नफरत की बुनियाद पर खड़ा पाकिस्तान
1947 में जब मजहब की बुनियाद पर भारत का बंटवारा हुआ तो इसके पीछे मुस्लिम लीग…
1947 में जब मजहब की बुनियाद पर भारत का बंटवारा हुआ तो इसके पीछे मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना की नामुराद सोच थी कि हिन्दू व मुस्लिम दो अलग- अलग कौमें हैं जो आपस मंे मिल कर कभी नहीं रह सकती। दूसरी तरफ कांग्रेस व जमीयत उलेमाएं हिन्द ( देवबन्दी) के नेता थे जो कह रहे थे कि पूरे भारत में रहने वाले सभी हिन्दू-मुस्लिम एक कौमियत के हैं जिनमें भारत की धरती सांझी है। उस समय अंग्रेजों को लग रहा था कि यदि वे जिन्ना की बात मान लेंगे तो भविष्य में पाकिस्तान का उपयोग पूरे पश्चिम एशिया में और सोवियत संघ को काबू में रखने के लिए कर सकेंगे। हालांकि उस समय अंग्रेज सेना के कमांडरों की राय भी इस मुद्दे पर बंटी हुई थी। इसके प्रमाण तत्कालीन समय के बारे मंे लिखी गई कई पुस्तकों में मिलते हैं जिनमें पाकिस्तानी मूल के स्वीडन में बसे राजनीतिक विज्ञानी प्रोफेसर इश्तियाक अहमद की जिन्ना के बारे में लिखी पुस्तक सबसे प्रमुख है। यह पूरी तरह सत्य व प्रमाणित है कि 1920 तक मुहम्मद अली जिन्ना कांग्रेस पार्टी में थे जो स्वराज या सेल्फ रूल की बात करते थे। परन्तु इस दौरान 1916 में दक्षिण अफ्रीका से लौटे महात्मा गांधी ने कांग्रेस को केवल अंग्रेजों के समक्ष याचिकाएं रखने वाली पार्टी से जनता के साथ जुड़ने वाली पार्टी बनाने का बीड़ा उठाया था। जिससे जिन्ना इत्तेफाक नहीं रखते थे। वह नेताओं के काम में जनता को शामिल किये जाने के सख्त विरोध में थे। यही वजह रही कि आजादी के पूरे आन्दोलन के दौरान मुस्लिम लीग का कोई अदना सा नेता भी कभी एक घंटे के लिए जेल नहीं गया और पाकिस्तान बन गया। जिन्ना के पास उस समय मुस्लिम लीग व कांग्रेस दोनों की सदस्यता थी। जिन्ना उस समय तक हिन्दू–मुस्लिम एकता के अलम्बरदार समझे जाते थे। मगर गांधी जी के कांग्रेस की कमान लेने से वह घबरा गये थे क्योंकि गांधी जी की रणनीति स्वतन्त्रता आन्दोलन को जन मूलक बनाने की थी।
जिन्ना से जब कांग्रेस के एक सम्मेलन में अंग्रेजी के बजाय गुजराती या उर्दू हिन्दी में बोलने के लिए कहा गया तो उन्हें बहुत नागंवार गुजरा। यह कार्य गांधी जी की मंच पर मौजूदगी में ही हुआ। इसके बाद जिन्ना ने कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और वह मुस्लिम लीग का दामन पकड़े रहे। परन्तु 1930 मंे इलाहाबाद (प्रयागराज) में जब मुस्लिम लीग का अधिवेशन हुआ तो इसकी सदारत प्रख्यात शाहर अल्लामा इकबाल ने की । उस समय मुस्लिम लीग की हालत यह थी कि इसके इजलास का नियमाचार (कोरम) पूरा करने के लिए भी पर्याप्त मुसलमान नागरिक नहीं थे। तब इलाहाबाद के बाजारों से छांट- छांट कर मुस्लिम दुकानदारों को इस इजलास मंे बुलवाया गया । इकबाल ने तब पहली बार मांग की कि भारत के पश्चिम इलाके के सूबों में मुस्लिम सरकारें स्थापित करने की मंजूरी अंग्रेज सरकार दे। यह मुसलमानों के लिए प्रथक राज्य स्थापित करने की मांग थी जो कि ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ही थी। इसका खुलासा खुद इकबाल ने ही अंग्रेज सरकार को एक खत लिख कर किया था। इससे पहले जब चौधरी रहमत अली ने मुसलमानों के लिए अलग से मुल्क पाकिस्तान की मांग की थी तो जिन्ना ने उसका मजाक उड़ाया था और कहा था कि यह सिरफिरों जैसी बात है। मगर 1930 के बाद जब 1936 में अंग्रेजों ने प्रान्तीय एसेम्बलियों के चुनाव कराये तो पंजाब व बंगाल को छोड़ कर सभी राज्यों में कांग्रेस को भारी बहुमत मिला। उत्तर प्रदेश व बिहार के साथ बंगाल मंे मुस्लिम लीग को आंशिक सफलता मिली। उत्तर प्रदेश में जब चुनावों के बाद कांग्रेस की सरकार बन रही थी तो मुस्लिम लीग के चुने हुए विधायकों को भी इसमें शामिल करने का मसला उठा। तब कांग्रेस के नेताओं ने कहा कि यदि लीग के सदस्य मन्त्री बनना चाहते हैं तो उन्हें अपनी पार्टी छोड़ कर कांग्रेस की सदस्यता लेनी होगी। इन चुनावों की सबसे खास बात यह थी कि पंजाब जैसे मुस्लिम बहुल राज्य में मुस्लिम लीग को सिर्फ दो सीटें मिलीं। यहां पंजाब यूनियनिस्ट पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला। इस पार्टी में उस समय सभी हिन्दू–मुस्लिम व सिख भी शामिल थे। यहां कांग्रेस दूसरे नम्बर की पार्टी रही। उत्तर प्रदेश के घटनाक्रम को जिन्ना ने बहुत गंभीरता से लिया और उन्होंने अंग्रेजों से साफ कह दिया कि अब वह हिन्दू–मुसलमान की साम्प्रदायिक राजनीति ही करेंगे। अतः 23 मार्च 1940 को लाहौर के लीग अधिवेशन में उन्होंने मुसलमानों के लिए प्रथक देश पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव रख दिया।
अब जिन्ना पूरी तरह हिन्दू– मुसलमान की राजनीति पर उतर आये थे। उनकी पीठ पर अंग्रेज सरकार का वरदहस्त था। इसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया तो जिन्ना ने मुसलमानों से अंग्रेजों की भारतीय फौज में शामिल होने के लिए कहा और अंग्रेजों को आश्वासन दिया कि वह उनके साथ खड़े रहेंगे। जबकि कांग्रेस ने यह मांग की कि पहले अंग्रेज आश्वासन दें कि युद्ध के चलते वे भारत को खुद मुख्तार मुल्क घोषित करेंगे या आजादी दे देंगे। गांधी जी समेत कांग्रेसी नेताओं का मत था कि एक परतन्त्र देश की जनता उन पर राज करने वालों के हक में कैसे लड़ सकती है। अतः 8 अगस्त 1942 को महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने पूरे देश से चुन-चुन कर कांग्रेसी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। यह समय एेसा था जब खुले मंचों पर राजनीति समाप्त हो गई थी। इसका फायदा जिन्ना ने उठाया और अंग्रेजों से आश्वासन चाहा कि युद्ध समाप्त होने पर अंग्रेज पाकिस्तान का निर्माण कर देंगे। इस बारे मंे अंग्रेजों ने कोई आश्वासन नहीं दिया मगर इंकार भी नहीं किया। इस प्रकार जिन्ना ने कांग्रेस द्वारा खाली की गई राजनीतिक जगह को भरा और पूरे देश में पाकिस्तान निर्माण की मुिहम को हवा दी। द्वितीय विश्व युद्ध मंे अंग्रेजों के सारे खजाने खाली हो गये और हद यह हो गई कि उनकी फौज को तनख्वाहें भी अमेरिका के वित्तीय सहयोग से मिलीं। अमेरिका दबाव डालने लगा कि अंग्रेज भारत से बाहर जायें। इस दबाव के पीछे अंग्रेजों की आर्थिक दुबली हालत थी। वरना अग्रेजों की योजना थी कि वे 1973 तक भारत में ही बने रहेंगे। इन परिस्थितियों से जिन्ना ने जमकर फायदा उठाया और पाकिस्तान की मांग को सबसे ऊपर रखा। इस दौरान मुस्लिम लीग ने मुस्लिम बहुल राज्यों समेत सारे देश में मुसलमानों को भड़काना शुरू किया और प्रचार किया कि हिन्दू व मुसलमानों में कुछ भी सांझा नहीं है। उनका धर्म अलग है और संस्कृति अलग है जिन्हें हिन्दू अपना नायक मानते हैं वे मुसलमानों के लिए खलनायक हैं। मुस्लिम तौर –तरीके हिन्दुओं से कहीं मेल नहीं खाते। परन्तु त्रासदी यह है कि इस काम में अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय के छात्रों व शिक्षकों ने जिन्ना का साथ दिया। तभी 1945 में अंग्रेजों ने प्रान्तीय एसेम्बलियों के पुनः चुनाव कराने का निर्णय लिया और जिन्ना की पार्टी मुस्लिम लीग ने नारा लगाया
पाकिस्तान का मतलब क्या
ला इलाही इल इल्लिहा
पंजाब और बंगाल में तो मुस्लिम लीग ने हद पार कर दी और मुसलमानों से अपील की कि वे लीग को ही वोट दें। उनका लीग को दिया गया वोट सीधे रसूल-अल्लाह को दिया वोट माना जायेगा और जो कहीं और वोट करेगा उसका नमाजे-जनाजा भी नहीं पढ़ा जायेगा। उनका निकेहनामा भी नहीं पढ़ा जायेगा। वह दीन से अलग समझा जायेगा। इसका परिणाम यह हुआ कि पंजाब में मुस्लिम लीग की सीटों मंे गुणात्मक वृद्धि हुई जिनकी संख्या 75 थी। वह विधानसभा मे सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी । कांग्रेस को भी यहां अच्छी सीटंे मिली मगर सत्तारूढ़ यूनियनिस्ट पार्टी को तीसरे नम्बर पर ही सब्र करना पड़ा। जिन्ना चाहते थे कि पंजाब में उनकी पार्टी के नेतृत्व में सरकार गठित करने के लिए कांग्रेस उन्हें समर्थन दे। मगर एेसा नहीं हो सका यूनियनिस्ट पार्टी ने ही अन्य दलों के साथ मिल कर सरकार बनाई अब जिन्ना ने ठान लिया कि वह पाकिस्तान बनाने के लिए अंग्रेजों की हर शर्त मानेंगे और नतीजा निकला कि 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान बन गया।
यह इतिहास लिखने का मन्तव्य यही है कि भारत की नई पीढ़ी के लोगों को विभाजन के असली घटनाक्रम की पुख्ता जानकारी मिल सके और उनकी समझ में आ सके कि किस प्रकार अंग्रेजों से मिल कर जिन्ना ने उस मुल्क के साथ गद्दारी की जहां उसके दादा परदाओं की कब्रे हैं । जिन्ना जो खुद उर्दू के दो शब्द नहीं बोल सकता था और रहन-सहन व खान पान मंे अंग्रेजों जैसा ही था किस अन्दाज से पाकिस्तान ले उड़ा। क्या पाकिस्तान की यह विरासत मौजूदा पाकिस्तान के हुक्मरानों को याद रहेगी? दरअसल पाकिस्तान का निर्माण ही हिन्दू विरोध पर टिका हुआ है। पाकिस्तान भारत का विरोध इसीलिए करता है कि यहां हिन्दू बहुसंख्या में हैं और हिन्दू धर्म दूसरे धर्मों का भी बराबर का आदर करता है। मगर जिस तरह कश्मीर के पहलगाम में पाक आतंकियों ने लोगों का धर्म पूछ –पूछ कर उन्हें मौत के घाट उतारा वैसा ही भारत के बंटवारे के दौरान हुआ था। पाकिस्तान की सबसे बड़ी विरासत यही है कि यह कम से कम दस लाख लोगों की लाशों पर तामीर हुआ मुल्क है। हिन्दुओं से नफरत को पाकिस्तानी हुक्मरान हर हालत में जारी रखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि जिस दिन यह घृणा समाप्त हो जायेगी उस दिन उनका वजूद भी मिट जायेगा क्योंकि भारत में इतनी ताकत है कि वह पाकिस्तान को नेस्तनाबूद कर सके। हकीकत तो यह है कि जिन्ना के हिन्दू –मुस्लिम देशों के विमर्श को 1971 में खुद उसके ही हिस्से पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने कब्र में गाड़ दिया था और खुद को बंगलादेश कहा था। मगर अफसोस पाकिस्तान का यह इतिहास पाकिस्तानियों को ही नहीं पढ़ाया जाता।