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बिहार के युवा मतदाता

05:00 AM Aug 27, 2025 IST | Aditya Chopra
पंजाब केसरी के डायरेक्टर आदित्य नारायण चोपड़ा

भारत का संविधान स्पष्ट रूप से इसके नागरिकों को अधिकार देता है कि वे 18 वर्ष की उम्र से ऊपर होने पर लोकतन्त्र के महापर्व चुनाव में शामिल हों और अपनी मनपसन्द की सरकारें बनवाने में मदद करें। विधानसभा व लोकसभा चुनावों के लिए 80 के दशक में यह महत्वपूर्ण संशोधन किया गया था कि मतदाता की आयु 21 वर्ष से घटा कर 18 वर्ष कर दी जाये। यह परिवर्तन स्व. राजीव गांधी की केन्द्र सरकार ने किया था। आश्चर्यजनक यह था कि मतदाता आयु घटाने की मांग मुख्य रूप से उस समय भारतीय जनसंघ (भाजपा) द्वारा की जाती थी। इसके बाद भारत में एक दर्जन से ज्यादा बार केन्द्र व राज्यों के चुनाव हुए और युवा मतदाताओं ने इनमें शिरकत की। वोट का अधिकार भारत के लोगों को सौगात में नहीं मिला, बल्कि स्वतन्त्र भारत की पुख्ता लोकतान्त्रिक नींव के रूप में मिला जिसके लिए स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान ही महात्मा गांधी ने साफ घोषणा कर दी थी और 1934 में ही भारत के लोगों से वादा किया था कि स्वतन्त्रता मिलने पर प्रत्येक वर्ग व समुदाय के स्त्री-पुरुष वयस्क नागरिक को बिना किसी भेदभाव के एक वोट का अधिकार दिया जायेगा और यह एेसा अधिकार होगा जिसके जरिये भारत के लोग अपनी लोकप्रिय सरकारों का गठन चुनावों में मिले बहुमत के आधार पर कर सकेंगे।
दरअसल यह एक मूक क्रान्ति थी जिसे गांधी बाबा लेकर आये थे क्योंकि एक हजार साल की गुलामी में रहने वाले लोगों में दासता भाव अंग्रेजों ने अपने दो सौ वर्ष के शासन के दौरान कूट-कूट कर भर दिया था। गांधी बाबा ने इसी दासता भाव को एक वोट के अधिकार से तोड़ा और एेलान किया कि भारत का मतदाता अब स्वयंभू होगा। उसके दरवाजे पर हर पांच साल बाद बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं को भी जाना होगा और उनसे वोट की याचना करनी पड़ेगी। पूरी चुनाव प्रणाली को शुचिता व पवित्रता प्रदान करने के लिए एक स्वतन्त्र चुनाव आयोग होगा जो सरकार का अंग नहीं होगा और उसकी सीधी जवाबदेही भारत के मतदाता के प्रति होगी। मगर क्या कयामत है कि यही चुनाव आयोग बिहार में मतदाता सूची की सघन जांच करते समय राज्य के युवा समझे जाने वाले मतदाताओं के नाम ही मतदाता सूची से उड़ा रहा है। मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि चुनाव आयोग किस प्रकार काम करता है, इसका सरकार से कोई मतलब नहीं होता। उसकी निगाह में चुनाव में भाग लेने वाली हर राजनीतिक पार्टी एक समान होती है। उसे इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि कौन सी पार्टी सत्तारूढ़ है और कौन सी विपक्ष में बैठी हुई है।
चुनाव आयोग राजनीतिक दलों को भारत के लोकतन्त्र का सबसे बड़ा भागीदार मानता है क्योंकि उन्हीं की मार्फत मतदाता चुनाव में अपनी वरीयता दर्शाते हैं और बहुमत की सरकार का गठन होते हुए देखते हैं। मगर क्या कयामत है कि बिहार में मतदाता सूची की जांच करते समय चुनाव आयोग खुद ही 65 लाख लोगों को मतदाता सूची से बाहर रख रहा है और तर्क दे रहा है कि 22 लाख से अधिक मतदाताओं की मृत्यु हो चुकी है, 36 लाख अपना घर-बार छोड़ कर दूसरी जगहों को पलायन कर चुके हैं और सात लाख कई-कई स्थानों पर मतदाता बने हुए हैं। मैं चुनाव आयोग के आंकड़ों को चुनौती नहीं दे रहा हूं बल्कि यह कह रहा हूं कि इन 65 लाख मतदाताओं की सघन जांच होनी चाहिए क्योंकि 2024 की मतदाता सूची के मुताबिक ये सभी बिहार में विद्यमान थे। इन 65 लाख मतदाताओं की जांच अंग्रेजी के अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने सघन रूप से की और पाया कि बिहार के तीन जिलों मधुबनी, पटना और पूर्वी चम्पारण में ही दस लाख 63 हजार मतदाताओं के नाम सूची से काट दिये गये। इनमें 18 वर्ष से लेकर 40 वर्ष तक की आयु के लगभग 38 प्रतिशत मतदाता भी शामिल हैं। पहले चुनाव आयोग इन कुल 65 लाख मतदाताओं की सूची सार्वजनिक करने से भी इन्कार कर रहा था मगर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उसे सभी के नाम सार्वजनिक करने पड़े। बिहार के ये तीन जिले सर्वाधिक आबादी वाले माने जाते हैं। इन तीनों जिलों के मतदान केन्द्रों के सर्वेक्षण के आधार पर यह निष्कर्ष निकला है। इन तीन जिलों में विधानसभा की 36 सीटें हैं।
सब जानते हैं कि बिहार में कुल 243 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से 36 सीटों पर ही कुल काटे गये 65 लाख मतदाताओ में से 16 प्रतिशत से अधिक मतदाताओं के नाम आ गये। यह तो केवल एक बानगी है जो जांच में सामने आयी है। अगर दस लाख से अधिक मतदाताओं में से 37.8 प्रतिशत मतदाता 18 से लेकर 40 वर्ष तक की आयु के हैं तो आसानी से समझा जा सकता है कि युवाओं को मतदान के प्रति प्रेरित करने के अभियान को कितना धक्का लगेगा। चुनाव आयोग की यह पहली जिम्मेदारी बनती है कि वह इसका सन्तोषजनक उत्तर दे क्योंकि चुनाव आयोग एक एेसी संवैधानिक संस्था है जिसके इकबाल से भारत का लोकतन्त्र बंधा हुआ है। सितम भारत में यह हो रहा है कि चुनाव आयोग आम जनता के बीच सन्देहास्पद बनता जा रहा है जबकि जनता अभी तक मान कर चलती आ रही है कि आयोग का फैसला किसी भी प्रकार से राजनीतिक समीकरणों से नहीं बंधा होता है और वह चुनाव के दौरान एक निष्पक्ष न्यायकर्ता के रूप में खड़ा रहता है। इसलिए बहुत जरूरी है कि चुनाव आयोग अपना इकबाल बुलन्द रखने के लिए हर जरूरी कदम उठाये और भारत की जनता को विश्वास दिलाये कि उसकी बनाई गई मतदाता सूची पूरी तरह से त्रुटिविहान होगी। अगर बिहार के कुल 38 जिलों में से तीन की हालत यह है तो शेष 35 जिलों की मतदाता सूचियों के बारे में अन्दाजा लगाया जा सकता है। इसलिए अन्य 35 जिलों के युवा मतदाताओं को अभी से सचेत हो जाना चाहिए और अपने हक के लिए अपना आधार कार्ड या अन्य कोई जरूरी कागज चुनाव आयोग को दिखाना चाहिए क्योंकि आधार कार्ड को भी सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ही जरूरी प्रपत्र माना गया है। अभी 1 सितम्बर तक का समय है। तब तक जायज मतदाता अपना दावा पेश कर सकते हैं।

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