राहुल-अखिलेश की ‘न्याय’ जोड़ी
श्री राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में समाजवादी पार्टी के नेता श्री अखिलेश यादव के शामिल होने से विपक्षी इंडिया गठबन्धन में ऊर्जा का नव संचार तात्कालिक रूप से जरूर हो सकता है परन्तु इसके स्थायी रहने की शर्त यह होगी कि जमीन पर भी दोनों नेताओं की पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच ऊर्जा का संचार जारी रहे। अखिलेश यादव ने दोनों पार्टियों के बीच उत्तर प्रदेश में लोकसभा सीटों पर बंटवारा हो जाने के बाद ही आगरा में श्री राहुल गांधी के ‘रथ’ की सवारी की। यहां श्रीमती प्रियंका गांधी भी उनके साथ दिखाई दीं जिनके हस्तक्षेप के बाद ही दोनों पार्टियों के बीच सीटों का सम्मानजनक बंटवारा सम्पन्न हुआ। वैसे तो 2017 के राज्य विधानसभा चुनावों में भी राहुल-अखिलेश की जोड़ी ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा था मगर उन चुनावों में दोनों ही नेताओं की पार्टियों को जबर्दस्त शिकस्त खानी पड़ी थी और हालत यह हो गई थी कि राज्य से अखिलेश की सरकार को 224 सीटों की जगह केवल 47 सीटों पर और कांग्रेस को 28 की जगह केवल सात सीटों पर मतदाताओं ने सिमटा दिया था और भाजपा को तीन चौथाई बहुमत से नवाज दिया था। मगर यह 2024 है और चुनाव लोकसभा के लिए हो रहे हैं। इन राष्ट्रीय चुनावों के लिए राहुल गांधी व कांग्रेस ने जो विमर्श नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान का दिया है उससे अखिलेश यादव की पार्टी स्वयं को पूरी तरह बावस्ता कर रही है और सन्देश दे रही है कि राज्य में पिछड़े-दलितों- अल्पसंख्यकों ( पीडीए) की सरकार को सत्ता पर काबिज किया जाना चाहिए। राहुल गांधी भी सामाजिक व आर्थिक न्याय का विमर्श खड़ा करके जिस जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं उसका लक्ष्य भी एेसी ही सरकार की स्थापना लगता है। यह विमर्श भाजपा के हिन्दुत्व वादी राष्ट्रवाद के खिलाफ है जिसमें धार्मिक पहचान की प्रमुखता है। भाजपा की ताकत भी पिछड़े समाज में अति पिछड़े वर्ग के लोग माने जाते हैं और सभी धर्मों के वे गरीब लोग माने जाते हैं जिनकी आय इस योग्य भी नहीं है कि वे महीने में अपने परिवार के लोगों के लिए पांच किलो राशन प्रति व्यक्ति के हिसाब से खरीद सकें। भाजपा की केन्द्र सरकार 140 करोड़ की जनसंख्या वाले इस देश में 81 करोड़ लोगों को यह मुफ्त राशन उपलब्ध करा रही है। इंडिया गठबंधन व भाजपा के बीच असली लड़ाई इन्हीं वर्गों के वोटों को लेकर है और इनमें भी हिन्दू समुदाय के गरीब लोगों के वोटों को लेकर क्योंकि अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों में राष्ट्रीय स्तर पर इस बार कांग्रेस को पूर्ण समर्थन देने की हवा बह रही है। मगर राहुल गांधी हिन्दू समुदाय में ही 50 प्रतिशत पिछड़ों व 23 प्रतिशत दलितों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं। दूसरी तरफ भाजपा ने उत्तर प्रदेश में जो जाल बांधा है उसमें हिन्दू समुदाय का सवर्ण वर्ग उसके साथ आंख मूंद कर खड़ा हुआ है और पिछड़ों की कथित दबंग ग्रामीण जातियां उसके साथ आ रही हैं। भाजपा इन जातियों के प्रभावशली नेताओं को अपने खेमे में ला रही है जिससे इन वर्गों के समुदाय में सीधा सन्देश जा रहा है। मसलन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के सबसे बड़े नेता स्व. चौधरी चरण सिंह के पौत्र जयन्त चौधरी को यह अपने साथ ले आई है जिसका असर मुख्य रूप से इस इलाके के जाट मतदाताओं पर होगा। यदि जयन्त चौधरी इंडिया गठबन्धन छोड़कर भाजपा के साथ न जाते तो राज्य के इस इलाके की 24 लोकसभा सीटों के चुनाव परिणाम इस बार चौंकाने वाले हो सकते थे क्योंकि इस वर्ग के लोग अधिकतम किसान हैं और किसानों का आन्दोलन फिलहाल चल रहा है। मगर जाट जो मूलतः किसान होते हैं उनकी पहचान को जयन्त चौधरी व भाजपा ने मिलकर बदल दिया लगता है जिसकी वजह से ग्रामीण मतदाताओं में एकता रहना मुश्किल है लेकिन दलित नेता चन्द्रशेखर आजाद ‘रावण’ के इंडिया खेमे में आने से दलित मतदाता इस बार कुछ चौंकाने वाला फैसला कर सकते हैं क्योंकि मायावती की बहुजन समाज पार्टी अब मृतप्रायः हो चुकी हैं।कहना मुश्किल है कि रावण का पूर्वी उत्तर प्रदेश में कितना प्रभाव है परन्तु पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दलित मतदाताओं में उनकी अच्छी पैठ मानी जाती है। परन्तु राष्ट्रीय चुनावों की वजह से इनमें राष्ट्रीय नेतृत्व का भी बहुत महत्व है। भाजपा की सबसे बड़ी सम्पत्ति प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी समझे जाते हैं और उनकी निजी लोकप्रियता इन चुनावों में सबसे ऊपर पड़ कर बोलती नजर आ रही है । विडम्बना यह है कि विपक्ष के पास एेसे कई विमर्श हैं जिनकी प्रतिध्वनियां भाजपा को परेशान कर रही हैं जिनमें महंगाई व बेरोजगारी सबसे प्रमुख मानी जाती है किन्तु संयुक्त विपक्ष इनके आधार पर कोई ठोस जनोत्तेजक विचार-विमर्श खड़ा करने में असमर्थता महसूस कर रहा है। इसकी वजह विभिन्न राज्यों में इंडिया गठबन्धन के घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर उखाड़-पछाड़ भी है। जिसकी वजह से विपक्ष का विमर्श आपसी खींचतान में ही जाया हो गया। फिर भी उत्तर प्रदेश में इस वर्ष राहुल व अखिलेश के एक साथ आने से चुनावी लड़ाई बहुत सघन व दिलचस्प रहेगी। मगर भाजपा के हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवादी विमर्श को काटना आसान काम नहीं होगा।