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सर्वशक्तिमान हुए शी जिन​पिंग

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11:14 PM Mar 12, 2018 IST | Desk Team

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चीन ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए राष्ट्रपति पद के लिए ‘दो टर्म’ की समय सीमा को हटा दिया है। इस फैसले को मौजूदा राष्ट्रपति शी जिनपिंग को दुनिया का सबसे ताकतवर राष्ट्रपति बनाने की दिशा में कदम माना जा रहा है। चीन में 35 वर्ष पहले राष्ट्रपति के रूप में दो टर्म वाला नियम डेंग शिओपिंग ने इसलिए बनाया था ताकि चीन में वन मैन रूल यानी एक व्यक्ति के शासन पर अंकुश लगाया जा सके। अब चीन की संसद ने इस नियम में संशोधन कर इसे खत्म कर दिया है। अब शी जिन​पिंग चीन में जब तक चाहें शासन कर सकते हैं, जब तक वह रिटायर नहीं होते, वह चाहें तो आजीवन भी राष्ट्रपति रह सकते हैं।

जिनपिंग को पहले ही देश का अगले माओ घोषित किया जा चुका है। एक खे​ितहर शी जिनपिंग अब सर्वशक्तिमान हो चुके हैं। चीन के संस्थापक के रूप में माओ ने 1969 से लेकर 1976 तक अपनी मृत्यु तक शासन किया था। कम्युनिस्ट और तानाशाही में कोई अंतर नहीं। जिस देश में भी एक पार्टी का शासन है वहां सिंगल मैन रूल कायम हो जाता है। इसके पहले पार्टी के सबसे ऊंचे पद पर बैठे व्यक्ति के हाथ में सीमित वक्त के लिए ही कमान आती थी। एक दशक के बाद नेता दूसरे नेता के हाथ में सत्ता सौंप देता था लेकिन शी जिनपिंग ने पद पर बैठते ही इस सिस्टम को तोड़ना शुरू कर दिया था। उन्होंने तुरंत एक भ्रष्टाचार विरोधी अभियान शुरू किया।

इससे रिश्वत लेने या सरकारी पैसे का दुरुपयोग करने वाले दस लाख से ज्यादा पार्टी प्रतिनिधि अनुशासित हो गए। इसी मुहिम ने शी जिनपिंग के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को भी खत्म कर दिया और शक जताने वालों को चुप करवा दिया। शी जिन​पिंग ने अपने पद के शुरुआती दिनों में ही अपना राजनीतिक विजन साफ दिखा दिया था जब उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के रास्ते बनाने के लिए ‘वन बेल्ट वन रोड’ जैसे प्रोजेक्ट को बढ़ावा दिया और 2020 तक चीन से गरीबी हटाने की योजना का ऐलान किया। लम्बे वक्त से ऐसी अटकलें लगाई जा रही थीं कि वह खुद को राष्ट्रपति बनाए रखने की कोशिश करेंगे।

शी जिन​पिंग इतने शक्तिशाली हैं कि यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि अगले पांच साल में उनकी जगह लेने के लिए कोई आ पाएगा। पार्टी इसके लिए पहले से ही ग्राउंड वर्क कर रही थी। इसके पहले पिछले अक्तूबर में पार्टी की एक अहम बैठक में शी जिन​​पिंग ने परंपरा तोड़ते हुए किसी उत्तराधिकारी का नाम आगे नहीं किया था।2012 में जब शी जिन​पिंग ने चीन की कमान संभाली तो उन्हें सामान्य नेता माना जा रहा था। वह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बने और फिर चीनी सेना के चेयरमैन भी लेकिन जल्द ही यह साफ हो गया कि शी को सामान्य नेता मानने वाले राजनीतिक पंडितों ने भूल की है।

25 फरवरी, 2018 को इसका सबसे पुख्ता सबूत भी मिला। अभूतपूर्व भ्रष्टाचार विरोधी अभियान चलाकर वह अपने राजनीतिक विरोधियों को पहले ही साफ कर चुके हैं। सारे फैसले लेने की प्रक्रिया को भी वह अपने हाथ तक सीमित कर चुके हैं। देश का हर फैसला वही होता है जो शी चाहते हैं। यही वजह है कि ब्रिटेन की इकोनॉमिस्ट पत्रिका ने शी को ‘चेयरमैन ऑफ एवरीथिंग’ कहा है। शी अब अमेरिकी राष्ट्रपति से भी कहीं ज्यादा ताकतवर हो चुके हैं। जिन​पिंग 2012 में हू जिन्ताओ के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे, उसके एक वर्ष बाद वह चीन के राष्ट्रपति बने, कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव होने के अलावा वह सैंट्रल ​मिलिट्री सैन्य कमीशन के अध्यक्ष हैं, जो चीनी सेना की सर्वोच्च बाडी है।अब दुनिया को चीन के ऐसे ताकतवर नेता के साथ चलना है, जिसका रवैया तानाशाही है।

यह बदलाव ऐसे समय में हुआ है जब रणनीतिक लिहाज से चीन का प्रभाव दूर-दूर तक फैल रहा है। चीन दुनिया के आर्थिक सम्पन्नता वाले भविष्य और वन बैल्ट वन रोड का सपना दिखा रहा है लेकिन तानाशाही में खतरे भी मौजूद रहते हैं। क्या हिटलर की मौत के बाद हिटलरों ने जन्म लेना बंद कर दिया?मनुष्य की हर अच्छी और बुरी प्रवृत्तियां चैतन्य और अमर हैं। बुरी प्रवृत्तियां सत्ता, धन और शक्ति के साथ से जागृत होती हैं। तानाशाहों का उदय और वीभत्स अंत भी हमने देखा है। चीन की संसद ने अगर यह सोचा है कि देश को चलाने के लिए एक ही आदमी सक्षम तो यह मान लेना चाहिए कि चीन मेंे कुछ सामान्य नहीं है।

चीन का एक वर्ग भी महसूस करता है कि देश माओ और लेनिन के युग में लौट रहा है। आज की दुनिया माओवाद और लेनिनवाद में विश्वास नहीं रखती लेकिन चीन के पुनः माओवाद और लेनिनवाद की आेर जाना एक गहन ​चिन्ता का विषय बन गया है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी भले ही यह कहे कि इस फैसले से राजनीतिक स्थिरता और नीतियों में दृढ़ता आएगी लेकिन कोई भी देश दूसरे देश से सहयोग और समझौता करता है न कि किसी व्यक्ति के साथ, क्योंकि तानाशाह बदलते ही सारे निर्णय उलट दिए जाते हैं।

जहां तक भारत का सवाल है, शी जिन​पिंग का ताकतवर होना किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए सबसे बड़ा खतरा हो सकता है। ऐसा होने पर संस्थागत निर्णय की बजाय व्यक्ति केन्द्रित निर्णय को बढ़ावा मिलेगा। भारत को स्वयं तय करना होगा कि चीन से दोस्ती करे या दुश्मनी। चीन भारत को हर तरफ से घेर रहा है, उसका रवैया कुटिल है। विश्व की राजनीति पर भी इसके दूरगामी परिणाम होंगे। विश्व शांति के पक्षधर सभी देशों को नई स्थितियों पर गंभीरतापूर्वक चिन्तन करने की जरूरत है, जिससे चीन के बढ़ते प्रभाव को निष्प्रभावी किया जा सके।

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