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पंचकूला हिंसा : कैसे बचेगी कानून की गरिमा

25 अगस्त, 2017 को डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को सजा सुनाए जाने के बाद पंचकूला में हुई भयानक हिंसा को पूरे देश ने टीवी चैनलों पर देखा था।

01:06 AM Aug 01, 2018 IST | Desk Team

25 अगस्त, 2017 को डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को सजा सुनाए जाने के बाद पंचकूला में हुई भयानक हिंसा को पूरे देश ने टीवी चैनलों पर देखा था।

25 अगस्त, 2017 को डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को सजा सुनाए जाने के बाद पंचकूला में हुई भयानक हिंसा को पूरे देश ने टीवी चैनलों पर देखा था। हिंसा के दौरान मीडिया समेत सार्वजनिक सम्पत्तियों को तोड़फोड़ कर आग के हवाले कर दिया गया था। भीड़ के एक हिस्से ने एसएसबी, पुलिस और अर्द्धसैनिक बल पर भी हमला किया था। हिंसक प्रदर्शनों में करीब तीन दर्जन लोग मारे गए थे। मरने वालों में अधिकांश डेरा समर्थक ही थे। पंचकूला की हिंसा के बाद खौफ फैल गया था। मीडिया हरियाणा पुलिस की कार्यशैली को लेकर हफ्ते भर शोर मचाता रहा कि हरियाणा पुलिस हिंसा से निपटने में पूरी तरह विफल रही। सवाल यह था कि जब हिंसा की आशंका पहले से ही थी तो फिर हजारों की भीड़ इकट्ठी क्यों होने दी गई। बहुत ही नाटकीय अन्दाज में हनीप्रीत की गिरफ्तारी पर भी सवाल उठे थे। बहुत होहल्ला मचने पर पंचकूला पुलिस ने एक एसआईटी (विशेष जांच दल) का गठन किया। एसआईटी ने बहुत से लोगों पर हत्या का प्रयास आैर देशद्रोह का मामला दर्ज किया। मामला हाईप्रोफाइल होता गया। पुलिस ने ताना-बाना रचा आैर अनेक लोगों पर देशद्रोह और हत्या के आरोप लगाकर गिरफ्तारी की गई।

इस वर्ष फरवरी में सुनवाई के दौरान अदालत ने 53 लोगों पर लगे देशद्रोह आैर हत्या के प्रयास के मामले हटाने के निर्देश दे दिए थे। अब पंचकूला की सेशन अदालत ने राम रहीम के 6 आैर चेलों को बरी कर दिया क्योंकि एसआईटी आरोपियों के खिलाफ कोई ठोस सबूत पेश नहीं कर सकी। सबूतों के अभाव में 15 आरोपी पहले ही बरी किए जा चुके हैं। इस मामले में हरियाणा पुलिस और एसआईटी की जमकर फजीहत हो रही है। पंचकूला का हेफेड चौक किस तरह जंग का मैदान बना, उस दृश्य को मेरे मीडिया के साथी भूले नहीं होंगे जब भीड़ ने कई लाइव आेबी वैन में आग लगाई तब पुलिस और अर्द्धसैनिक बल खामोश खड़े थे। अगर आरोपी एक के बाद एक बरी हो रहे हैं और हिंसा के आरो​िपयों पर देशद्रोह जैसी संगीन धाराएं भी हटा ली गई हैं फिर सवाल उठता है कि पंचकूला में हिंसा किन लोगों ने की थी और इसके लिए कौन-कौन लोग जिम्मेदार थे? क्या विशेष जांच दल हवा में तीर मारता रहा आैर उसने आनन-फानन में हाईप्रोफाइल केस से निपटने के लिए जांच रिपोर्ट के आधार पर चार्जशीट पेश कर दी जो अदालत में टिक नहीं पाई।

अपने यहां न्याय के मार्ग में बहुत सी विसंगतियां आई हैं। हमसे गलती यह हो गई कि हम अपराध को समूल नष्ट करने के लिए पुराने नियमों और समय, काल और परिस्थिति के अनुसार उनकी समीक्षा नहीं कर सके। इसका दुष्परिणाम यह रहा कि अपराधी कानूनी दाव-पेच के चलते बच निकलते रहे। अदालत भावनाओं से नहीं सबूतों से चलती है। पुलिस की जांच और सबूत ही सुनवाई का पुख्ता आधार बनाते हैं। अगर पुलिस की चार्जशीट ही कमजोर होगी तो फिर अदालत के सामने आरोपियों को बरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता। पंचकूला की हिंसा में वह लोग संलिप्त थे जो राम रहीम के अंधभक्त थे और उसके इशारे पर जान देने को भी तैयार थे। पुलिस कहती है कि हिंसा की साजिश रची गई आैर इसके लिए धन का इस्तेमाल भी हुआ। यह भी वास्तविकता है कि डेरा सच्चा सौदा का प्रभाव काफी व्यापक था। चुनाव के दिनों में हर राजनीतिज्ञ डेरा समर्थकों के वोट पाने के लिए राम रहीम के समक्ष नतमस्तक होता था। धार्मिक आस्था और अंधविश्वास के नाम पर इतने बड़े आडम्बर भारत में ही देखे जा सकते हैं। आज इस अपराध तंत्र में अपराधों का संरक्षक कौन है? इस प्रश्न का उत्तर बहुत सीधा-सादा है- राजनेता आैर पुलिस तंत्र। अयोग्य और निरक्षरों का संरक्षक कौन-वह है राजनेता, तो फिर ऐसी घटनाओं पर शोक क्यों?

भारत में न्याय को एक देवी के रूप में चित्रित किया जाता है, जिसकी दोनों आंखों पर पट्टी बंधी है आैर हाथ में तराजू है, जो सत्य आैर असत्य के दो पलड़ों का द्योतक है। आंख पर पट्टी इसलिए है कि उसे बड़े-छोटे, शक्तिशाली, प्रभावशाली आैर कमजोर तथा गरीब से कोई मतलब नहीं। न्याय बस न्याय है। कहते हैं कि न्याय तो अंधा होता है। न्याय की अवधारणा है कि चाहे कितने दोषी छूट जाएं लेकिन किसी निर्दोष को सजा न हो। न्यायपालिका ने आरोपियों को बरी कर दिया तो सवाल पुलिस की कार्यशैली पर ही ठहरता है। क्या पंचकूला हिंसा में पकड़े गए लोग निर्दोष हैं तो फिर उन्हें नचाने वाले लोग कहां हैं? पुलिस को आत्मनिरीक्षण करना ही होगा। अगर ऐसे ही चलता रहा तो न तो मूल्य बचेंगे आैर न ही न्यायपालिका की गरिमा।

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