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के. कविता और धन-शोधन

07:00 AM Aug 29, 2024 IST | Rahul Kumar Rawat

भारत का लोकतन्त्र जिन चार खम्भों विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और चुनाव आयोग पर खड़ा हुआ है। लोकतान्त्रिक ढांचे में से यदि कोई एक खम्भा कभी कमजोर पड़ता है तो पूरे लोकतान्त्रिक ढांचे को कोई एक खम्भा मजबूत होकर संभाल लेता है। स्वतन्त्र भारत में हमने देखा है कि जब भी भारत के लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों पर कहीं से भी कुठाराघात हुआ तो इस देश की न्यायपालिका ने आगे बढ़कर उसमें सुधार किया। इसके बहुत से उदाहरण पिछले 76 साल के भारत के इतिहास में हमें मिल जायेंगे (केवल इमरजेंसी के 18 महीनों को छोड़कर)। देश में फिलहाल प्रवर्तन निदेशालय द्वारा चलाये जा रहे धन शोधन (मनी लॉड्रिंग) मुकदमों की खासी चर्चा हो रही है क्योंकि ऐसे मामलों में राजनीतिज्ञों की संलिप्तता के आरोपों में प्रवर्तन निदेशालय उन्हें गिरफ्तार करता है। विपक्षी दल भारत राष्ट्रीय समिति की नेता श्रीमती के. कविता को सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायमूर्तियों बी.आर. गवई व के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने दिल्ली शराब घोटाले के नाम से प्रचिलित प्रकरण में जमानत देते हुए एक बार पुनः साफ किया कि भारत के संवैधानिक लोकतन्त्र में किसी भी नागरिक की व्यक्तिगत या निजी स्वतन्त्रता बहुत महत्वपूर्ण अधिकार है अतः कोई भी सरकारी जांच एजेंसी किसी आरोपी को लम्बे समय तक जेल की सींखचों के भीतर नहीं रख सकती क्योंकि कानूनी नुक्ता-ए-नजर से जमानत नियम है जबकि जेल अपवाद है।

श्रीमती कविता को दिल्ली सरकार की शराब नीति में हुए कथित घोटाले के मामले में मुल्जिम बनाया गया है और प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें इस मामले में पांच महीने पहले कुछ अन्य गिरफ्तार आरोपियों के मुखबिर बन जाने पर दिये गये बयानों के आधार पर मुल्जिम बनाया था। विद्वान न्यायाधीशों ने निदेशालय के वकीलों से पूछा कि आपके पास श्रीमती कविता को मुल्जिम बनाये जाने के हक में पुख्ता सबूत कहां हैं और आपने केवल मुखबिरों के बयान पर ही उन्हें गिरफ्तार करके सबूत तैयार किये हैं। केवल मुखबिरों के बयान पर सबूत इकट्ठा करने से क्या जांच की निष्पक्षता प्रभावित नहीं होती है? कानून की नजर में मुखबिर वह होता है जिसे जांच एजेंसी अभियुक्त के तौर पर गिरफ्तार करती है मगर वह बीच में सरकारी गवाह बन जाता है। हालांकि न्यायमूर्तियों ने साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि वे मुकदमे के गुण-दोष (मेरिट) के बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं मगर इतना स्पष्ट कर रहे हैं कि धनशोधन प्रतिबन्धात्मक कानून (पीएमएलए कानून) के तहत भी किसी आरोपी को शक के आधार पर लम्बे समय तक जेल में बन्द नहीं रखा जा सकता है और जमानत या बेल पर उसका छूटना वाजिब है। हालांकि कानूनी पेचीदगियों में केवल कानून विशेषज्ञ ही जा सकते हैं मगर एक सामान्य नागरिक की समझ में यही बात समझ में आती है कि भारत की न्यायपालिका हर प्रकार के आरोपियों के बारे में मानवीय दृष्टिकोण कानून के दायरे में रखती है।

न्यायमूर्तियो ने धन शोधन कानून की ही धारा 45(1) का हवाला देते हुए साफ किया कि इस धारा में ऐसे प्रावधान भी हैं जिनके तहत कुछ महिलाओं समेत कुछ विशिष्ट वर्ग के आरोपियों को जमानत पाने का हक है। देश की सर्वोच्च अदालत ने के. कविता मामले में साफ कहा कि उनके खिलाफ जांच का काम पूरा हो चुका है अतः अब उनका जेल में और रहना जरूरी नहीं है। हमें यह ध्यान ना होगा कि इसी कथित शराब घोटाले के मामले में संलिप्त दिल्ली सरकार के पूर्व उपमुख्यमन्त्री श्री मनीष सिसोदिया को भी सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले दिनों जमानत पर रिहा किया था और इसी मामले में जेल के भीतर बन्द मुख्यमन्त्री श्री अऱविन्द केजरीवाल के भी न्यायालय ने प्रर्तन निदेशालय के मुकदमे में जमानत दे दी थी मगर उन्हें सीबीआई द्वारा जारी जांच के मामले में जमानत नहीं मिली थी। मगर मूल प्रश्न यह है कि धनशोधन मामलों में बनाये गये आरोपियों को जब प्रवर्तन निदेशालय जेल में कड़े कानून की वजह से डालता है तो उनकी जमानत पाने में निचली अदालतों से काफी मुश्किलें पेश आती हैं।

के. कविता के मामले में भी उच्च न्यायालय ने जमानत की अर्जी खारिज कर दी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले से यही सन्देश देने की कोशिश की है कि भारत का कोई भी सख्त से सख्त कानून नागरिकों की निजी स्वतन्त्रता के अधिकार को नजरअन्दाज नहीं कर सकता इसीलिए बार-बार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति कह रहे हैं कि जमानत नियम है और जेल अपवाद है। मगर इसका मतलब यह भी नहीं हो सकता कि धनशोधन करने वाले अपराधी निडर हो जायें क्योंकि जमानत मिलने के बावजूद उन्हें अपने खिलाफ चल रही जांच का सामना तो करना ही पड़ेगा। इस मामले में जिस किसी भी व्यक्ति के खिलाफ आपराधिक पुख्ता सबूत होंगे उसे तो जेल जाना ही पड़ेगा। पीएमएलए कानून मूलतः पिछली सरकारों के दौरान आतंकवाद का वित्तीय पोषण रोकने की गरज से बनाया गया था। बाद में इसमें संशोधन होते गये और यह सख्त बनता चला गया और इसका उपयोग भ्रष्टाचार रोकने के उद्देश्य से किया जाने लगा।

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