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हमारा प्यारा भारत वर्ष !

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10:38 PM Nov 20, 2017 IST | Desk Team

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राजनीति का यदि कोई सबसे घिनौना स्वरूप हो सकता है तो निश्चित रूप से वह किसी भी समाज का धर्म के आधार पर बंटवारा करके राष्ट्रीयताओं का निर्धारण करना होता है। इसका प्रमाण भारत स्वयं है जिसका बंटवारा 1947 में सिर्फ मजहब के नाम पर मुहम्मद अली जिन्ना करा कर ले गये परन्तु जिन्ना के इतिहास को यदि खंगाला जाये तो हम पायेंगे कि उन्होंने अपनी राजनीति की शुरूआत धर्मनिरपेक्षता और भारत की सहिष्णु संस्कृति के अहलकार के रूप में की थी और जब 1930 में मुस्लिम लीग का सम्मेलन प्रख्यात शायर इकबाल के नेतृत्व में इलाहाबाद में हुआ था और उसमें भारत के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में एक मुस्लिम राज्य (बाद में जिसे पाकिस्तान नाम दिया गया) की स्थापना की परिकल्पना प्रस्तुत की गई थी तो जिन्ना ने इस विचार को एक ‘शायर का ख्वाब’ बताकर नामुमकिन करार दिया था। इसी प्रकार यह भी इतिहास का पक्का सच है कि हिन्दू महासभा के नेता वीर सावरकर ने भी अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत समन्यवादी और धर्मनिरपेक्ष भारतीय संस्कृति के पेशकार के रूप में की थी मगर बाद में उन्होंने भी हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना प्रस्तुत करते हुए हिन्दू को भारतीय का पर्याय बताते हुए अन्य सभी प्रमुख धर्मावलम्बियों विशेषकर मुसलमानों को पृथक राष्ट्रीयता के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया। इन दोनों नेताओं की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि ये दोनों ही व्यक्तिगत जीवन में धर्म को कोई महत्व नहीं देते थे।

जिन्ना तो पूरे अंग्रेजी हिसाब-किताब से जीने वाले व्यक्ति थे और कभी नमाज तक नहीं पढ़ते थे। वहीं सावरकर निजी तौर पर ईश्वर की सत्ता ही नहीं मानते थे और नास्तिक थे। इसके बावजूद दोनों ही अपने-अपने धर्म के मानने वाले लोगों के समाज के नेता बन गये और दोनों पर ही ​‘चद्व-राष्ट्रवाद’ का सिद्धांत फैलाने का आरोप इतिहासकार लगाते हैं। इसका मतलब यह निकलता है कि साम्प्रदायिकता को आधार बनाकर राजनीति करना बहुत सरल रास्ता भी है क्योंकि इसके माध्यम से समस्त जनता को गोलबन्द करके उसका नेतृत्व करने के रास्ते में कोई दूसरी जनापेक्षा जन्म ही नहीं ले पाती और यदि लेती भी है तो उसे धार्मिक उन्माद का ‘जयनाद’ वहीं दबा देता है। इस राजनी​ित की बड़ी खूबी यह है कि यह किसी भी व्यक्ति को ‘इंसान’ मानने की जगह हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध या यहूदी मानती है और इनका फिर आगे क्षेत्रवार बंटवारा तक कर देती है जिसमें से जातिगत आधार पर पुनः वर्गीकरण करने में सफलता मिलती है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण पाकिस्तान है जो धर्म के आधार पर ही अस्तित्व में आया मगर इसके बाद ही वहां इस्लाम के उदारवादी समझे जाने वाले वर्गों जैसे शिया, अहमदियों, आगाखानी आदि मुस्लिमों पर कट्टरपंथी कहे जाने वाले सुन्नी मुस्लिमों का अत्याचार शुरू हुआ।

अतः मजहब के आधार पर ध्रुवीकरण की राजनीति इसी के भीतर अन्य ‘उप-ध्रुवीकरणों’ को बढ़ावा देकर समाज को भीतर से विभिन्न समुदायों में बांटने की क्षमता रखती है। इसका प्रमाण भारत के उत्तरी राज्य हैं जहां जातिगत आधार पर राजनीति में चमके लोग जनापेक्षाओं को सत्ता पर बैठते ही लात मारने से गुरेज नहीं करते हैं और निजी हित व अपना दबदबा उनका लक्ष्य रहता है। दरअसल इस प्रकार की राजनीति के पनपने का अन्देशा सबसे पहले भारतीय संविधान स्वतन्त्र भारत को देते हुए 26 नवम्बर 1949 को बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने प्रकट किया था और कहा था कि यदि हमने गरीबों व आम जनता के आर्थिक सशक्तीकरण के लिए कारगर कदम नहीं उठाये तो राजनीतिक आजादी व्यर्थ हो जायेगी और सत्ता पर ‘नये सामाजिक जमींदार’ कब्जा जमा लेंगे। राजस्थान में जिस प्रकार हिन्दुओं के नाम पर एक संस्था ने सम्मेलन करके पुनः ‘द्वि-राष्ट्रवाद’ के सिद्धान्त को ‘लव जेहाद’ के नाम पर परोसने की कोशिश की है वह भारतीय संविधान की धज्जियां उड़ाने से कम नहीं है। किसी भी संस्था या व्यक्ति को संविधान की अवहेलना करने की इजाजत नहीं दी जा सकती लेकिन कुछ लोगों ने आजकल भारत की उस महान संस्कृति को पैरों तले रौंदने की कसम उठा रखी है जिसने ‘मानस की जात सबै एकौ पहचानबो’ का उद्घोष तब किया था जब बाबर ने दिल्ली पर कब्जा किया था।

गुरु नानक देव जी महाराज ने तभी यह वाणी बोली थी। भारत के लोगों की धर्म के नाम पर जो लोग आज भी राष्ट्रीयता बदलने की बात करते हैं वे जिन्ना के मानस पुत्र होने के अलावा दूसरे नहीं कहे जा सकते। हम राष्ट्रवाद को इतना बौना और छोटा नहीं बना सकते कि वह किसी विशिष्ट धर्म के अनुयायियों की ही चरित्र हत्या करने लगे। यह देश सन्त तुलसीदास और अब्दुर्रहीम खानेखाना दोनों का ही है। दोनों ही विभूतियां कवि थीं मगर खानेखाना कवि होने के साथ बादशाह अकबर के सिपहसालार भी थे। रणभूमि में उनकी तलवार भी चमकती थी। इसके बावजूद तुलसीदास और खानेखाना में मित्रता थी। इन दोनों के बारे मे मैं उस प्रचलित कथा का वर्णन कर रहा हूं जो भारत के हिन्दी जगत के मूर्धन्य निबन्धकार व साहित्यकार स्व. डा. विद्यानिवास मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘रहीम ग्रन्थावली’ में लिखी है। तुलसीदास जी ने अपने दरवाजे पर आये किसी गरीब याचक को अपना पत्र देकर आर्थिक मदद के लिए खानेखाना के पास दिल्ली भेजा और बदले में खानेखाना ने उसकी झोली ‘अशर्फियों’ से भर दी तो तुलसीदास ने दोहा लिख कर खानेखाना को भेजा:
सीखी कहां नवाब जू एसी ‘देनी’ देन
ज्यों-ज्यों कर ऊपर करों त्यों-त्यों नीचे नैन
खानेखाना ने भी एक दोहे में जो जवाब देकर भारत की संस्कृति का जिस प्रकार सत्कार किया वह चौंकाने वाला है, इसे पढ़िये और फिर सोचिये कि हम किस भारतवर्ष की मिट्टी में बड़े हुए हैं:
देनहार कोऊ और है भेजत है दिन-रैन
लोग भरम हम पर धरैं ता से नीचे नैन

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