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पालघर मामला : निष्पक्ष जांच की दरकार

आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित सात अखाड़ों में से एक जूना अखाड़ा के दो साधुओं की पालघर में पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में भीड़ द्वारा हत्या किया जाना देश के लोकतांत्रिक इतिहास की बड़ी घटना थी।

12:03 AM Jun 13, 2020 IST | Aditya Chopra

आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित सात अखाड़ों में से एक जूना अखाड़ा के दो साधुओं की पालघर में पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में भीड़ द्वारा हत्या किया जाना देश के लोकतांत्रिक इतिहास की बड़ी घटना थी।

पालघर मामला   निष्पक्ष जांच की दरकार
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आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित सात अखाड़ों में से एक जूना अखाड़ा के दो साधुओं की पालघर में पुलिसकर्मियों की मौजूदगी में भीड़ द्वारा हत्या किया जाना देश के लोकतांत्रिक इतिहास की बड़ी घटना थी। इसके लिए जिम्मेदार है वह धारणा जो किसी को भी बच्चा चोर, लुटेरा या कोई बहरूपिया मान कर उनकी पीट-पीट कर हत्या किए जाने तक पहुंच जाती है। चोरों, अपराधियों पर अन्य नस्लों, कबीलों के लोगों के आशंका जनित भय पर सजा देने के उद्देश्य से बांधकर पीटने और जान तक मार देने की घटनाएं दुनिया के उन सभी समाजों में मौजूद रही हैं जो मनुष्यता के विकासक्रम में अपनी बर्बरता को समझ और छोड़ नहीं पा रहे। कुछ समाज इससे उबर चुके हैं लेकिन कई समाजों में विभिन्न कारणों से इन घटनाओं में बढ़ौतरी देखी जा रही है। हमने कई बार देखा कि चोर को पकड़ लिए जाने पर लोग उसके मुंह पर कालिख पोत गधे पर बैठा कर उसको घुमाया गया, उसे पीटा भी गया, जूते-चप्पलों की माला भी पहनाई गई। ऐसे मामलों में हमने यह भी देखा कि पुलिस प्रशासन मूकदर्शक बनी रहती है। लिंचिंग शब्द अमेरिका से ही आया है। कुछ लोग इसे विलयम लिंच तो कुछ लोग इसे चार्ल्स लिंच के नाम के एक कैप्टन से जोड़ते हैं। कहा जाता है कि अमेरिकी क्रांति के दौरान वर्जीनिया के बेडफर्ड काउंटी का चार्ल्स लिंच अपनी निजी अदालतें बिठाने लगा और अपराधियों तथा विरोधी षड्यंत्रकारियों को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के सजा देने लगा। धीरे-धीरे लिंचिंग के रूप में यह शब्द पूरे अमेरिका में फैल गया। इस अत्याचार के शिकार अमेरिका के दक्षिणी हिस्से में बसे अश्वेत अफ्रीकी अमेरिकी समुदाय के लोग हुए। भारत में मॉब लिंचिंग की घटनाएं हाल ही के वर्षों में जोर पकड़ती जा रही हैं, उन्हें देखकर लगता है कि यह समस्या समाज को भीतर ही भीतर खाये जा रही है। विभिन्न समुदायों के बीच आपसी भय, घृणा और द्वेष इसके कारण हो सकते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि लोगों को पुलिस पर भरोसा ही नहीं है। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कानून के शासन में लोगों का विश्वास बढ़ाना बहुत जरूरी है। न्याय व्यवस्था में लोगों का भरोसा कायम होना चाहिए।
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बेरोजगारी, निष्ठापन, हताशा, तनाव और दबाव भी लोगों में आक्रोश उत्पन्न कर रही है। जी​वन में विफलताएं भी उन्हें हारा हुआ और कमजोर अनुभव करती हैं। जैसे ही किसी निर्दोष पर उनकाे अत्याचार का अवसर मिलता है तो बिना सोचे-समझे उस पर टूट पड़ते हैं। अब सवाल यह है कि लोगों का पुलिस और न्याय व्यवस्था में विश्वास कैसे बहाल किया जाए। पालघर मॉब लिंचिंग केस की जांच को लेकर महाराष्ट्र पुलिस पर अंगुलियां उठ रही हैं और देश के संत समाज को महाराष्ट्र पुलिस पर कोई भरोसा ही नहीं है।
प्रशासन और राजनीतिक नेतृत्व को बहुत संवेदनशीलता से इस मामले से निपटने की जरूरत थी, परन्तु ऐसा नहीं किया गया। जूना अखाड़ा के साधुओं और मारे गए साधुओं के परिजनों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर इस मामले की जांच सीबीआई आैर एनआईए से कराने की मांग की है।  याचिका में कहा गया है कि इस मामले में शक की सुई पुलिस पर ही है। ऐसे में पुलिस से सही तरीके से निष्पक्ष जांच की उम्मीद नहीं की जा सकती। शीर्ष अदालत ने महाराष्ट्र सरकार को नोटिस भेज जवाब मांगा है।
अक्सर देखा जाता है कि निष्पक्ष जांच के अभाव में दोषी बच निकलते हैं, जिससे लोगों को इंसाफ नहीं मिल पाता। मानव एक सामाजिक प्राणी है और समूह में रहना हमेशा से ही मानव की एक प्रमुख विशेषता रही है जो उसे सुरक्षा का अहसास कराती है लेकिन आज जिस तरह से समूह उन्मादी भीड़ में तब्दील होने लगे हैं, उससे हमारे भीतर सुरक्षा कम बल्कि डर की भावना ज्यादा बढ़ती जा रही है। देश में भीड़ ने अपने अलग किस्म के तंत्र का निर्माण कर लिया है, जिसे हम भीड़ तंत्र कह सकते हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों ने भी मॉब लिंचिंग पर कानूनों को सख्त बनाया लेकिन जब तक दोषियों को दंडित नहीं किया जाता तब तक लोगों का पुलिस और न्याय व्यवस्था में विश्वास कायम नहीं होगा। भारत ने हमेशा साधु-संन्यासियों का सम्मान किया है। लोकतंत्र में भीड़तंत्र को हत्याओं की इजाजत नहीं दी जा सकती। पालघर मामले में भी निष्पक्ष जांच की दरकार है, उसे महाराष्ट्र पुलिस करे या कोई अन्य जांच एजैंसी। अगर जांच को सीबीआई के हवाले कर भी दिया  जाता है तो न्याय की मांग कर रहे याचिकादाताओं को संतुष्ट किया जा सकता है। मॉब लिंचिंग को कानून व्यवस्था की समस्या के तौर पर ही नहीं बल्कि समाज में पैदा हुई विसंगतियों के समाधान द्वारा ही सुलझाया जा सकता है।
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आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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