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तीन तलाक के मुद्दे पर संग्राम!

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07:59 AM Aug 11, 2018 IST | Desk Team

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जब 1965 के दौर में स्व. बाबू जगजीवन राम ने रामायण की एक चाैपाई कही थी तो हिन्दू धर्म के पीठाधीश्वरों के आसन डोल उठे थे और शंकराचार्यों ने इसे हिन्दू धर्म के ग्रन्थों के विरुद्ध दुष्प्रचार तक की संज्ञा दी थी मगर बाबू जगजीवन राम एेसे दलित नेता थे जिनका धर्म ग्रन्थों पर पूरा अधिकार था और गीता तो उन्हें कंठस्थ थी। बाबू जी ने तब साफ कहा था कि दलित विरोधी मानसिकता को जब तक दूर नहीं किया जाता है तब तक अनुसूचित जातियों के साथ न्याय नहीं हो सकता और हिन्दू धर्म के मानवीयता के पोषक होने के धर्माचार्यों के उपदेशों को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। बाबू जी के विरुद्ध बहुत बवाल मचा मगर वह स्वतन्त्रता संग्राम के योद्धा जगजीवन राम थे, अपनी बात से पीछे नहीं हटे और अपने मत पर दृढ़ता के साथ डटे रहे लेकिन उन्होंने यह काम धर्माचार्यों पर ही छोड़ दिया और घोषणा की कि सरकार का इन सब बातों से कोई लेना-देना नहीं हो सकता क्यों​िक किसी भी समाज को अपने प्रगतिशील होने के लिए जरूरी कदम स्वयं ही उठाने पड़ते हैं और एेसे कार्य समाज में पूर्व में भी होते रहे हैं।

बेशक सरकार समाज में बराबरी और समरसता लाने और उसे आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण देने के लिए एेसी नीतियां बनाती है जिनसे प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार मिलें और बिना किसी प्रताड़ना के हर समुदाय के व्यक्ति का विकास संभव हो सके। धर्म में घुसना सरकार का काम नहीं है। इसके कुछ वर्षों बाद जब देश में परिवार नियोजन कार्यक्रम चला तो केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्रालय की ओर से एेसे पोस्टर छापे गए जिनमें भगवान राम व सीता को अपने दो पुत्रों लव और कुश के साथ दिखाते हुए लिखा गया था कि ‘हम दो–हमारे दो’ तब प्रधानमन्त्री पद पर श्रीमती इन्दिरा गांधी काबिज थीं। हिन्दू संगठनों की तरफ से इस पोस्टर का जबर्दस्त विरोध हुआ और कहा गया कि सरकार हिन्दू देवी–देवताओं का प्रयोग परिवार नियोजन अभियान में करके उनका अपमान कर रही है। इस पोस्टर को वापस ले लिया गया।

मुख्य तर्क यह था कि सामाजिक नीतियों के प्रचार में धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करना भारत की धर्मनिरपेक्षता के साथ खिलवाड़ करना है। बात कमोबेश सही थी। सरकार का धार्मिक प्रतीकों या मान्यताओं से क्या लेना-देना हो सकता है? किसी भी धर्म में घुस कर उसमें फैली कुरीतियों को दूर करने की प्रारम्भिक जिम्मेदारी उसी धर्म के समाज सुधारकों की होती है जिस प्रकार स्वामी दयानन्द और राजा राम मोहन राय की रही थी परन्तु मुस्लिम समुदाय के सन्दर्भ में आजादी के बाद से इस समाज के भीतर से कभी कोई सामाजिक संशोधन करने वाला आन्दोलन या मुहिम नहीं उठी। इसकी मूल वजह मुस्लिम समुदाय में शिक्षा के प्रसार का कम होना रहा जिसकी वजह से यथास्थिति ही चलती रही। तीन तलाक जैसी कुप्रथा का 21वीं सदी में भी भारतीय समाज में जारी रहना इसी तथ्य का प्रमाण है कि यह समाज उन बे​िड़यों को नहीं तोड़ पा रहा है जिसने इसे लगातार सामाजिक-आर्थिक रूप से विपन्न बनाए रखा है मगर तीन तलाक का सम्बन्ध केवल नारी की घरेलू स्थिति से है।

इसको देश के सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम धार्मिक न्यायप्रणाली के भीतर जाए बिना पूरी तरह असंवैधानिक घोषित किया। न्यायालय की जिस पांच सदस्यीय पीठ ने दो के मुकाबले तीन के बहुमत से यह फैसला दिया था उसकी राय थी कि तीन तलाक के असंवैधानिक होने के बाद इस मामले में कुछ नहीं बचता है जबकि दो न्यायाधीशों की राय थी कि संसद को इस बारे में कानून बनाना चाहिए मगर इसके लिए उसे शरीयत में दाखिल होना पड़ेगा जिससे मुस्लिम महिलाओं को बराबर के अधिकार मिल सकें लेकिन असली फैसला वही था जो बहुमत के न्यायाधीशों का था कि तीन तलाक असंवैधानिक है अर्थात् यदि कोई व्यक्ति अपनी बेगम को तीन तलाक कहकर अपने जीवन से अलग करता है तो एेसा मुमकिन नहीं होगा और उसकी बीवी का खाविन्द पर पहले जैसा हक ही बना रहेगा। सवाल उठना लाजिमी है कि जब तीन तलाक के कहने पर विवाह टूटा ही नहीं तो उसके लिए कानून कैसा?

सरकार इसकी संभावना टालने के लिए और असंवैधानिक दिए गए फैसले को पुख्ता बनाने की गरज से तीन तलाक का कानून लेकर आई है जिससे एेसा करने वाले के खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सके। इसमें यह संशोधन कर दिया गया है कि बीवी या खून के रिश्ते के किसी रिश्तेदार के शिकायत करने पर कार्रवाई हो सकती है और खाविन्द की जमानत हो सकेगी मगर असल में यह फौजदारी कानून ही रहेगा, इससे मुस्लिम समुदाय की विवाह पद्धति के अनुसार शादी के अनुबन्ध के टूटने पर पुलिस हस्तक्षेप का रास्ता खुल जाएगा लेकिन इसे तीन तलाक प्रथा के खिलाफ अवरोधक कहा जा रहा है। असल सवाल यह है कि इससे अन्त में मुस्लिम महिलाओं को क्या लाभ होगा? खाविन्द की जमीन-जायदाद और खानदानी विरासत का फैसला मुस्लिम शरीयत कानून के अनुसार ही होगा जिसकी अपनी पद्धति है। इस समाज में बहुपत्नी प्रथा के चालू रहते स्त्री का घरेलू सम्मान तो वही रहेगा जो पहले था।

मुस्लिम नागरिक आचार संहिता तो इस समाज का अपना विशिष्ट अधिकार रहेगा। सरकार इसमें तब तक हस्तक्षेप नहीं कर सकती जब तक कि एक समान नागरिक आचार संहिता लागू न कर दी जाए। हमें यदि मुस्लिम स्त्रियों को समाज में बराबरी का स्थान देते हुए उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करनी है तो एक समान आचार संहिता की तरफ देखना ही होगा। आखिरकार हिन्दू आचार संहिता को भी तो बनाते समय हमने तलाक की अवधारणा इस्लाम से ही ली थी और महिलाओं को जमीन-जायदाद के अधिकार दिये थे वरना हर हिन्दू ग्रन्थों में तो महिलाओं को पति की अर्द्धांगिनी बताकर उसके व्यक्तिगत अधिकारों का कहीं कोई जिक्र तक नहीं मिलता है। महिला के निजी अधिकारों का जिक्र सिर्फ कुरान शरीफ में ही मिलता है। हमें इस विविधता का जश्न मनाना चाहिए न कि आपसी वैमनस्य को बढ़ाना चाहिए।

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