीजिए। हमारा आपसे कोई झगड़ा नहीं है। झगड़ा बस इस बात का है कि आप हमारे संसद पर आक्रमण करते हैं। 2008 में मुंबई पर हमला करते हैं। अब आप खुद ही अपने यहां बचे आतंकियों को खत्म कर दीजिए। पाकिस्तान अपने यहां बसे आतंकवाद को खत्म कर दे तो भारत से उसका रिश्ता बहुत अच्छा हो सकता है। दिवालिया होने की कगार पर खड़े देश को आतंकवाद से कोई फायदा नहीं मिलने वाला। अब सवाल ढेरों हैं जिनका जवाब सिर्फ पाकिस्तान को नहीं तलाशना, हमें भी उन सवालों पर सोचना है।
प्रश्न यह भी उठेगा कि क्या किसी नए समझौते से हालात सुधर पाएंगे? ये सभी प्रश्न हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व के सामने उठे होंगे? ज़ाहिर है ऐसे सवालों के जवाब ‘रैडीमेड’ नहीं होते। फिलहाल स्थितियां ये हैं कि- हम इस नापाक पड़ौसी को नेस्तनाबूद तो शायद नहीं कर पाएंगे? यदि इस पड़ौसी को लंगड़ा-लूला बना भी देंगे तो क्या ऐसा टूटा-फूटा, लंगड़ाता देश अपने लिए नए सहारों, नई कठौतियों की तलाश नहीं करेगा? ये कठौतियां ‘मेड इन चाइना होंगी’ या फिर ‘मेड इन अमेरिका’ या मेड इन तुर्किए? पाकिस्तान तो कठौतियों के मामले में भी आत्मनिर्भर नहीं बन पाया।