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विपक्षी एकता और डा. लोहिया

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09:53 AM Dec 11, 2018 IST | Desk Team

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विपक्ष की एकता को लेकर आज लगभग वैसे ही हालात बन रहे हैं जैसे 1967 के आम चुनावों से पहले लेकर बने थे। उस समय समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने हांक लगाई थी कि ‘कांग्रेस हराओ–देश बचाओ’ और इसके लिए उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद के साये के तले सभी शेष राजनीतिक दलों को लाने का सफल प्रयास इस वर्ष हुए आम चुनावों के नतीजों के बाद इस तरह किया कि धुर विरोधी जनसंघ व कम्युनिस्ट पार्टी के लोग भी सांझा राज्य सरकारों में शामिल हो गए। असल में डा. लोहिया केवल यह सिद्ध करना चाहते थे कि लोकतन्त्र में कांग्रेस सत्ता को अपनी बपौती नहीं मान सकती है। लोगों में यह विश्वास जगाना जरूरी है कि कांग्रेस के विरोध में जितने भी दल हैं वे भी जनता के वोट की ताकत से सत्ता में आ सकते हैं मगर डा. लोहिया ने यह जिम्मेदारी राजनीतिक दलों पर ही छोड़ दी कि वे किस प्रकार उन राज्यों में अपना नेतृत्व तय करते हैं जिनमें कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला था।

हालांकि डा. लोहिया की मृत्यु अक्तूबर 1967 में ही हो गई किन्तु वह भारतीय लोकतन्त्र में लोकशाही के उस पहलू की स्थापना करके चले गए कि सत्ता किसी विशेष राजनीतिक दल का विशेषाधिकार नहीं हो सकती मगर आज देश के सामने जो राजनीतिक परिस्थितियां हैं उनमें आगामी लोकसभा चुनावों से पहले सत्ताधारी भाजपा के खिलाफ शेष राजनैतिक दल एक एेसा महागठबन्धन बनाना चाहते हैं जो उसे पराजित करने की स्थिति में आ सके। 1967 से लेकर अब तक पचास वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है और इस दौरान भारत की राजनीति ने न जाने कितनी करवटें लेकर लोकतन्त्र को इतने जख्म दिए हैं कि उन्हें केवल गांधी बाबा के दिखाए रास्ते पर चलने वाले अहिंसा को ‘परमोधर्म’ मानने वाले लोग ही निडर होकर सह सकते थे।

इन पचास वर्षों ने इतने उतार-चढ़ावों को देखा कि आज राजनीति पूरी तरह व्यवसाय में बदल गई है और समाजवाद व राष्ट्रवाद के अर्थ ही नहीं बदल गए हैं बल्कि संविधान की सत्ता के स्वरूप में भी मनमाफिक बदलावों की होड़ लगी हुई है। पूरी राजनीति अब एेसे दो धुरों पर आकर आमने-सामने हो गई है जिसमें ‘वोट किसी का और राज किसी का’ की दाेमुंही धारा लोकतन्त्र को ही डराने के मुकाम पर खड़ी​ हुई लगती है। दरअसल जब सत्तर के दशक में जनसंघ के नेता डा. मुरली मनोहर जोशी ने यह आवाज उठाई थी कि ‘वोट हमारा–राज तुम्हारा, नहीं चलेगा-नहीं चलेगा’ तो उसका दायरा सीमित था। डा. जोशी सिर्फ इतना चाहते थे कि 1971 में स्व. इन्दिरा गांधी ने गरीबी हटाओ के नाम पर जो प्रचंड बहुमत प्राप्त किया था उसे जमीन पर उतारने के लिए पूंजीपतियों को सत्ता के अधिकारों से दूर रखा जाए, लेकिन आज सवाल खड़ा हो रहा है कि पूंजीपतियों की सत्ता के हर क्षेत्र में घुसपैठ को नाकारा बनाने के लिए आम जनता को अधिकारों से लैस किया जाए।

लोकतन्त्र की विशेषता यह होती है कि इसमें लोगों को सुविधाओं के नाम पर खैरात नहीं बांटी जाती है बल्कि उन्हें संविधान के तहत सुविधाओं का अधिकार पुख्ता तौर पर दिया जाता है। गांधीवाद और मार्क्सवाद में मूलतः यही अन्तर है और यह जीवन के हर क्षेत्र में बेबाकी से लागू होता है जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता जैसा बौद्धिक अधिकार भी शामिल है। लोकतन्त्र को जब हम यह कहते हैं कि यह जनता के लिए शासन होता है तो आशय यह नहीं होता कि बहुमत का अल्पमत पर शासन होगा बल्कि अर्थ यह होता है कि अल्पमत का विश्वास अर्जित करके बहुमत की संविधान को समर्पित सत्ता होगी और संविधान में प्रत्येक नागरिक को एक समान अधिकार देने का प्रावधान है अतः संसद या विधानसभाओं में अल्पमत में पहुंचे राजनीतिक दलों की हुकूमत में शिरकत भी इसी आधार पर देखी जाएगी क्योंकि उनके नुमाइंदे भी आम जनता के वोट द्वारा ही चुने जाते हैं।

अतः चुने हुए सदनों में अल्पमत में रहने के बावजूद जब विरोधी पक्ष सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखता है तो उसे मालूम होता है कि वह सरकार का कुछ नहीं बिगाड़ सकता मगर विश्वास होता है कि वह सरकार को चुनने वाली जनता के विचारों को बदल सकता है। संसदीय प्रणाली का यह एेसा कारगर हथियार होता है जिसका मुकाबला बड़ी-बड़ी फौजें भी नहीं कर सकतीं। भारत को गांधी का दिया हुआ यही सबसे बड़ा उपहार है जिसे इस देश की जनता अपनी थाति मानती है। अतः विपक्षी दलों के एक मंच पर आने के मुद्दों को हम केवल सत्ता की खातिर स्वार्थी गठजोड़ बनाए जाने की दृष्टि से नहीं देख सकते बल्कि वृहद धरातल पर उसी प्रकार देखेंगे जिस प्रकार 1967 में डा. राम मनोहर लोहिया ने देखा था। बेशक आज गैर-भाजपावाद का नारा बुलंद करके विभिन्न राजनीतिक दल आगामी लोकसभा चुनावों का एजैंडा तय करना चाहते हैं मगर उन्हें ध्यान रखना होगा कि केवल ‘भाजपा हटाओ- देश बचाओ’ का नारा हवा में लहरा देने से राजनीति नहीं बदल सकती, राजनीति केवल वैचारिक विमर्श बदलने से ही बदलती है।

इस सन्दर्भ में मुझे उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता रहे बाबू गोविन्द सहाय का उदाहरण याद आ रहा है। उन्होंने कभी भी उस समय तक राज्य के प्रमुख विरोधी दल माने जाने वाले भारतीय जनसंघ की कठोर राष्ट्रवादी नीतियों का नाम लेकर उल्लेख नहीं किया। वह अपनी जनसभाओं में चुटकियां लेते हुए कहा करते थे कि “भाइयो ये जनसंघी केवल भारत में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में भी हैं। वहां ये कहते हैं कि ये कैसा पाकिस्तान है जिसमें आगरे का ताजमहल नहीं है, दिल्ली का लालकिला और जामा मस्जिद नहीं हैं। भारत में ये कहते हैं कि ये कैसा हिन्दोस्तान है जिसमें हिंगलाज देवी का मन्दिर पाकिस्तान में है, हनुमान जी का एेतिहासिक मन्दिर कराची में है। ननकाना साहेब और करतारपुर साहेब पाकिस्तान में हैं। भाइयो हम उस भारत का निर्माण करने में लगे हुए हैं जिसकी पहचान दीन से नहीं दयानतदारी से होगी और पाकिस्तान को खुद कहना पड़ेगा कि हमसे भारी भूल हो गई थी।

हमारा औद्यो​िगकरण और कृषि का विकास पाकिस्तान को स्वयं ही रक्त रंजित कर देगा क्योंकि दुनिया के किसी भी देश में सबसे पहले वहां के नागरिकों को रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए जो किसी की दया से नहीं बल्कि अपने हक के तौर पर अपनी मेहनत से चाहिए और अमीर से छीन कर नहीं बल्कि इस देश की सम्पत्ति के बंटवारे में अपने हिस्से के तौर चाहिए क्योंकि नेहरू ने अंग्रेजों से साफ कह दिया था कि तुम यहां से जाओ तो सही फिर तुम्हें दिखा दूंगा कि भारत कितना अमीर मुल्क था और रहेगा।” अतः सवाल पहले से जारी राजनीतिक विमर्श में संशोधन करने का नहीं है बल्कि पूर्णतः अपरिवर्तनीय विकल्प पेश करने का है। प्रश्न केवल इतना है कि क्या विपक्ष में यह क्षमता है ?

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