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एक देश-एक चुनाव

भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था हमारे संविधान निर्माता पुरखों ने जितनी…

10:20 AM Jan 09, 2025 IST | Aditya Chopra

भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था हमारे संविधान निर्माता पुरखों ने जितनी…

भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था हमारे संविधान निर्माता पुरखों ने जितनी कशीदाकारी के साथ पारदर्शी रूप में हमारे हाथ में सौंपी है उसका उदाहरण दुनिया के किसी दूसरे लोकतन्त्र में नहीं मिलता। इसमें भारत के संघीय ढांचे को जिस प्रकार से बुना गया है वह अद्वितीय माना जाता है क्योंकि भारत एक राज्यों का संघ (यूनियन आफ इंडिया) है। भारत के इस स्वरूप को पाने के लिए हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों को कड़ा संघर्ष करना पड़ा था और तब जाकर अंग्रेजों ने यह स्वीकार किया था कि भारत विभिन्न भाषा-भाषियों और संस्कृतियों व धर्मों के मानने वाले लोगों का एक राष्ट्र है। 1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत ब्रिटिश सरकार ने इस तथ्य को स्वीकार तब किया था जबकि 1928 में भारत के संविधान का प्रारूप तैयार करने वाली ‘मोती लाल नेहरू समिति’ ने यह सिद्ध कर दिया था कि भारत विविधता से भरा होने के बावजूद विविध प्रकार की सामाजिक, भौगोलिक व सांस्कृतिक विभिन्नताओं वाला एक संघीय ढांचे का राष्ट्र है। इस समिति में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से लेकर मौलाना आजाद और पं. जवाहर लाल नेहरू तक शामिल थे। समिति ने उसी समय राज्यों व केन्द्र सरकार के अधिकारों की समीक्षा करते हुए स्पष्ट कर दिया था कि सारे भारत में प्रत्येक राज्य के अपने कुछ विशेषाधिकार होंगे मगर केन्द्र सरकार इनकी संरक्षक के तौर पर काम करते हुए पूरे देश को एक धागे में बांधे रखने के लिए जिम्मेदार होगी। बाद में जब हमारा संविधान बनकर तैयार हुआ तो ये ही सब गुण इसमें समाहित हुए। अतः हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत लम्बी परंपरा को ध्यान में रखते हुए संविधान सभा में बैठकर आम सहमति से भारत का संविधान तैयार किया।

इस संविधान में केन्द्र व राज्य सरकारों के गठन की व्यवस्था की गई और राज्यों को वे अधिकार दिये गये जिससे वे अपने क्षेत्र की भौगोलिक, शैक्षिक व सांस्कृतिक स्थितियों पर नियन्त्रण रख सकें मगर केन्द्र को भी यह अधिकार दिया गया कि वह किसी भी संकट के समय राज्यों की मदद कर सके। इसके लिए संविधान में पुख्ता प्रावधान बनाये गये। इन्हीं प्रावधानों के तहत प्रत्येक राज्य सरकार के गठन के लिए पांच सालों के लिए चुनाव कराने की व्यवस्था की गई और राज्य विधानसभाओं को इसके लिए जरूरी अधिकार दिये गये। ये चुनाव केन्द्रीय चुनाव आयोग की निगरानी में ही कराने की व्यवस्था की गई और चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी तय की गई कि वह प्रत्येक राज्य के चुनाव करा कर वहां लोकतान्त्रिक सरकारों के गठन का मार्ग प्रशस्त करेगा। आजादी के बाद से चुनाव आयोग अपना यह कार्य करता आ रहा है परन्तु भारत राजनैतिक रूप से बहुदलीय प्रणाली वाला एेसा देश है जिसमें क्षेत्रीय व राष्ट्रीय राजनैतिक दलों की व्यवस्था है। यह कार्य चुनाव आयोग ही करता है और प्रत्येक दल के जनमत व विस्तार को देखते हुए उसे राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय दल घोषित करता है। इस व्यवस्था के तहत किसी भी राज्य में किसी भी राजनैतिक दल की सरकार हो सकती है और केन्द्र में किसी दूसरे दल का शासन हो सकता है।

बेशक प्रत्येक राज्य सरकार और केन्द्र सरकार का कार्यकाल पांच वर्ष का ही होता है मगर इस दौरान यदि विधानसभा या लोकसभा में राजनैतिक आकस्मिकता पैदा होती है तो प्रधानमन्त्री या मुख्यमन्त्री को यह अधिकार होता है कि वह पुनः चुनाव कराने के लिए संविधान के मुखिया राष्ट्रपति या राज्यपाल से सिफारिश कर सके। वास्तव में चुनावों का बार-बार होना जीवन्त लोकतन्त्र की सबसे बड़ी ताकत होती है। एेसा कहना समाजवादी चिन्तक व महान जन नेता डा. राम मनोहर लोहिया का था। विधानसभाओं या लोकसभा के कार्यकाल जनता की इच्छा से ही अन्ततः बन्धे होते हैं। अतः जब भी किसी विधानसभा में किसी सरकार का बहुमत समाप्त होता है तो उसे पुनः चुनाव कराने से घबराना नहीं चाहिए क्योंकि लोकतन्त्र में आखिरकार जनता की ही सरकार होती है। डाॅ. लोहिया तो यहां तक कहते थे कि ‘जिन्दा कौमें कभी पांच साल तक इंतजार नहीं करती हैं’। इसलिए यदि बीच में ही कोई सरकार जन विरोधी नीतियां अपनाती है तो चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से उसे गिरा कर आम जनता से नया जनादेश लिया जाना चाहिए परन्तु केन्द्र की मौजूदा सरकार चाहती है कि देश की सभी विधानसभाओं व लोकसभा के चुनाव एक साथ ही कराये जाने चाहिए। इसके लिए वह लोकसभा में एक विधेयक भी लाई है। यह विधेयक संविधान संशोधन का है। इस पर विचार करने के लिए संसद की एक संयुक्त समिति भी गठित कर दी गई है। इस समिति की पहली बैठक गत बुधवार को हुई जिसमें विपक्षी दलों ने इस विधेयक का विरोध किया मगर सत्तारूढ़ एनडीए गठबन्धन के भी कुछ दलों ने विपक्षी दलों के सांसदों की राजी में अपनी राजी दिखाई। इससे साफ है कि समिति के भीतर इस मुद्दे पर एक राय बनाने में बहुत मुश्किल आने वाली है।

मूल प्रश्न यह है कि क्या जीवन्त लोकतन्त्र में विधानसभा या लोकसभा की अवधि को नियन्त्रित किया जा सकता है। पहले भी वाजपेयी शासन के दौरान और उसके बाद भी गृहमन्त्री रहे श्री लालकृष्ण अडवानी ने कहा था कि कोई भी चुना हुआ सदन विशेषकर लोकसभा व विधानसभा पांच साल से पहले भंग नहीं होना चाहिए। यदि कोई सरकार बहुमत खो देती है तो उसका स्थान लेने के लिए किसी वैकल्पिक सरकार का प्रस्ताव तैयार हो जाना चाहिए। एेसा करके हम सरकार को किसी प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी की तर्ज पर देखेंगे। जाहिर है कि लोकतन्त्र में एेसा करके हम राजनैतिक सन्निपात को ही बढ़ावा देते और जोड़-तोड़ को बुलावा देते। एक देश-एक चुनाव का विचार तभी कारगर हो सकता है जब इसके लिए देश के सभी राज्य राजी हो जायें और हम संविधान में संशोधन करके प्रत्यक्ष चुने हुए सदनों की अवधि बांध दें। यह मुद्दा भारत के संघीय ढांचे की स्वीकार्यता से भी जुड़ा हुआ है, जिसमें राज्यों को अपनी विधानसभाओं के बारे में सर्वाधिकार मिले हुए हैं। इसी मुद्दे पर संसद की संयुक्त समिति में अब विचार-विमर्श चलेगा।

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