दलितों का उत्पीड़न जारी...
दलित समाज वर्तमान में सियासत की धुरी बना हुआ है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि दलितों को राजनीति के केन्द्र में तो रखा जाता है लेकिन उनकी परवाह कोई नहीं करता। भारत में आज भी दलितों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। दलितों के मौजूदा हालात से साफ है कि कानूनी उपाय दलितों की दशा सुधारने में असरदार साबित नहीं हुए हैं। उनके साथ होने वाली हिंसा में शारीरिक प्रताड़ना, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, हत्या और घरेलू हिंसा शामिल है। दलितों को उनके हक से वंचित रखना आम बात है। करीब से नजर डालें तो दलित ऊंच-नीच के दर्जे में बंटे हिन्दू समाज का ही आईना है। आजादी के बाद बने भारत के संविधान में दलित हितों के संरक्षण के लिए व्यवस्थाएं तो की गई लेकिन उन्हें लागू करने की प्रक्रिया आधी-अधूरी रही। लखनऊ में पुलिस हिरासत में दलित युवक अमन गौतम की मौत पर सियासत गरमाई हुई है। पुलिस का कहना है कि हिरासत में उसकी तबीयत बिगड़ गई थी जिससे उसकी मौत हो गई लेकिन जो सीसीटीवी फुटेज सामने आई है उसमें अमन गौतम बहुत आराम से चलकर पुलिस वालों के साथ जा रहा है। पुलिस की पूरी थ्यौरी गले नहीं उतर रही। पुलिस का दावा है कि मृतक को जुआ खेलते पकड़ा गया था जबकि परिवार का कहना है कि वह जागरण की तैयारी कर रहा था कि पुलिस ने उसे पार्क में कुछ दोस्तों के साथ पकड़ लिया और इतना बेरहमी से पीटा कि वह बेहोश हो गया। अफरा-तफरी में पुलिस वाले घबराकर उसे अस्पताल ले गए जहां उसकी मौत हो गई।
इस मामले पर विपक्षी दलों के विरोध-प्रदर्शन के बाद चार पुलिस कर्मियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया है और मामले की जांच जारी है। विपक्षी दलों के नेता आरोप लगा रहे हैं कि देश में दाल से सस्ती दलितों की जान हो चुकी है और दलितों पर अत्याचार के मामले बढ़ रहे हैं। पुलिस हिरासत में मौतें कोई नई घटना नहीं है। पुलिस ज्यादतियों से अनेक मौतें हो चुकी हैं। अब सवाल यह है कि पुलिस हिरासत में युवक की मौत को दलित एंगल से देखा जाना चाहिए या इसे केवल पुलिस की कार्यशैली को लेकर सवाल उठाए जाने चाहिए। उत्तर प्रदेश के कासगंज में ही दलित किसान द्वारा आत्महत्या किए जाने को लेकर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि 47 वर्षीय दलित किसान राकेश को रामलीला कार्यक्रम से बाहर निकाल दिया था। आरोप लगाया जा रहा है कि रामलीला कार्यक्रम में उसे अपमानित कर बाहर किया गया जिसके चलते उसने आत्महत्या कर ली। आजादी का अमृतकाल बीत जाने के बाद भी ऐसी घटनाएं परेशान करती हैं।
ऐसी खबरें देशभर से आती रही हैं कि लंबी मूंछें रखने, नाम के साथ सिंह लगाने या घुड़सवारी करने पर दलित युवकों की पिटाई की जाती है। दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़कर बारात ले जाना कई इलाकों में आज भी वर्जित है। मिड-डे-मील के वक्त दलित छात्रों को अलग बिठाए जाने की घटनाएं भी संवेदनाओं को जगा देती हैं।
शहरों के अपार्टमेंटों में सामाजिक असमानताओं के उदाहरण मिल जाएंगे। आज सभी दलों के नेता दलित के घर जाकर भोजन करते दिखाई देते हैं जबकि सामाजिक हकीकत यह है कि दलित सामाजिक चेतना का हिस्सा नहीं बनते। आखिर हमने कैसा समाज रच डाला है जिसमें जो कुछ भी चमक रहा है वह काला है। देश में दलितों की आबादी कुल आबादी की एक चौथाई है। दलित महिलाएं सबसे ज्यादा उत्पीड़न का शिकार हैं। उनके शोषण की घटनाएं आम हैं। इतनी बड़ी आबादी को हर तरह के भेदभाव, अपमान और त्रासदी के हवाले रखकर देश न तो विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है और न ही सभ्यता और संस्कृति के लक्ष्य को। इसी साल सितम्बर महीने में आई एक सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में 2022 में अनुसूचित जाति (एससी) के खिलाफ सबसे अधिक अत्याचार की सूचना मिली है। रिपोर्ट में इस बात पर चिंता जताई गई है कि आरोपियों को मिलने वाली सजा की दर घट गई है। 2022 में, सजा की दर गिरकर 32.4 प्रतिशत हो गई, जो 2020 में 39.2 प्रतिशत थी। हालांकि पिछले 10 वर्षों में अल्पसंख्यकों खासकर मुस्लिमों और ईसाईयों पर भी अत्याचार की घटनाएं बढ़ी हैं, लेकिन इन समुदायों से संबंधित कोई रिपोर्ट सरकार के पास उपलब्ध नहीं है।
दलितों के मुकाबले अब अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के मामले ज्यादा सामने आ रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, अनुसूचित जाति के खिलाफ अत्याचार के सभी मामलों में से 97.7 फीसदी मामले 13 राज्यों में दर्ज किए गए। उत्तर प्रदेश में 12,287 मामले या कुल का 23.78 प्रतिशत, इसके बाद राजस्थान में 8,651 मामले (16.75 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश में 7,732 मामले (14.97 प्रतिशत) हैं। रिपोर्ट में जाति आधारित हिंसा को रोकने और कमजोर समुदायों के लिए मजबूत सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए ऐसे जिलों को चुनकर हस्ताक्षेप का आह्वान किया गया है। आज की तारीख में दलितों पर अत्याचार इसलिए भी कम या खत्म नहीं हो पा रहे कि जहां बाबा साहेब अम्बेडकर का सपना था कि आरक्षण की मदद से आगे बढ़ने वाले दलित दूसरे दलितों को दबे कुचले वर्ग से बाहर लाने में मदद करेंगे लेकिन आगे बढ़ गए दलित खुद को अन्य दलितों से ऊंचे दर्जे का दलित समझने लगते हैं और उनसे दूरी बना लेते हैं। दलित हितों की रक्षा के लिए कई ‘सेेनाओं’ का गठन हो चुका है लेकिन सब राजनीति करने में व्यस्त हैं। यह दल तो इतना भी नहीं जानते कि राजनीति का काम सत्ता हासिल करना ही नहीं समाज को बदलना भी है। बेहतर यही होगा कि दलितों को रोजगार और शिक्षा उपलब्ध कराई जाए और उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाया जाए ताकि देश में समानता कायम हो सकें।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com